लोगों की राय

उपन्यास >> अलका

अलका

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6086
आईएसबीएन :9788126713721

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

203 पाठक हैं

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का अवध क्षेत्र के किसान जीवन पर आधारित उपन्यास

Alka a hindi book by Suryakant Tripathi Nirala - अलका - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है। पृष्णभूमि में स्वाधीनता आंदोलन का वह चरण है जब पहले विश्वयुद्ध के बाद गांधीजी ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ली थी। यही समय था जब शिक्षित और संपन्न समाज के अनेक लोग आंदोलन में कूदे जिनमें वकील-बैरिस्टर और पूंजीपति तबके के नेता मुख्य रूप से शामिल थे। इन लोगों की प्रतिबद्धता स्वतंत्रता आंदोलन से बेशक गहरी रही, लेकिन किसानों और मजदूरों की तकलीफों से इनका ज्यादा वास्ता नहीं था। कहा जा सकता है कि इनका मुख्य उद्देश्य अपने लिए आजादी हासिल करना था, इसलिए नेतृत्व का एक हिस्सा किसानों-मज़दूरों के आंदोलन को उभरने देने के पक्ष में नहीं था। निराला ने इस उपन्यास में इस निहित वर्गीय स्वार्थ का स्पष्ट उल्लेख किया है। जमींदारों के विरुद्ध किसानों के विद्रोह का जैसा अंकन यहाँ निराला ने किया है वह अपनी यथार्थवादिता के नाते दुर्लभ है। इस उपन्यास में उनकी भाषा भी पहले उपन्यास ‘अप्सरा’ से ज्यादा वयस्क है।

 

वेदना

 

मेरे जिन प्रिय पाठकों ने ‘अप्सरा’ को पढ़कर साहित्य के सिर बराबर वैसी ही बिजली गिराते रहने की मुझे अनुपम सलाह दी, या जिन्होंने ‘अप्सरा’ को चुपचाप हृदय में रखकर मेरी तरफ से आँखें फेर लीं, अथवा जिन्हें ‘अप्सरा’ द्वारा पहले-पहल इस साहित्य के मुख पर मन्द-मन्द प्रणय-हास मिला, मुझे विश्वास है, वे ‘अलका’ को पाकर विरही यक्ष की तरह प्रसन्न होंगे, और अंडे तोड़कर निकलने से पहले, खड़खड़ाते हुए जिन्होंने मुझ पर आवाजें कसीं, वे एक बार देखें, उनके सम्राटों द्वारा अधिकृत साहित्य की स्वर्ग-भूमि में मैंने कितने हीरे-मोती उन्हें दान में दिए।

मुझे आशा है, हिन्दी के पाठक, साहित्य और आलोचक ‘अलका’ को अलको के अन्धकार में न छिपाकर उसकी आँखों का प्रकाश देखेंगे कि ह्निदी के नवीन पथ से कितनी दूर तक परिचय कर सकी है।

घटनाओं में सत्य होने के कारण स्थानों के नाम कहीं –कहीं नहीं दिए गए। मुझे इससे उपन्यास –तत्त्व की हानि नहीं दिखाई पड़ी।

 

निराला

 

अलका
एक

 

महासमर का अन्त हो गया है, भारत में महाव्याधि फैली हुई है। एकाएक महासमर की जहरीली गैस ने भारत को घर के धुएँ की तरह घेर लिया है, चारों ओर त्राहि-त्राहि, हाय-हाय—विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से, जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं, सब अपने घरवालों की अचानक बीमारी का हाल पाकर। युक्त-प्रान्त में इसका और भी प्रकोप; गंगा, यमुना, सरयू, बेतवा, बड़ी-बड़ी नदियों में लाशों के मारे जल का प्रवाह रूक गया है। गंगा का जल, जो कभी खराब नहीं हुआ, जिसे महात्मय में कहा जाता था, दूसरा जल रख देने पर कीड़े पड़ जाते हैं, पर गंगा के जल में यह कल्मष नहीं मिलता, वह भी पीने के बिलकुल योग्य बतलाया गया। परीक्षा कर डॉक्टरों ने कहा—एक सेर जल में आठवाँ हिस्सा सड़ा मांस और भेद है। गंगा के दोनों ओर दो-दो और तीन-तीन कोस पर जो मरघट हैं, उनमें एक-एक दिन में, दो-दो हजार तक लाशें पहुँचती हैं। जलमय दोनों किनारे शवों से ठसे हुए, बीच में प्रवाह की बहुत ही क्षीण रेखा; घोर दुर्गन्ध, दोनों ओर एक-एक मील तक रहा नहीं जाता। जल-जन्तु, कुत्ते, गीध, सियार लाश छूते तक नहीं। नदियों से दूरवाले देशों में लोगों ने कुओं में लाशें डाल-डाल दीं। मकान-के –मकान खाली हो गए। एक परिवार के दस आदमियों में दसों के प्राण निकल गए। कहीं-कहीं घरों में ही लाशें सड़ती रहीं। वैद्य और डॉक्टरों को रोग की पहचान न हुई। यह सब नृशंस, महामृत्यु-ताण्डव पन्द्रह दिनों के अन्दर हो गया। भारत के साथ आम आदमी काम आए।

इसी समय सरकारी कर्मचारियों ने घोषणा की, सरकार नें जंग फतह की है, सब लोग अपने-अपने दरवाजे पर दीये जलाकर रखें। पति के शोक में सद्यःविधवा, पुत्र के शोक में दीर्ण माता, भाई के दुःख में मुरझाई बहन और पिता के प्रयाण से दुखी असहाय बाल-विधवाओं ने दूसरी विपत्ति की शंका कर काँपते हुए शीर्ण हाथों से दीये जला-जलाकर द्वार पर रखे और घरों के भीतर दुःख से उमड़-उभड़कर रोने लगीं पुलिस घूम-घूमकर देखने लगी—किस घर में शान्ति का चिह्न, रोशनी नहीं।

जब घर में थी, शोभा के पिता का देहान्त हुआ, तो गाँव का कोई नहीं गया। सब अपनी खे रहे थे। उस समय जिलेदार महादेवप्रसाद ने मदद की। उसके पिता की लाश गाड़ी पर गंगा ले गए। मन-ही-मन शोभा कृतज्ञ हो गई—कितने अच्छे आदमी हैं यह ! दूसरे का दुःख कितना देखते हैं !

इसके बाद उसकी माता बीमार पड़ी। तब उन्हें युवती कन्या की रक्षा के लिए चिन्ता हुई। यदि उनके भी प्राण निकल जाएँ, तो शोभा का क्या होगा, यह विचारकर उन्होंने विजय तथा ससुराल को पत्र लिखने के लिए शोभा से कहा। विजय शोभा का पति है। अभी तक उसने पति को पत्र नहीं लिखा। कभी चार आँखों की एक पहचान होने का अवसर नहीं मिला वह कैसे हैं, वह नहीं जानती। फिर क्या लिखे ? बैठी सोचती रही कि दुःख-भरे स्नेह के कुछ कठोर स्वर से कर्त्वय ज्ञान दे। विस्तरे से माता ने फिर कहा। स्वर पर बजने के लिए उँगली की तरह उठकर शोभा कागज, कलम और दवात लेने चली। दुःख में भी अज्ञात कोई हृदय के निर्मल, शुभ्र आकाश में अपरिमित सुख, सौरभ भरने लगा, अज्ञात मुँदी हुई जैसे कोई कली इस, आदेश-मात्र से खुल गई, और अपना लेश-मात्र सौरभ अब नहीं रखना चाहती। दवात, कलम और कागज ले आ सरल चितवन निष्कलंक पंकज ने माता से पूछा, क्या लिखूँ अम्मा ? घर का सबहाल और ऐसी दशा में तुम्हें ले जाना अत्यन्त आवश्यक है, लिख दो, माता ने कहा। ससुराल को मेरे नाम लिख देना, आपकी समधिन कहती हैं, इस तरह।
किसे किस तरह पत्र लिखना चाहिए, इतना शोभा को मालूम था। चिट्ठी लिखने की किताब पढ़ने से जैसे संस्कार बन गए थे, वैसे ही, दाब के दबाव में लिख गई, ‘प्रिय’, परन्तु फिर उस शब्द को मन-ही-मन हँसकर, न जाने क्या सोचकर, लजाकर काट दिया। फिर लिखा, ‘महाशय’, पर शब्द जैसे एक सुई हो, कोमल हृदय को चुभने लगा। फिर बड़ी देर तक सोचती रही। कुछ निश्चय नही हो रहा था।

एकाएक भीतरकी संचित सम्पूर्ण श्रद्धा पत्र लिखने की पीड़ा के भीतर से निकल पड़ी और उसने लिखा, ‘देव’, फिर नहीं काटा। मन को विशेष आपत्ति नहीं हुई। देवता ने जैसे भय, बाधा, विघ्न दूर कर दूसरा भी लिखा। पत्र पूरे माता को सुनाने के लिए पूछा। माता ने कहा, क्या आवश्यक है, मतलब सब लिख ही गया होगा, अपने हाथ डाकखाने में छोड़ आओ। पत्र लिफाफे में भरकर, पता लिखकर डाकखाने छोड़ने चली। आँचल में दुनिया की दृष्टि से दूर अपने मनोभावों का प्रमाण छिपा लिया। पत्र में वह अपने अलग सखा को, हृदय के सर्वस्व को कुछ भी नहीं दे सकी, एक भी बात ऐसी नहीं, जो वह अपनी माता के सामने न पढ़ सकती, सिवा इसके कि मुझे जल्द आकर ले जाइए, अम्मा को मेरी तरफ से घबराहट है। पर फिर भी उसका हृदय कह रहा था कि उसने अपना सबकुछ दे दिया है। लाज की पुलकित पुतलियों से इधर-उधर देख, अपने प्रिय संशय को प्रमाण में परिणत होते हुए न, पत्रों को आँचल से बाहर कर चिट्ठीवाले बॉक्स में डाल दिया, और अचल मन्द मन्द-मृदु-चरण-क्षेप मूरप्तिमती महिमा-सी, आनावृत्त-मुख बढ़ती हुई माता के पास लौट आई। दूसरे दिन चलते हुए तूफान का एक झोंका और लगा, माया की कंठकफ से फेफड़े जकड़ जाने पर रुँध गया, देखते-देखते पुतलियाँ पलट गयी। उनका देहान्त हो गया, वह छाँह की एक मात्र शाखा भी टूटकर भूलुंठित होगी। अब संसार में कुछ भी उसकी दृष्टि से परिचित नहीं। इस एकाएक प्रहार से स्तब्ध हो गई।

संसार में कोई है, संसार में उसकी रक्षा कौन करेगा, कुछ ख्याल नहीं, जैसे केवल एक तस्वीर निष्फलक खड़ी हो, समय आता, अपने चला जाता है, समय का कोई ज्ञान नहीं। जैसे किसी निष्ठुर पति ने बिना पाप ही अभिशाप दे प्राणों की कोमल, रूपवती तरुणी को पत्थर की अहल्या बना दिया हो ! महादेव कब से आया हुआ खड़ा है, उसे इसका ज्ञान नहीं। उसे उस हालत में खड़ी हुई देख महादेव के हृदय में एक बार सहानुभूति पैदा हो गई। पर उसे तरक्की करनी है, दुनिया इसी तरह उत्थान के चरम सोपान पर पहुँची है। वह गरीब है इसलिए अमीरों के तलवे चाटता है, उसके भी बच्चे हैं—उन्हें भी आदमी करना है, लड़कियों की शादी में तीन-तीन, चार-चार और पाँच-पाँच हजार का सवाल हल करना है, इतनी धर्म का रास्ता देखने पर यह संसार की मंजिल वह कैसे तय करेगा ?
‘‘शोभा !’’ महादेव ने आवाज दी। शोभा होश में आई। ‘‘अब चलो, प्यारेलाल के यहाँ तुम्हें रख आवें। कोठरियों में ताले लगा दें, दो कुंजियों का गुच्छा ले आओ, ताले कहाँ हैं ? क्या किया जाए बेटी, इस वक्त दुनिया पर यही आफत है; फिर तुम्हारी माँ को गंगाजी पहुँचाने का बन्दोबस्त करें।’’

माँ का नाम सुनकर, स्वप्न देखकर जगी-सी होश में आ मृत माता पर उसी की एक छोटी क्षीण लता-सी लिपट गई। अब तक सहानुभूति दिखलानेवाला कोई नहीं था, इसलिए तमाम प्रवाह आँसुओं के वाष्पाकार हृदय में टुकड़े-टुकड़े फैले हुए एकत्र हो रहे थे। स्नेह के शीतल समीर से एकाकार गलकर सहस्र-सहस्र उच्छावासों से अजस्र वर्षा करने लगे। महादेव स्वयं जाकर प्यारेलाल तथा उसकी स्त्री को बुलाया। जमींदार के डेरे का नौकर गाड़ी सजाकर ले चला। कुछ और लोग भी इस महाविपत्ति में सहानुभूति दिखलाना धर्म है, ऐसा विचार कर आए। शोभा को माता से हटा, कोठियों में सबके सामने ताले लगाकर प्यारेलाल ने कुंजी महादेव को दे दी। प्यारेलाल की स्त्री शोभा को अपने साथ ले गई। उसके घर का कुल सामान एक पुर्जे में लिखकर, डेरे भिजवा महादेव उसकी माँ की लाश गंगाजी ले गया।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book