लोगों की राय

उपन्यास >> प्रभावती

प्रभावती

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :191
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6096
आईएसबीएन :9788126714063

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

276 पाठक हैं

प्रस्तुत है एक ऐतिहासिक उपन्यास...

Prabhavati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

महाकवि निराला के उपन्यास-साहित्य में प्रभावती एक ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति के रूप में चर्चित हैं। इसका कथा-फलक पृथ्वीराज-जयचन्द-कालीन राजाओं और सामन्तों के पारस्परिक संघर्ष पर आधारित है। प्रभावती के स्वाभिमानी नारी-चरित्र के पीछे निराला का उद्देश्य आधुनिक भारतीयों के संघर्ष चेतना का विकास करना भी रहा है। यही कारण है कि प्रभावती और यमुना-जैसे नारी-पात्र स्वयं खड्गहस्त हैं और नैतिकता के लिए कोई भी बलिदान करने को सन्नद्ध।
वस्तुतः निराला के गहरे ऐतिहासिक बोध और कवि-कल्पना का उपन्यास में अद्भुत सम्मिश्रण हुआ है तथा ओज और माधुर्य का अपूर्व निर्वाह भी।


समर्पण

 

प्रिय बीबी,
बहुत दिन हुए—अठारह वर्ष, पन्द्रह वर्ष की तुम नववधू होकर घर आई हुई थीं, जहाँ बिना माँ के दो शिशुओं की सेवा में तुम्हें श्रृंगार की साधना का समय नहीं मिला; तुम्हारे ऐसे हस्त संसार के किसी भी चमत्कार से पुरस्कृत नहीं किए जा सकते:; मैं केवल अपनी प्रीति के लिए वहाँ यह पुस्तक न्यस्त करता हूं; जानता हूँ; कालिदास भी तुम्हें ‘वीणा-पुस्तक-रंजित-हस्ते’ नहीं कर सकते, क्योंकि तुम तब से आज तक ‘शिशु-कर-कृत-कपोल-कज्जला’ हो।

 

सस्नेह
निराला

 

प्रथम संस्करण की भूमिका
निवेदन

 

ईश्वरेच्छा से ‘प्रभावती’ सहृदय पाठकों के सम्मुख समुपस्थित है। ध्वंसावशेषों पर कुछ ऐतिहासिक रोमांश के लिए प्रचलित है। भाषा खड़ी बोली, खिचड़ी शैली में होने पर भी, कुछ अधिक मार्जित है, प्राचीनता का वातावरण रखने के लिए। अपढ़ लोगों के वार्तालाप में अवधी मिली है। उस समय की भाषा का प्रयोग वर्तमान साहित्य में नहीं किया जा सकता। प्रधान नायक-नायिकाएँ, उस समय के दो बड़े राज्यों—कान्यकुब्ज और दिल्ली के आश्रित होकर, बड़े पेड़ों की छाँह में न उभर पाते हुए पौधे की तरह रह गए हैं या विशेषता प्राप्त कर सके हैं, पाठक स्वयं निर्णय करेंगे। मैं अपनी तरफ से अन्य पुस्तकों के नायक-नायिकाओं के मुकाबले यमुना को देता हूँ—सुधी आलोचक देखेंगे। 47वें पृष्ठ की 12वीं पंक्ति (पाँचवें परिच्छेद के अन्तिम अनुच्छेद के पहलेवाला अनुच्छेद—सं.) में ‘दिन-भर’ की जगह ‘रात-भर’ होगा; इससे भाव और साफ हो जाएगा। ऐसी दो-चार तथा अन्य प्रकार की त्रुटियों के लिए पाठक क्षमा करेंगे।

 

निराला

 

द्वितीय संस्करण की भूमिका
निवेदन

 

‘प्रभावती’ रोमैंटिक उपन्यास है। कथा भाग जयचन्द कान्यकुब्जेश्वर सम्राट् के समय का। उस वक्त के किले बहुत हैं, अब ध्वंसावशेष। कुछ के बयान चरित-नायकों के साथ आए हैं। प्रभावती और यमुना ऐसे ही किले की कुमारियाँ हैं राजनीति, समाज और धर्मकथा के साथ जिस रूप में आया है, पाठक स्वयं विवेचन कर लेंगे। हिन्दी में इस उपन्यास की तारीफ हुई है। उस रोज भी डॉक्टर रामविलास के लेख में इसके उद्धरण आए हैं। भाषा और भाव की दृष्टि से पुस्तक मध्यम या उच्च कक्षाओं में रखने योग्य है। यदि अधिकारी ध्यान दें तो हिन्दी के साथ सहयोग और सराहनीय हो। इति।

 

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

 

प्रभावती
1

 

लवणा एक छोटी बरसाती नदी है। उन्नाव के पास ऊपर से निकली खजुरगाँव से कुछ दूर गंगा में मिली है। उपनिषदों की तरह सैंकड़ों नाले इससे आकर मिले हैं। बरसात की शोभा देखते ही बनती है। बस्ती और ऊसरों का तमाम पानी इससे होकर गंगा में जाता है। पहले इसके तटों पर नमक बनता था। लवणा इसका शुद्ध नाम है, यों इसे लोना कहते हैं। इसके सम्बन्ध में एक दन्त-कथा भी प्रचलित है, पर वह केवल कपोल-कल्पित है। वर्तमान युग के मनुष्यों को मालूम होना चाहिए कि गंगा की उत्पत्ति में—जैसे इसमें भगीरथ-प्रयत्न न रहने पर भी खेत काटती हुई, पुत्रों को देखकर भगी, लज्जिता, नग्न लोना चमारिन के गंगा-गर्भ में चिराश्रय लेने की पद-रेखारूप बनी यह नदी वैसी ही आख्या रखती है; यदि बरसाती नदी न होकर बारहमासी होती, तो शायद भगीरथ के रथ के पीछे जैसे, लोना चमारिन के पीछे भी लज्जाकलंक-क्षालनार्थ प्रबल वेग से जलधारा बहती होती। इस समय इस प्रान्त की आबादी बहुत बढ़ गई है, फिर भी कहीं-कहीं लवणा के तट काफी भयावने, हिरन, भेड़िये और जंगली सूअर आदि के अड्डे हो रहे हैं। तब, जब कान्यकुब्ज का दोपहर का प्रताप-सूर्य पूर्ण स्नेह की दृष्टि से अपनी पृथ्वी को देख रहा था, इसके तट पर वृक्षों तथा झाड़ियों से पूर्ण, अन्धकार से ढँके रहते थे स्थानीय राजकुमारों तथा वीर क्षत्रियों का यह प्रिय मृगयास्थल था।

लवणा उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित है। इसके प्रायः पाँच सौ वर्ग मील पहले दोनों ओर के हरे छोरों के भीतर भारतीय संस्कृति तथा उदार प्राचीन शिक्षा के अमृतोपम पय को धारण करनेवाले कान्यकुब्ज सभ्यता के युगल सरोज झलक रहे हैं। दाहिने-दक्षिण ओर, शुभ्र स्वच्छतोया जाह्नवी; मध्यभाग में लवणा, अपने जीवन-प्रवाह को पूर्ण करती हुई; उत्तर-बायीं और मन्दगामिनी सई। आज इसी भाग का नाम बैसवाड़ा है। इस समय बैस राजाओं तथा ताल्लुकेदारों की छोटी-छोटी रियासतें यहां से अवध तक दूर-दूर तक फैली हुई हैं, और कई जिलों में भाषा साम्य भी प्राप्त होता है, फिर भी बैसों की मुख्य राजधानी यही उल्लिखित पवित्र कान्यकुब्ज भूमि है। आज आमों के विशालकाय उपवन एक-दूसरे से सटे कोसों तक फैलते गए हैं। यदि इस विस्तृत भूखंड को शतयोजनायत एक रम्य कानन कहें, तो अत्युक्ति नहीं होगा। उपवन तथा जनाजीर्ण जनपद मुसलमानों के राज्य-काल में भी समृद्ध थे, देखने पर मालूम हो जाता है।
गंगा की उपजाऊ चटभूमि, धौत धवल, मन्दर-तुल्य मन्दिर, कारुकार्य-खटित द्वार, दिव्य भवन, देववाणी तथा देवसरि का आरप्य भावानुसार सहयोग, खुली गोचरभूमि, सुख-स्पर्श, मन्द-मन्द पवन-प्रवाह, अनिद्य हिन्दी के मँडे कंठ से निकले ग्राम-गीत किसी भी दर्शक भ्रमणकारी को तत्काल मुग्ध कर लेंगे।

 पर उस समय जब कि आर्य-संस्कृति का पावन प्रकाश यहाँ के निरभ्र आकाश में फैला था, यहाँ की ओर ही शोभा थी। कमल की सुगन्ध की तरह लोकोत्तर माधुर्य का वह विकास, वह भी अपने आधार को छोड़कर इतनी दूर तक चली गई थी कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। आज वह उपभोग्य नहीं, किसी तरह अनुभव-गम्य है।

वालमीकि की सीता, कालिदास की शकुन्तला, श्री हर्ष की दमयन्ती पति गृह को अपनी दिव्य ज्योति से आलोकित कर रही थी; बल्कि बाहर से होनेवाले आक्रमणों ने इन भारतीय महिलाओं, विशेषकर क्षत्रिय कुमारियों को आत्म-रक्षा के लिए सजग कर एक-दूसरे ही भाव-रूप में बदल जाने को बाध्य कर दिया था।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book