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नारी

सियारामशरण गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6100
आईएसबीएन :978-81-8031-207

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नारी सहित प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की सृष्टि है। इसी कारण ईश्वर की तरह वह दहन भी है। ईश्वर की तरह कष्ट सहन करके ही उसे ईश्वरीय शक्ति उपलब्ध करना होगा।...

Nari-A Hindi Book by Siyaramsharan Gupta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


चिरन्तन नारी युग-युग के अन्धकार में, उसे तुच्छ करके चिरकाल से आगे बढ़ती जा रही है, दुख और विपत्ति के अंधियारे पथ को पद दलित करती हुई। उसे कोई भय नहीं है, कोई चिन्ता नहीं है।

यही वह भाव है, यही वह मूल-मंत्र है, जिसके इर्द-गिर्द सशक्त उपन्यासकार सियारामशरण गुप्त जी ने इस उपन्यास का ताना-बाना बुना है, जो रोचक है, उत्कृष्ट मनोरंजन प्रदान करने वाला है और दिशाहीन होते समाज को सही दिशा दिखाने वाला भी है।

नारी सहित प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की सृष्टि है। इसी कारण ईश्वर की तरह वह गहन भी है। ईश्वर की तरह कष्ट सहन करके ही उसे ईश्वरीय शक्ति उपलब्ध करना होगा। उचित यही है, करणीय यही है। यही वह मान्यता है, यही वह सिद्धान्त है, जिसे इस उपन्यास में निरूपित किया गया है, स्थापित किया गया है।

उपन्यास के पात्र जैसे सजीव हो कर इन सर्वोच्च मान्यताओं को अपने क्रिया-कलापों और संवादों से इस प्रकार पूर्णता से स्थापित करते चलते हैं कि पाठक के मन-मस्तिष्क पर उसका स्थाई प्रभाव पड़े।

बचपन से लेकर अभी-अभी दो महीने पहले तक जिनकी कहानियों से स्नेह और वात्सल्य से हृदय बराबर हरा होता आया है; जिनसे क्या जीवन में पाया है, इसका हिसाब नहीं; जो हृदय की सामान्य कृतज्ञता प्रकट कर सकने का प्रसंग आने पर आधी बात सुनकर ही सदा के लिए ओट हो गये हैं; उन्हीं श्रद्धेय मुंशीजी (राजकवि श्रीअजमेरी) की पवित्र स्मृति में यह रचना श्रद्धा के साथ अर्पित है।

गुरुपूर्णिमा 1994

श्री

नारी
1


डाकिये ने एक कच्चे घर के सामने रुककर पुकारा-जमना बाई हैं ?
उत्तर न पाकर भी किसी के भीतर होने का बोध उसे हुआ। नाक पर चश्मा ठीक से सँभालकर उसके डाक उलट पुलट तक देखी। ‘‘यही है’’- कहकर घर के भीतर एक पैकेट फेंकता हुआ वह आगे बढ़ गया।

भीतर एक कोठरी में जमना गोबर लीप रही थी। डाकिये की आवाज उसने सुनी। यही वह आवाज थी जिसे बरसों की प्रतीक्षा के बाद उसने भुला रक्खा था। फिर भी पहचानने में देर न लगी। एक साथ मन के किसी निगूढ़ आनन्द की बुझी बत्ती उसके रोम-रोम में जाग उठी। उसका एक हाथ पानी के घड़े पर और दूसरा गोबर के ऊपर जहाँ का तहाँ रुक गया। किसी विशिष्ट पाहुने के आगमन में उसके शरीर की समस्त क्रिया व्यापार जैसे क्षण भर के लिए अनध्याय मनाने बैठ गया हो।
जिस समय वह पौर में पहुँची डाकिया दूर निकल चुका था। गोबर लगे हाथ में केवल उँगलियों से पकड़कर उसने वह पैकेट देखा। यह इतनी बड़ी चिट्ठी उन्होंने लिखी है ? छोटी में बहुत बातें आ कैसे सकती थीं। यह उसने सोचा तो, परन्तु उसका मन कहीं भीतर से कह उठा- नहीं, यह वह नहीं है; वह यह नहीं है। बरसों से भी कभी एक कारण तक छोड़ा नहीं है, इतनी बड़ी चिट्ठी कैसे लिखेंगे ? लिखना चाहें तो क्या लिख नहीं सकते ? बिरादरी में आसपास उनके इतना पढ़ा-लिखा दूसरा कौन है ? एक बार हठ करके मुझे भी पढ़ाने बैठे थे। सोचते-सोचते जमना का गौर एकाएक लज्जा से लाल हो उठा। उहँ, उनका यह पढ़ाना मेरा काम छुड़ाकर मुझे पास बिठाने का एक बहाना भर था ! मैं मूरख भला पढ़ क्या सकती थी। उनकी सब बाते ऐसी ही हैं !

इसके भीतर क्या है, यह जानने के लिए उसने पैकेट धीरे से दबाया। अरे यह तो कोई पोथी है, छपी हुई ! इतनी बड़ी चिट्ठी उनकी हो नहीं सकती, यह उसके मन में पहले ही आ चुका था। फिर भी उसे बड़ी निराशा हुई। गीले हाथों से इसका बेठन बिगड़ न जाय, यह विचार अब उसने छोड़ दिया। रुखाई से उसे आले में फेंककर वह झट से भीतर चली गयी।
फिर लीपने के लिए बैठकर वह बहुत कुछ सोचने लगी। वे मुझे भूल गये हैं तो मैं उन्हें क्यों नहीं भूल जाती ? करूँ क्या, बीच बीच में कुछ ऐसा हो ही जाता है कि बरबस उनकी याद आने लगती है। आज न जाने किसने यह पोथी भेज दी। हल्ली मदर से लौटे तो उससे पूछूँ। इससे बड़ी पोथी उसने तो कहीं से मँगाई होगी नहीं। कहीं से मँगाता तो दाम मुझसे न लेता ? फिर यह है क्या ?

एकाएक एक नई बात उसके भीतर टकराई। सोचने लगी,- काली माई का कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर है। मुझे चौंकाने के लिए किसी छापाखाने में जाकर अपनी चिट्ठी छाप लाये हों तो ? शहर में जाकर सब शौकीन हो जाते हैं। पानी भी वहाँ आदमी दाम देकर बोतल का पीता है। यह चिट्ठी उनकी तो हो सकती है। हल्ली आवे तो उससे पढ़वाऊँ। पढ़ तो लेगा ? पढ़ क्यों न लेगा। झटपट नहीं तो धीरे ही धीरे सही। परन्तु चिट्ठी उन्हीं को हो तब तो।
उसकी देह में फुरती-सी आ गई। झटपट लिपाई पूरी की, मिट्टी की नाँद में गगरी का पानी उड़ेलकर झपाटे से नहा डाला और गीले केशों से पानी की बूँद चुवाती हुई चूल्हे के पास जा बैठी।

रसोई तो तैयार हुई, परन्तु खाने वाले को घर आने की छुट्टी मिले तब ना। अब तक चिट्ठी न पढ़ी जाने का गुस्सा अब उसने मदर से वालों पर उतारा। पढ़ाते-लिखाते खाक नहीं हैं, राई-राई से बच्चों को तीसरे पहर तक भूखे प्यासे घेरे रहते हैं। हैं कैसे निरदई ! इसी से आजकल के लड़के कुछ पढ़ लिख नहीं पाते।
‘‘माँ, कहाँ हो ?’’
जमना ने देखा, हल्ली आ गया है। स्याही के छिटकों से छींट बने हुए कपड़े का बस्ता बगल में दाबे है। दाँये हाथ में काँच की एक दवात है। मुँह पर प्रसन्नता ऐसी है, मानो अभी जेल से छूटकर आया हो।
जमना ने कोठरी के भीतर से कहा- आ गया भैया, बड़ी देर कर दी। आ, रोटी तैयार है।
एक आले में पुस्तकों का बस्ता पटकता हुआ हरलाल झट उस कोठरी में जा पहुँचा। हाँ, नाम उसका हरलाल ही था। यहाँ तक कि मदरसे के रजिस्टर में भी यही दर्ज था। परन्तु बच्चों और छोटों के सिर बड़े नाम का बोझ पसन्द नहीं किया जाता। इसी से हरलाल के स्थान पर वह ‘हल्ला’ हो गया। माँ के कान इसे सहन कैसे करते ? वह उसे हल्ली कहने लगी थी।

‘‘चला आऊँ वहाँ ?’’- हँसते हँसते हल्ली ने कहा।
पति का समाचार आना बन्द होने के बाद से जमना का आचार-विचार कुछ अतिरिक्त कड़ा हो गया था। इसी से, हल्ली ने वैसा कहा को, एक पैर भी आगे बढ़ने के लिए उठा लिया, परन्तु खड़ा रहा जहाँ का तहाँ ही। जमना हड़बड़ा कर बोल उठी- करता क्या है, बिना हाथ-पैर धोये, बिना नहाये।
‘‘अभी तुम कह रही थीं, आ रोटी खा ले।’’
‘‘तो क्या यह कहा था कि ऐसा ही चला आ चौके में,- नहा धोकर नहीं ?’’
‘‘नहीं माँ, सच बड़ी भूख लगी है। नहा कल लूँगा,- आज ऐसे ही खा लेने दे।’’
जमना ने बात अनसुनी करके कहा- अच्छा-अच्छा, उतार कपड़े; आज नहला दूँगी।
वह जानता था, माँ जल्द क्या नहला सकेंगी; जब भी नहलाने लगें, शरीर इस तरह से रगड़ डालती हैं, जैसे रसोई का काला तबा होऊँ। बोला- तुम रहने दो, मैं आप ही नहाये लेता हूँ। और आज बना क्या है ? भाजी-रोटी ! आलू क्यों नहीं बनाये ? नहीं, आज मैं कुछ नहीं खाऊँगा। रोटी के साथ निमक की डली भी नहीं। तब देखूँ तुम क्या करती हो।
जमना ने समझाकर कहा- कल हाट में जाकर आलू ले आऊँगी, बहुत ले आऊँगी, तब करूँगी। आज की भाजी बहुत बढ़िया बनी है।
‘‘तुमने यहीं बैठै-बैठे चख ली ?’’
जमना हँस पड़ी। बोली- आज मैं तुझे एक दूसरी अच्छी चीज दूँगी।
हल्ली अपनी रुचि की वस्तुओं के नाम मन-ही-मन सोचने लगा,- लडडू, पेड़ा, जलेबी। सहसा उसकी समझ में न आया कि और क्या अच्छी वस्तु उसके लिए हो सकती है। पहले सुलझाने के लिए चारों ओर इधर-उधर उसने दृष्टि डालकर देखा।

माँ को वह पैकेट उठाते देखकर उसने सोचा, खाने की क्या वस्तु इसमें हो सकती है और क्षण भर ही खिलकर बोल उठा- आ गया यह ! मैं आज ही सोच रहा था कि अब तक आया क्यों नहीं है।
जमना ने क्षीण आशातन्तु को एक झटका-सा लगा। शंकित होकर उसने पूछा, तू कैसे जानता था कि यह चिट्ठी आयगी ?
‘‘चिट्ठी,- चिट्ठी किसकी आने वाली थी ? यह तो पंचांग है, तारीखनामा समेत। मैंने तुम्हारे नाम की बैरंग चिट्ठी भेजने के लिए डाल दी थी। सोचा था आ जायगा तो आ जायगा, मनहीं आया तो अपना हरज क्या।’’- कहकर माँ की ओर देखे बिना वह उस पैकेट को लेकर उलटने-पुलटने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, इसे खोले कहाँ से।
जमना ने धमकाकर कहा- ‘‘देखता समझता है नहीं और कहता है, यह नहीं है।’’ अबकी बार चिट्ठी का नाम वह स्वयं मुँह पर नहीं ला सकी।
बेठन फाड़कर हल्ली ने देखा, वह चीज है जिसे वह चाहता था। उसके लिए तारीखनामा और पंचांग से अधिक लुभावनी थीं उसकी तसवीरें। आहा ! ये महादेवी पार्वती के साथ बैठे हैं। देखों तो माँ, इनके गले में यह साँप कैसा भला लगता है।
हल्ली की समझ में नहीं आया कि माँ प्रसन्न क्यों नहीं हो रही हैं। इतने बढ़िया चीज उसने इतनी दूर से मँगा ली और पैसा एक भी नहीं खरचना पड़ा, यह कम प्रशंसा की बात न थी। फिर भी माँ इसके लिए एक शब्द भी मुँह से नहीं कर रही हैं, सचमुच यह उसके सोचने की बात थी। परन्तु इसके लिए उसके पास अवसर न था, वह सोच रहा था, खाने-पीने की आफत से छूटकर कब वह मदरसे पहुँचे। सहपाठियों में जितने जल्द से यह नये वैभव का प्रदर्शन हो जाय उतना ही अच्छा है। वहाँ किसी बेचारे के पास ऐसी भी सूचीपत्र की पुस्तक नहीं !

नहाने के लिए बैठकर हल्ली यह शिकायत करना भूल गया कि पानी बहुत ठंडा है। भोजन के लिए बैठकर यह भी वह भूल गया कि आज उसकी रुचि किसी दूसरी वस्तु पर थी। और एक सबसे बड़ी बात की सुधि भी उसे नहीं हुई कि प्रतिदिन की भाँति माँ को साथ बैठने के लिए वह हठ करे।

हल्ली तैयार होकर दूसरी बेला की पढ़ाई के लिए मदरसे चला गया। जमना उस दिन निराहार रह गई।
मन में जब दु:ख देवता का आगमन हो, उस समय उसका सबसे बड़ा आदर यही हो सकता है कि उसे पाकर मनुष्य अपना खान-पान तक भूल जाय। दु:ख के बीच में ऐसा आनन्द न हो तो उसे ग्रहण की कौन करे ? जमना का यह दु:ख नया न था। किसी बन्द पिटारी में रक्खे हुए पुराने खिलौने की तरह फिर से उसके हाथ पड़कर वह इस समय उसके लिये नये के जैसा हो गया था। पिछली अनेक स्मृतियों की उधेड़बुन में कब सन्ध्या हो गई, इसका पता तक उसे न चला।
‘‘माँ, माँ, अब तक दिया क्यों नहीं उजाला ?’’
वह इतनी तन्मय थी कि हल्ली की आवाज ने उसे चौंका दिया। ‘‘उजालती हूँ’’ कहकर उठ खड़ी हुई।


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