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बौद्धधर्म दर्शन

आचार्य नरेन्द्रदेव

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :690
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6177
आईएसबीएन :81-208-3012-1

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बौद्धधर्म-दर्शन आचार्य नरेन्द्रदेव की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

Baudh Dharma Darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


बौद्धधर्म दर्शन आचार्य नरेन्द्रदेव की सर्वश्रेष्ठ रचना है। बौद्धधर्म तथा दर्शन के समस्त भेदों-प्रभेदों का वर्णन करने वाला यह ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से अद्वितीय है।

ग्रन्थ पाँच खण्डों तथा बीस अध्यायों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में बुद्ध के प्रादुर्भाव तथा उनकी देशना, स्थविरवाद तथा उसकी साधना और पालि साहित्य सम्पदा का वर्णन है। द्वितीय खण्ड में महायायन का उद्भव, बौद्ध संस्कृत-साहित्य, महायान दर्शन तथा उसकी साधना का विवेचन किया गया है। तृतीय खण्ड में बौद्धदर्शन के सामान्य सिद्धान्तों: प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणभंगवाद, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्मवाद तथा निर्वाण का वर्णन है। चतुर्थ खण्ड में बौद्धदर्शन के चारों प्रधान न्यायों - वैभाषिक, सौतान्त्रिक, विज्ञानवाद एवं माध्यमिक को शास्त्रीय रूप में विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। पाँचवें खण्ड में बौद्ध न्याय का सम्यक् विवेचन प्रस्तुत हुआ है।

आचार्यजी के ग्रन्थ की प्रधान विशेषता यह है कि इसमें बौद्धदर्शन के प्रत्ययों तथा तद्विषयक विविध मतमतान्तरों का वर्णन मूल आचार्यों की पालि अथवा संस्कृत कृतियों के आधार पर किया गया है। पालि स्त्रोतों में त्रिपिटक के अतिरिक्त आचार्यजी ने "मिलिन्दपञ्हो" महाकच्चान-कृच "नेतिपकरण", बुद्धबोष-रचित "अट्ठकथा" तथा "विशुद्धिमग्गो" एवं धर्मपाल स्थविर-रचित "अभिधम्मत्थ संगहो" जैसे पिटकबाह्य ग्रन्थों को आधार बनाया। संस्कृत साहित्य की जिन कृतियों का प्रभूत उपयोग किया गया है उनमें आर्य नागार्जुन-कृत "माध्यमिककारिका", आचार्य वसुबन्धु-कृत "प्रसन्नपदावृत्ति" प्रमुख है। इसके अतिरिक्त लेखक ने प्रसिद्ध पाश्चात्य बौद्ध विद्वान ल वले द पूसें द्वारा चीनी भाषा से फ्रेंच में अनूदित दो ग्रन्थों वसुबन्धु-कृत "अभिधर्मकोश" तथा शुआन च्वांग-कृत "विज्ञप्तिमात्रता-सिद्धि" का भरपूर उपयोग किया गया है। आचार्यजी ने योरोपीय तथा भारतीय बौद्ध विद्वानों शेरवात्स्की, सिलवां लेवी, पूसें, लूडर्स, वासिलिफ, हरप्रसाद शास्त्री, राजेन्द्रलाल मित्र प्रभृति, के लेखन को भी ध्यान में रखा है।

आचार्य नरेन्द्रदेव की भाषा, भाव तथा शैली विषय की गुरुता के अनुरूप है तथा मूल स्त्रोतों पर आश्रित होने के कारण शास्त्रानुकूल है। यह ग्रन्थ निःसन्देह बौद्धधर्म तथा दर्शन का सांगोपांग एवं आधिकारिक विवेचन प्रस्तुत करता है।

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