लोगों की राय

उपन्यास >> गुरुकुल

गुरुकुल

अनीता राकेश

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6084
आईएसबीएन :9788183612272

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

425 पाठक हैं

इस कहानी में मात्र दो पात्र हैं। एक कर्नल और दूसरा पार्थ। दोनों रिटायर्ड है। कर्नल पढ़ा-लिखा जागरूक इन्सान है और पार्थ एक सामान्य व्यक्ति जो हमारी आबादी का एक अहम हिस्सा है।

Gurukul

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘यह पैदाइशी नहीं बल्कि माइंड-सेट की प्रॉब्लम है जो कुछ बढ़ते बच्चों में पैदा होने लगती है...इसमें कोई इन्सानी ख़ुराफात नहीं होती। सायकोलॉजिस्टूस के पास ऐसे होने के कई-कई कारण हैं जो इन पर अलग-अलग लागू होते हैं। इसीलिए यह समझ नहीं आता कि यह स्थिति इतनी साइंटिफ़िक होते हुए भी गलत क़दम कैसे हुई। ज्यूडिशियरी क्रिमिनल्स को ठीक कर नहीं सकी, इन्हें जेल भेजकर कैसे सुधारने वाली है।’’ फिर थोड़ा रुककर बोले, ‘‘क्रिमिनल तो ख़ुराफ़ाती होते हैं, जिन्हें ज्यूड़िशियरी बदल नहीं पाई, जो बाहर आकर फिर वैसे के वैसे ही होते हैं तो गे को क्या सोचकर सज़ा दी जाती है ?’’

इसी पुस्तक से


ऊपरी तौर पर एकरैखिक प्रतीत होने वाला यह उपन्यास कथ्य और विषयवस्तु के लिहाज से हमें कई स्तरों पर सम्बोधित करता है। मूलतः यह ज्ञान के उद्भव और सम्प्रेषण के अभाव को महसूस करते हुए उसकी सर्जना का प्रयास करता है। दुनियादारी के प्रिज़्म से दुनिया की विविधता को जानने और पहचानने वाला कर्नल हर शाम को पार्थ को सम्बोधित करता है। हर दिन एक नई सुर्खी, हर दिन एक नया उद्घाटन और हर दिन वयस्कता का एक-एक क़दम चढ़ता हुआ पार्थ।

यहाँ पार्थ हमारे मध्यवर्गीय समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधि है जो अपनी दैनिक चर्या से बाहर अक्सर नहीं देख पाता और नतीजतन उस दुनिया और व्यवस्था के बारे में उसकी कोई निर्णायक राय नहीं बन पाती जो उसकी नियति को निर्धारित करती है, कर्नल एक-एक करके उसको न्याय व्यवस्था, आतंकवाद, कारपोरेट जगत, स्त्री-पुरुष आदि पर उसे इधर की स्थितियों से अवगत कराता है। अन्त में वह आता है पुरुष समलैंगिकता के प्रश्न पर जिस पर आज भी भारतीय समाज और कानून दोहरा पैमाना लागू करता है। वह इस जरिये को ख़ारिज करते हुए समलैंगिकों, समलैंकिक पुरुषों की सामाजिक स्थिति, उनके भीतरी-बाहरी अकेलेपन और दूसरी पीड़ाओं को रेखांकित करता है और कहता है कि यह लोग न अपराधी हैं, न समस्या। इन्हें दंड की नहीं, समझे जाने की ज़रूरत है।

एक अपील

इस पुस्तक में जो भी विचार या फिर मान्यताएँ दी गई हैं वह (स्व.) गुरुबख्शजी की निजी हैं।
उनके विचार या फिर मान्यताओं से यदि किसी भी जाति, वर्ग या फिर किसी धर्म की संवेदनाओं को ठेस पहुँची हो तो उसके लिए कर्नल क्षमाप्रार्थी थे।
साथ-साथ यदि उनके विचार किसी भी एक या अधिक व्यक्ति की मान्यता से मेल खाते हों तो इसे संयोग ही समझें।

धन्यवाद

गुरुकुल

वो अधेड़ उम्र का ज़रूर था लेकिन अच्छे क़द-बुत के साथ थोड़ा-बहुत स्वास्थ्य भी रखता था। एक रिटायर्ड उम्र के बावजूद परशियन कार्पोरेट पर बेहतरीन चहलक़दमी कर उसे दोनों तरफ से नाप सकता था।
हाथों को आपस में मसलता वह बड़ी अधीरता और गम्भीरता के साथ बाहर पोर्टिकों में किसी बाहन के ‘वाहक’ की प्रतीक्षा में बार-बार आँखें दौड़ा रहा था।
उसे हमेंशा की तरह आज भी अपने फ़ैसले पर गुस्सा आ रहा था। उसने कभी भी सही फैसले नहीं लिए, वो चहल क़दमी करते हुए सोच रहा था। साथ ही पूरा ध्यान उसका बाहर लगा हुआ था।

क्या सन्तोष के साथ विवाह ग़लत फ़ैसला नहीं था ? एक बार ‘हाँ’ कर देने के बाद ‘ना’ करना उसकी फ़ितरत नहीं थी। फ़ौजी जो ठहरा; जबान का पक्का। लेकिन बिना सोचे-समझे ‘हाँ’ करना भी तो कोई फौजियत नही।’ क्योंकि न तो वो बदसूरत था, ना बेकार, ना ही नपुंसक। तो फिर...मात्र एक ‘हाँ’ के आगे मजबूर !
इन सब के बाद भी फ़ौज ने उसे तन्दरुस्ती और शरीर में ग़जब के ऊर्जा दी हुई थी, जिससे वो खुश भी था और नाराज़ भी, क्योंकि अपने अन्दर के ईंधन की गर्मी वो आज भी पूरी तरह सोख नहीं पाता था। या तो वो अधिकतर खुश रहता या फिर अपने आस-पास से नाराज़ क्योंकि कहाँ वो अपने ईंधन को फुँकने के लिए छोड़ भी नहीं सकता था। कोई था जो नहीं !



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book