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अनुपम कहानियाँ

यशवंत मांडे

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6058
आईएसबीएन :81-7315-687-5

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सहज और सरल शैली में लिखी कहानियाँ सभी आयु के लोगों के लिए...

Anupam Kahaniyan - A Hindi book by Yashwant Mande, अनुपम कहानियाँ - यशवंत मांडे

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनुपम कहानियाँ संग्रह की कहानियों की विशेषता इनकी विविधता है। सारी कहानियाँ ऐसे विषयों पर हैं जिन पर आज तक कहानियाँ नहीं लिखी गई हैं। ‘सम्राट’ कहानी शिवाजी के आगरा से भाग जाने की घटना का रोमांचक वर्णन है। ‘आतंक’ कहानी उग्रवाद को एक चामत्कारिक रूप देती है। वसिष्ठ श्रीरामचंद्र के गुरु थे और ‘वसिष्ठ’ कहानी उनके जीवन पर नया प्रकाश डालती है। ‘सह्याद्रि’ कहानी पाठकों को अपने साथ पर्यटन पर ले जाती है और फिर पाठकों को वर्तमान जीवन के संघर्ष पर विचार करने के लिए विवश कर देती है। इसी तरह सारी कहानियों में ताजगी और नयापन है।
यशवंत मांडे की शैली और प्रस्तुति आकर्षक है। भाषा का प्रयोग कहानी के विषय के अनुसार और सरल है। इन कहानियों में किसी प्रकार की अश्लीलता नहीं है और इसे बच्चे, बूढ़े और स्त्रियां सभी पढ़ सकते हैं।

ये कहानियाँ वास्तव में अनुपम हैं और हमें आशा है कि पाठकों को पसंद आएँगी।

भूमिका

‘श्रेष्ठ सैनिक कहानियाँ’ प्रकाशित होने के बाद, मेरे लिए आवश्यक था कि मैं एक असैनिक कहानी-संग्रह पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करूँ। पाठकों ने सैनिक कहानियों का स्वागत किया, उसके लिए मैं उनका हार्दिक आभारी हूँ। वास्तव में, हिंदी साहित्य में साहित्यकारों ने सैनिक जीवन पर उचित ध्यान नहीं दिया है और मैं उनकी कठिनाइयाँ समझ रहा हूँ। यथार्थ रूप से ऐसा काम सैनिक लेखकों को ही करना चाहिए।

विश्व के किसी भी साहित्य में असैनिक कहानियों की कमी नहीं है। कहानियाँ तो किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है—माँ की ममता से लेकर वैज्ञानिक कल्पना की ऊँचाइयों तक। उत्कृष्ट कहानियाँ वे होती है, जो नए विषयों पर नई शैली में लिखी जाएँ। इस दृष्टिकोण से इस संग्रह की सभी कहानियाँ अनुपम हैं।
इस पुस्तक के लिए कहानियाँ चुनने में मुझे विशेष कठिनाई नहीं हुई। अंग्रेजी में लिखी हुई कहानियाँ मेरे पास पहले से ही थी। मैंने इनका पुनर्लेखन हिंदी में किया है। ‘सम्राट’ तथा ‘सिर्फ मैं और तुम’ नई कहानियाँ हैं जो पहली बार प्रकाशित हो रही हैं।
मुझे विश्वास है कि ये कहानियाँ पाठकों को पसंद आएँगी। इनमें नवीनता है, पढ़ने में सरल हैं और अंत तक उत्सुकता बनाए रखती हैं। इनमें गति है और पाठक एक बार पढ़ना शुरू कर दे तो उनके लिए बीच में विराम देना कठिन होगा।

कहानियाँ किसी खास कारण से लिखी जाती हैं, जिनका वर्णन कहानी में नहीं दिया जा सकता। इनका उल्लेख मैंने टिप्पणी में किया है। अगर पाठक इसे पढ़ लें तो वे कहानियों की विशेषता समझ सकेंगे और अधिक आनंद उठा पाएँगे।
इन कहानियों को लिखने में मुझे पं. काशीनाथ गोपाल गोरे ने हर प्रकार से सहायता दी है। पं. काशीनाथ हिंदी और संस्कृत के विद्वान हैं और कविता लिखते हैं। मैं उनका हार्दिक आभारी हूँ।

यशवंत मांडे

सम्राट


रात के अँधेरे में किसी सुनसान इलाके में भ्रमण करना खतरनाक होता है। ऐसी ही एक रात को कुछ घुड़सवार अपने लक्ष्य की ओर जा रहे थे। अमावस की रात थी और तेज हवा चल रही थी। इनका रास्ता बस्तियों से दूर तथा निर्जन था। अवश्य ये किसी गोपनीय उद्देश्य से जा रहे होंगे। मगर जा किधर रहे थे ?
ये चंबल की घाटियों की ओर बढ़ रहे थे। ये घाटियाँ वर्षो से डकैती के लिए बदनाम हैं। यहाँ की जमीन समतल तथा खेती के लायक नहीं है। यहाँ की जमीनें सूनी पड़ी हैं। इसीलिए यहाँ लोग जीवन का निर्वाह आसानी से नहीं कर सकते। मुगल आगरा तक पहुँचे थे, लेकिन इन घाटियों में नहीं आए। पूरा इलाका घनी झाड़ियों से भरा हुआ है और जानवरों का प्राकृतिक निवास है।

परंतु घुड़सवारों के मन में किसी प्रकार का भय नहीं था। वे इस स्थान से परिचित थे। एक सवार आगे जा रहा था, उसके पीछे चार और अंत में एक। लंबी यात्रा के बाद घोड़ा रुका, शेष सवार आगे जाकर मिल गए। आगेवाले सवार ने अपने सरदार को बताया कि वह निश्चित स्थान पर पहुँच गया है सरदार ने चारों तरफ देखा। सन्नाटा छाया हुआ था। सरदार ने तारों का परीक्षण किया और अगुआ सवार को एक दिशा में चलने के लिए कहा, जहाँ उसे मशाल दिखाई पड़ेगी। लगभग एक घंटे बाद उन्हें मशाल दिखाई दी। घुड़सवार मशाल के पास पहुँचे सरदार ने संतरी से बातें कीं।

एक-दूसरे की पहचान करने के बाद संतरी ने कहा कि आगे का रास्ता कठिन है, तंग खाइयों के बीच से गुजरता है। बेहतर होगा कि वे पैदल जाएँ। मार्गदर्शक के पीछे घुड़सवार अपने घोड़ों की लगाम हाथों में थामें प्रस्थान कर रही थी। दोनों सरदार गले मिले। बाकी सवार पास ही विश्राम करने के लिए चले गए।

सरदार भाई थे। बड़े का नाम जोरावर सिंह था, जो मिलने आया था और छोटे का नाम भैरव सिंह था। ये मेवाड़ के राजपूत थे। इनके पूर्वजों ने राणा प्रताप के साथ मुगलों से संग्राम किया था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद उन्हें राजस्थान छोड़ना पड़ा। चंबल और उसके आस-पास का इलाका खाली पड़ा था। उन्होंने यहाँ अपना ठिकाना बना लिया। दोनों सरदारों ने अपनी-अपनी जगह निर्धारित कर ली। उत्तर में जोरावरसिंह का और उसके दक्षिण में भैरव सिंह का इलाका था।

भैरव सिंह ने कहा, ‘‘मुझे कल ही सूचना मिली कि आप आने वाले हैं। कारण क्या है ?’’
‘‘महत्त्वपूर्ण है, तुम्हें एक व्यक्ति विशेष को विंध्याचल के पार ले जाना होगा।’’
‘‘वह हो जाएगा, इसमें कौन सी कठिनाई है ?’’
‘‘है, और तुम्हें इस काम के लिए सौ अशर्फियां मिलेंगी।’’
‘‘बड़े भैया, यह तो बहुत बड़ी राशि है; मगर आप खुद क्यों आए और वह भी रात को ? किसी और को भेज देते !’’
‘‘देखो, वह एक महान पुरुष है। तुम्हें उन्हें दुर्गम घाटी के रास्ते से पार कराना होगा। एक बार वे पार कर लें तो कोई उनका पीछा नहीं कर पाएगा।’’

‘‘भैया, आपको तो मालूम है कि यह रास्ता हम किसी को दिखाते नहीं। इसे हम अपने बचाव के लिए छिपाकर रखते हैं।’’
‘‘मैं जनाता हूँ। इन सब बातों का विचार कर मैं स्वयं आया हूँ। ले जाने में कोई हानि नहीं होगी। ये वापस नहीं आएँगे। इस रास्ते का पता किसी और को नहीं चलेगा।’’
‘वह व्यक्ति हैं कौन ?’’
‘‘धर्म गुरु हैं, सारे वेदों के ज्ञाता।’’
‘‘उन्हें जाना कहाँ हैं ?’’
‘‘उज्जैन।’’
‘‘कहाँ से आ रहे हैं ?’’
‘‘काशी से।’’
भैरव सिंह ने थोड़ी देर के लिए सोचा। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उसने कहा, ‘‘बड़े भैया, मैं उन्हें यात्रियों के रास्ते से पहुँचा दूँगा। उस रास्ते पर उन्हें संगत मिलेगी, विश्राम के अनेक स्थान हैं और वहा कोई लूट-मार नहीं होती दुर्गम घाटी के रास्ते से जाने में क्या फायदा होगा ? उन्हें बड़ी तकलीफ उठानी पड़ेगी।’’

जोरावर सिंह ने अपने छोटे भाई को बताया, ‘‘मुगल शाहंशाह धर्मगुरु के पीछे पड़े हैं। वे हर हालत में उन्हें कैद करना चाहते हैं। यह एक साजिश है। बादशाह उन्हें मुसलमान बनाना चाहते हैं। अगर वह इसमें कामयाब होते हैं तो गुरु के सारे अनुयायी धर्म-परिवर्तन कर लेंगे और फिर बाकी जनता। हमें ऐसे धर्मांतरण को रोकना होगा।’’
भैरव सिंह ने कहा, ‘‘हम ऐसा नीचता को सफल नहीं होने देंगे।’’
‘‘देखो, एक और बात मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। ये धर्मगुरु एक महान् युद्ध गुरु भी हैं। बादशाह उन्हें जागीर देते और शांति से बिना कुछ किए एक बड़ी सेना हासिल कर लेंते। अब तुम चाल समझे ?’’
‘‘जी। अच्छा हुआ, आप स्वयं आए, वरना मैं इस काम की जटिलता को समझ नहीं पाता।’’
भैरव, यह काम इतना आसान नहीं है। जैसे ही धर्मगुरु को बादशाह की साजिश का पता चला, वे भूमिगत हो गए। बादशाह ने घुड़सवारों की टोलियाँ उन्हें ढूँढ़ने के लिए रवाना कर दी हैं।’’
भैरव सिंह ने शपथ ली और आश्वासन दिया कि वह इस काम को पूरा करेगा। ‘‘आप जब चाहें तब धर्मगुरु को मेरे पास भेज दीजिए।’’
‘‘वे मेरे साथ आए हैं।’’
जोरावरसिंह ने आचार्य को बुलाया। सभी ने घर्मगुरु के चरण छुए। आचार्य ने मंत्र पढ़े और सबको आशीर्वाद दिया।
जोरवरसिंह पौ फटने से पहले अपने इलाके में पहुँच जाना चाहता था। जाने से पहले उसने अपने छोटे भाई को बताया कि मुगलों की टोली उसका पीछा करेगी। उसे उनका ध्यान रखना होगा।
‘‘उनकी संख्या कितनी होगी ?’’
‘‘पच्चीस से तीस घुड़सवार। उन्हें मेरे इलाके से गुजरना पड़ेगा। मैं तुम्हें खबर देता रहूँगा।’’
जोरावरसिंह ने धर्मगुरु से विदा ली और अपने सवारों के साथ वापस चल दिया।
भैरव सिंह ने अपने पुत्र नर सिंह को बुलाया और आचार्य से मिलवाया।
उसने धर्मगुरु को बताया कि नर सिंह हमेशा उनके साथ रहेगा। लड़का दिलेर है और अपने काम में कुशल।

भैरव सिंह ने अपने संतरी और अन्य सिपाहियों को इकट्ठा किया। वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। राह में भैरव सिंह अपने पुत्र को अपनी योजना के बारे में समझाता रहा था। लगभग दो घंटे के बाद वे रुके। सवेरा हो रहा था। भैरव सिंह ने गुरुदेव को गौर से देखा। उनकी उम्र लगभग पैंतीस साल थी। उनके सिर पर साफा था और दाढ़ी बढ़ी हुई थी। उनकी बाईं कमर में तलवार लटकी हुई थी उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं और चेहरे पर विलक्षण तेज था।

भैरव सिंह ने कहा, ‘‘आचार्य मैं यहाँ आपसे विदा ले रहा हूँ। बड़े भाई ने मुझे सब कुछ समझा दिया है। दुर्गम घाटी पहुँचने में कुछ दिन लगेंगे आपके साथ केवल नर सिंह होगा। इसका कारण यह है कि, हम यह रास्ता किसी और को नहीं बता सकते। किंतु हम आपको अकेला नहीं छोड़ रहे हैं। दूर से हम आपके ऊपर नजर रखेंगे। बड़े भाई कह रहे थे कि मुगल आपका पीछा कर रहे हैं। हम उन्हें आपको पकड़ने नहीं देंगे। क्षत्रिय परंपरा तो आप जानते हैं—‘प्राण जाहिं पर वचन न जाई।’’
भैरव सिंह ने अपने पुत्र को गले से लगाते हुए कहा, तुम अपना काम समझ गए हो न, तुम्हें कोई शक तो नहीं है ?’’
‘‘जी नहीं।’’

नर सिंह और आचार्य आगे बढ़े। भैरव सिंह वहीं से उन्हें देखता रहा। जब दोनों सवार आँखों से ओझल हो गए तो वह अपने साथियों के साथ अपने काम में जुट गया।


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