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अशोक के फूल

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6106
आईएसबीएन :9788180312007

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भारतीय मनीषा के प्रतीक और साहित्य एवं संस्कृति के अप्रतिम व्याख्याकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्धों का संग्रह

Ashok Ke Phool-A Hindi Book by Hajari Prasad Dwivedi - अशोक के फूल - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भारतीय मनीषा के प्रतीक और साहित्य एवं संस्कृति के अप्रतिम व्याख्याकार माने जाते हैं और उनकी मूल निष्ठा भारत की पुरानी संस्कृति में है लेकिन उनकी रचनाओं में आधुनिकता के साथ भी आश्चर्य जनक सामंजस्य पाया जाता है।

हिन्दी साहित्य की भूमिका और बाणभट्ट की आत्मकथा जैसी यशस्वी कृतियों के प्रणेता आचार्य द्विवेदी को उनके निबन्धों के लिए भी विशेष ख्याति मिली। निबन्धों में विषयानुसार शैली का प्रयोग करने में इन्हें अद्भुद क्षमता प्राप्त है तत्सम शब्दों के साथ ठेठ ग्रामीण जीवन के शब्दों का सार्थक प्रयोग इनकी शैली का विशेष गुण है।
भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया है जिसकी झलक पुस्तक में संकलित इन निबन्धों में मिलती है छोटी-छोटी चीजों, विषयों का सूक्ष्मस्वरूप अवलोकन और विश्लेषण-विवेचन उनकी निबन्धकला का विशिष्ट व मौलिक गुण है।
निश्चय ही उनके निबन्धों का यह संग्रह पाठकों को न केवल पठनीय लगेगा बल्कि उनकी सोच को एक रचनात्मक आयाम प्रदान करेगा।


प्रकाशकीय

 

प्रस्तुत पुस्तक के विषय में विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी उन इने-गिने चिंतकों में से हैं, जिनकी मूल निष्ठा भारत की पुरानी संस्कृति में है, लेकिन साथ ही नूतनता का आश्चर्यजनक सामंजस्य भी उनमें पाया जाता है। भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष भी उनमें पाया जाता है। भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मो का उन्होंने गहराई के साथ अध्ययन किया है। उनकी विद्वत्ता की झलक इस पुस्तक के निबंधों में स्पष्ट दिखाई देती है। लेखक की एक झलक की एक और विशेषता है। वह यह कि छोटी-से-छोटी चीज में भी वह सूक्ष्म दृष्टि से देखते हैं। वसंत आता है, हमारे आस-पास की वनस्पति रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित हो उठती है, लेकिन उसमें से कितने हैं, जो उसके आकर्षक रूप को देख और पसंद कर पाते हैं ? अपनी जन्मभूमि का इतिहास हममें से कितने जानते हैं ? पर द्विवेदीजी की पैनी आँखें उन छोटी, पर महत्त्वपूर्ण चीजों को बिना देखे नहीं रह सकीं।

शिक्षा और साहित्य के बारे में द्विवेदी जी का दृष्टिकोण बहुत ही स्वस्थ है। पाठक देखेंगे कि तद्विषयक निबन्धों में साहित्य एवं शिक्षा को जनहित की उन्होंने एक नवीन दिशा सुझाई है। यदि उसका अनुसरण किया जा सकें तो राष्ट्र-उत्थान के लिए बड़ा काम हो सकता है।

पुस्तक की भाषा और शैली के बारे में तो कहना ही क्या ? भाषा चुस्त और शैली प्रवाहयुक्त है। कहीं-कहीं पर कठिन शब्द के साथ कुछ ऐसा वातावरण रहता है कि कभी-कभी कठिन शब्दों के प्रयोग से बचा नहीं जा सकता।
हमें आशा है कि पाठक इस संग्रह से अधिकाधिक लाभ उठाएँगे और द्विवेदीजी की अन्य रचनाओं को भी यथासमय प्रकाशित करने का हमें अवसर देंगे।

 

अट्ठाईसवां संस्करण

 

इस पुस्तक का अट्ठाईसवां संस्करण प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष हो रहा है। इतनी जल्दी सत्ताईसवाँ संस्करण निकल जाना इस बात का द्योतक है कि पुस्तक पाठकों को पसंद आई है। कई शिक्षण –संस्थानों ने इसे अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया है। ऐसे स्वस्थ साहित्य का अधिक-से-अधिक प्रसार होना चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि हमारे आज के नवयुवक जिम्मेदार नागरिक बनकर समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का सुचारू रूप से पालन करें, तो उन्हें ऐसी पुस्तक अधिकाधिक संख्या में मिलनी चाहिए।

हमें विश्वास है पुस्तक की लोकप्रियता आगे और बढ़ेगी।

 

प्रकाशक

 

अशोक के फूल


अशोक में फिर फूल आ गये हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है ! बहुत सोच-समझ कर कंदर्प-देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है।

लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुन्दर वस्तुओं को हत्भाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया, उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर हो जाती है। असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा मैं भी अनुमान कर सकता हूँ। बताता हूँ।

भारतीय साहित्य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्यापार हैं। ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में अस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था; परन्तु कालिदास के काव्यों में यह जिस सोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है, वह पहले कहाँ था ! उस प्रवेश में नववधू के गृह-प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता है और सुकुमारता है। फिर एकाएका मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के साथ-ही-साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो लोग बाद में लेते थे, पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला, वह अपूर्व था। सुन्दरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था।

वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता के एक इशारे पर कंधों पर से ही फूट उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच पर आता है और दर्शकों को अभिभूत करके खप-से निकल जाता है। क्यों ऐसा हुआ ? कंदर्प-देवता के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों है। अरविन्द को किसने भुलाया, आम कहां छोड़ा गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका ? नवमल्लिका की अवश्य ही जब विशेष पूछ नहीं है; किन्तु उसकी इससे अधिक कदर कभी थी रस-साधना के पिछले हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी ? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी ? कविता क्या सो गई थी ? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में अशोक कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके।

लेकिन मेरे मानने–न मामने से होता क्या है ? ईसवी सन् के आरंभ के आस-पास अशोक का शानदार पुष्प भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प में अद्भुद महिमा के साथ आया था। उसी समय शताब्दियों के परिचित यक्षों और गंधर्वों ने भारतीय धर्ध-साधना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया था। पंडितों ने शायद ठीक ही सुझाय़ा है कि गंधर्व और कंदर्प वस्तुतः एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न उच्चारण हैं। कंदर्प-देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप से एक आर्यतर सभ्यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्य वरुण थे, कुबेर थे, वज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प यद्यपि कामदेव का नाम हो गया है तथापि है वह गन्धर्व का ही पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्णु से डरते थे और बुद्धदेव से भी टक्कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प-देवता हार मानने वाले जीव न थे। बार-बार हारने पर भी वह झुके नहीं। नये-नये अस्त्रों का प्रयोग करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्त्र था। बोद्ध धर्म को इन नये अस्त्र से उन्होंने घायल कर दिया। वज्रयान इसका अभिभूत कर दिया और शाक्त-साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल-साधना इसका प्रमाण है और कापालिक मत इसका गवाह है।

रवीन्द्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ‘महामानवसमुद्र’ कहा है। विचित्र देश है वह ! असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए-न जाने कितनी मानव-जातियाँ यहाँ आई और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गई। जिसे हम हिन्दू रीति-नीति कहते हैं, वे अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुद मिश्रण है एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित हैं। अशोक की भी अपनी स्मृति-परंपरा है। आम की भी है, बकुल की भी है, चंपे की भी है। सब क्या जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्मा देवता ने शिव पर बाण फेंका था ? शरीर जलकर राख हो गया और वामन-पुराण (पष्ठ अध्याय) की गवाही पर हमें मालूम है कि उनका रत्नमय धनुष टूटकर खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ थी, वह स्थान रुक्म-मणि से बना हुआ जो नाह-स्थान था, वह टूटकर गिरा और मौलसरी के मनोहर पुष्पों में बदल गया ! अच्छा ही हुआ। इन्द्रनील मणियों का बना हुआ कोटि-देश भी टूट गया और सुन्दर पाटल-पुष्पों में परिवर्तित हो गया। यह भी बुरा नहीं हुआ। लेकिन सबसे सुन्दर बात यह हुई कि चन्द्रकांत-मणियों का बना हुआ मध्यदेश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि बेला बन गई, स्वर्ग को जीतनेवाला कठोर धनुष जो धरती पर गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया ! स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं !


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