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शक्ति साधना

रमेशचन्द्र श्रीवास्तव

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6304
आईएसबीएन :81-7775-021-6

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शक्ति साधना से आत्मिक विकास करानेवाली अनुपम कृति है शक्ति साधना, सिद्ध शक्तिपीठों का रहस्य एवं उनकी आलोचनात्मक समीक्षा

Shakti Sadhna-A Hindi Book by Ramesh Srivastava

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नमस्तेऽस्तु महामाये श्री पीठ सुर पूजिते।
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
नमस्ते गरुड़ारूढे कोलासुरभयंकरि।
सर्वपाप हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
सर्वज्ञे सर्ववरदे भयंकरि।
सर्व दु:ख हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
सिद्धि बुद्धिप्रदे देवि भुक्ति मुक्ति प्रदायिनि।
मंत्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
आद्यान्तरहिते देवि आद्यशक्ति महेश्वरि।
योगजे योग सम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।।
स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोदरे।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्म स्वरूपिणि।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
श्वेताम्बरधरे देवि नानालंकार भूषिते।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

दो शब्द


आद्याशक्ति की मर्जी से समस्त ब्रह्माण्ड संचालित होते हैं। उनकी कृपा के बिना एक कण भी इधर-उधर नहीं हो सकता, एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, फिर भी मैं या मेरी क्रियाएँ कैसे संचालित हो सकती हैं ? मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। मेरा अस्तित्व तो एक अणु से भी कम है। मेरी क्रियाएँ तो इन्हीं महामाया के अधीन रहती हैं और उनकी कृपा नहीं हुई कि मैं पुस्तक लिख सकूँ। अत: नहीं लिख सका। लिखता कैसे, लिखने की प्रेरणा तक उन्होंने नहीं दी।
आप पाठकों के प्रश्नों का यही उत्तर है। आप बार-बार यही पूछते रहे कि ‘शक्ति साधना’ नामक पुस्तक कब प्रकाशित हो रही है ? क्या पुस्तक प्रकाशित हो गयी है ? तो अब उत्तर मिल गया।

विद्या और अविद्या, परा और अपरा, पुरुष और प्रकृति शक्तियों ने मुझे सहारा नहीं दिया इसीलिए मैं महाशक्तिशालिनी पूर्णाशक्ति के आख्यानों का, उनकी साधना एवं उपासना का आलेख कैसे अंकित कर सकता ? मेरी लेखिनी में तो वही विराजती हैं और वह चाहती हैं वही लिखती हैं, वही लिखाती हैं।

महाशक्ति की कृपा शक्ति साधना से ही मिल सकती है। इसमें किसी को कोई भी संदेह नहीं होना चाहिए। किन्तु शक्ति से शक्ति लेने की क्रिया कृपा नहीं कहलाती वरन् शक्ति साधना कहलाती है। मैं माँ का बेटा हूँ। शक्ति माँ का एक छोटा-सा बेटा। शायद इसीलिए यह करने में, ऐसा लिखने में हिचक रहा हूँ कि महाशक्ति से शक्ति लेने में शक्ति साधना का प्रयोग करना होता है। ऐसी कठोर साधना करनी पड़ती है कि वह सुपर पावर आपको, साधक को अपनी वह शक्ति देने को विवश हो जाय जिसकी वह स्वयं स्वामिनी है। कटु शब्दों में कहे तो स्पष्ट होगा- महाशक्ति से उसकी तमाम शक्तियों में से कुछ खींचना होगा, यानी शक्ति साधना होगा। शक्ति प्राप्त करनी होगी। जबरन शक्ति को आकर्षित करना होगा और स्पष्ट कहूँ तो- अपनी घोर शक्ति साधना से उस महाशक्ति को विवश कर देना होगा कि वह वशीभूत रहे। महाशक्ति की विभिन्न शक्तियों में से मनचाही शक्ति को, उसकी साधना करके वशीभूत, अनुकूल करना ही शक्ति साधना का लक्ष्य है, उद्देश्य है और प्राप्तव्य है।

मैं तो यह सोचकर भी काँप जाता हूँ कि किसी शक्ति को वशीभूत करके अपने अनुकूल बनाये रखा जाय और न तो मैं आज तक ऐसा कर सका हूँ, न करना चाहता हूँ। क्योंकि मैं महाशक्ति को, आद्यशक्ति को, पराशक्ति को अपनी माँ की तरह पूजता हूँ। माँ की तरह भी गलत है, पूर्ण माँ ही मानता हूँ। उसे वश में नहीं करना चाहता वरन् उसके वश में रहना चाहता हूँ और सदैव उसकी कृपा, उसकी ममता, उसका वात्सल्य चाहता रहता हूँ।
किन्तु यह भी सत्य है कि शक्ति साधना से विभिन्न शक्तियों को वश में किया जा सकता है, वश में किया जाता रहा है और वश में करने अपने अनुकूल किये रहा जा सकता है। कहा गया है कि- ‘मंत्र अधीना देवता’- मंत्र के आधीन देवी-देवता हो जाते हैं।

मंत्र के अधीन देवी-देवता कब होंगे ? जब साधक मंत्र साधना करेगा, शक्ति साधना करेगा। यह स्वयंसिद्धि है की शक्ति साधना से देवी-देवताओं की शक्तियों को अपने आधीन किया जा सकता है, किया जाता रहा है, किया गया है।
किन्तु उसके लिए घोर-कठोर शक्ति साधना करनी होगी, ऐसी घोर साधना महाबली रावण जैसे लोग ही कर सकते है। सामान्य व्यक्ति न कर सकता है, न सफल हो सकता है।
राम-रावण युद्ध चल रहा था। राम ने शक्ति पूजा की। देवी माँ प्रसन्न हुई। उन्होंने राम को विजयी होने का आशीर्वाद दिया। राम ने उपाय पूछा तो उस महाशक्ति ने कहा-‘‘जब तक मैं रावण पर प्रसन्न हूँ, उसके वश में हूँ, तब तक तुम विजयी नहीं हो सकते। अत: जब रावण शक्ति साधना कर रहा हो तब उसकी साधना, उसकी पूजा भंग कर दो, खण्डित कर दो। साधना भंग होते ही मैं रावण से रुष्ट होकर उससे दूर हो जाऊँगी। तब तुम विजय प्राप्त कर लेना।’’
इससे सिद्ध होता है कि शक्ति साधक के वश में रहती है और उसी के लिए क्रियाशील रहती है। शक्ति तभी तक साधक के वश में रहेगी जब तक साधक शक्ति साधना करता रहेगा।

मैं पराशक्ति को वश में करने की बात सोच भी नहीं सकता और न आपको ऐसी शक्ति साधना करने का परामर्श ही दे सकता हूँ। शक्ति साधना कीजिए केवल उसकी कृपा करने के लिए। इस पुस्तक में जो कुछ भी लिखा गया है वह महाशक्ति की कृपा प्राप्त करने के लिए है।
हाँ, अपरा शक्तियों के लिए शक्ति साधना यह चाहकर, यह मानकर करें कि उन्हें आपको अपने वश में, मंत्र अधीन करके अनुकूल करना है। ऐसा आप शक्ति साधना से कर सकते हैं।
परा-अपरा का भेद, परिभाषा में स्पष्ट की गयी है। विद्या माया और अविद्या माया को भी स्पष्ट किया गया है। पाठकों को चाहिए कि ज्ञानवर्द्धन के साथ-साथ साधना भी करें और अपना जीवन सफल करें।
यह पुस्तक अब आपके हाथों में हैं। इसकी आलोचना समालोचना करने का पूर्ण अधिकार आपको है। मैं आपके पत्रों की प्रतीक्षा करता रहूँगा।
मैं श्री राजीव अग्रवाल जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ जिनके अथक् प्रयास से यह पुस्तक आप तक पहुँच सकी। मैं माँ से उनकी प्रगति, सम्पन्नता एवं दीर्घायु की कामना करता हूँ।

आपका स्नेही
रमेश चन्द्र श्रीवास्तव

1
शक्ति क्या है ?


शक्ति साधना पर कुछ लिखने, कहने के पूर्व हमें यह विचार करना आवश्यक है कि स्वयं वह शक्ति क्या है और उसका क्या महत्त्व है ? शक्ति को हम निम्न विवरण से समझ सकते हैं-


सर्व देवमयी देवी सर्व देवीमयं जगत।
अतोऽहं विश्वरूपां त्वां नमामि परमेश्वरीम्।।

समस्त देवी-देवता शक्ति से ही संचालित, प्रभावित होते हैं, अर्थात् सर्वदेवों में देवी ही है और समस्त संसार देवी की शक्ति एवं कृपा से व्याप्त है। अत: हे विश्वरूपा पराशक्ति देवी परमेश्वरी, हम सब तुम्हारा बारम्बार नमन करते हैं। इस जगत् एवं ब्रह्माण्ड में सर्वदा सर्वकालों में देवी ही की सत्ता विद्यमान है।

अपने को पराशक्ति होने का बोध कराने वाली पराशक्ति महामाया देवताओं के पूछने पर स्वयं के व्यक्ति अव्यक्त परा-अपरा स्वरूपों का वर्णन करती हुई स्वयं कहती हैं-

अहं ब्रह्म स्वरूपिणी। मत: प्रकृति पुरुषात्मकं जगत। शून्यं चाशून्यं च।

अर्थात् मैं ही ब्रह्मस्वरूपा हूँ। मुझसे प्रकृति पुष्पात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत उत्पन्न हुआ है। (यानी देवी ही ब्रह्मस्वरूपा हैं, प्रकृति एवं पुरुष के दोनों रूप से जगत पैदा हुआ है।)

अहमानंदानानंदौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पंच भूतान्यपंतभूतानि। अहमखिलं जगत।

अर्थात् मैं आनन्द और आनन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत मैं ही हूँ।

वेदोऽहम् अवेदोऽहम्। विद्याहम् अविद्याहम्। अजाहमनजाहम् अद्यश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।

अर्थात् वेद और अवेद मैं ही हूँ। विद्या और अविद्या मैं ही हूँ। आज्ञा और अनज्ञा मैं ही हूँ (जन्म लेने वाली और अजन्मी या प्रकृति उससे भिन्न हूँ)। ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल यानी चारों ओर मैं ही हूँ। स्पष्ट हैं कि सर्वत्र मैं ही विराजती हूँ।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवै:। अहं मित्रावरुणा विभौ बिभर्मि। अहमिद्राग्नी अहमश्विनावुभौ।

अर्थात् मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ। मैं आदित्यों और विश्वदेवों के रूपों में फिरा करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ।


अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।

अर्थात् मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ, त्रैलोक्य को अक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मा और प्रजापतियों को मैं ही धारण करती हूँ।



प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. शक्ति क्या है ?
  2. आप कौन हैं ?
  3. डार्क एनर्जी का रहस्य
  4. शक्ति साधना
  5. आद्याशक्ति
  6. परा और अपरा शक्ति
  7. साधना सफल क्यों नहीं होती ?
  8. महाशक्ति की माया शक्तियाँ
  9. सिद्ध पीठ का रहस्य
  10. सिद्ध पीठ एवं शक्ति पीठ
  11. दस महाविद्या शक्ति
  12. अन्नपूर्णा शक्ति साधना
  13. अर्द्धनारीश्वर शक्ति का रहस्य
  14. काली तत्त्व और शक्ति साधना
  15. शक्ति साधना का महामंत्र
  16. शक्ति साधना से आत्मिक विकास करें
  17. शक्ति साधना का अद्वितीय ग्रन्थं श्री दुर्गा सप्तशती
  18. सम्पुटित सप्तशती पाठ के चमत्कारी श्लोक

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