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अघोर शक्ति

रमेशचन्द्र श्रीवास्तव

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6305
आईएसबीएन :81-7775-013-5

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‘अघोर शक्ति’ नामक यह पुस्तक पाठकों की प्रबल इच्छा और अनुरोध पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

Aghor Shakti-A Hindi Book by Ramesh Chandra Shrivastav -अघोर शक्ति - रमेशचन्द्र श्रीवास्तव

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

‘अघोर शक्ति’ नामक यह पुस्तक पाठकों की प्रबल इच्छा और अनुरोध पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस पुस्तक में तीन बातें कहने का प्रयास किया गया है।
पहली बात यह कि अघोर, अवधूत, औघड़ शक्ति क्या है और उसका स्वरूप क्या है अथवा वास्तविक अर्थ क्या है ?
दूसरी बात अघोरेश्वर शिव का रहस्य, उनके अवधूत भक्तों की शक्तियाँ और श्रेष्ठ औघड़ साधकों के संस्मरण क्या हैं ?
तीसरी बात है चमत्कारिक मनोरंजन की। औघड़ों की कहानियाँ पाठक बड़े चाव से पढ़ते हैं। इन कहानियों में केवल कोरी कल्पना नहीं है वरन् अघोर सिद्धान्त पर आधारित कहानियाँ हैं। इसके साथ ही कुछ लोक प्रचलित औघड़ों की कहानियाँ हैं।

आशा है, पाठकगण इनसे अपना स्वस्थ मनोरंजन भी करेंगे और ज्ञानवर्धन भी करेंगे। मेरा उद्देश्य तो इतना ही है कि आप अघोर शक्ति को भली-भाँति समझ सकें।
हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि इनमें अधिकांश कहानियाँ पूर्व प्रकाशित हैं और मेरे नाम से, मेरी पत्नी के नाम (श्रीमती नीलिमा श्रीवास्तव) से, पुत्र पारितोष के नाम से और मेरे गुरु द्वारा रखा गया नाम ज्ञानेश्वर के नाम से प्रकाशित हुई हैं। यह सब मेरी ही लिखी हैं। ऐसा पत्र-पत्रिका की व्यापारिकता के कारण लेखकीय नामों में परिवर्तन हुआ है।
कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो पूर्ण सत्य हैं और मेरी अनुभव में खरी उतरी हैं।
पुस्तक ‘अघोर शक्ति’ आपके हाथों में है और पढ़ने के बाद आलोचना समालोचना भी आपकी मर्जी पर है।
आपका स्नेही

रमेश चन्द्र श्रीवास्तव

1
अघोर शक्ति


अघोर का ही अपभ्रंश शब्द है—औघड़। औघड़ और अघोर शब्द समानार्थी हैं। इसका अर्थ है जो घोर न हो अर्थात् जो भयानक, क्रूर, कठोर, दुरुह, कठिन पीड़ादायक न हो यानि सरल, सुहावना, मंगलकारी हो।
आप मेरे द्वारा की जा रही अघोर शब्द की व्याख्या पर चौंके रहे होंगे, परन्तु यह सत्य अर्थ है कि जो भयानक न हो, यानी जो घोर न हो, वही अघोर होता है।

किन्तु लोग अधोर या औघड़ का अर्थ लेते हैं, कठोर, अति घोर अति, भयानक, अत्यन्त विचित्र, महाक्रूर अर्थात् जो रंचमात्र भी सरल या सामान्य न हो, वही अघोर या औघड़ होता है। औघड़ या अघोर के ये दोनों प्रकार के अर्थ एक-दूसरे से विपरीत हो गये हैं। अतः पाठकों का चौंकना स्वाभाविक है। एक ही शब्द को विभिन्न विपरीत अर्थों में प्रयोग कैसे किया जा सकता है, यह सोचना भी स्वाभाविक है। वैसे अब तक आपने औघड़ या अघोर शब्द की पूर्ण व्याख्या की हो या न की हो, परन्तु इतना तो अवश्य समझते रहे होंगे कि औघड़ का, अघोर का अर्थ एक गन्दे, भयानक और क्रूर दिखने वाला व्यक्ति या साधु से है, क्योंकि समाज में प्राप्त होने वाले अघोरी या औघड़ दिखते ही ऐसे विचित्र एवं भयानक हैं जिनकी वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, चाल-चलन, बोल-चाल, कार्य-व्यापार, सभी कुछ अन्य संन्यासियों, संतों, साधुओं, उपासकों, एवं साधकों से भिन्न तथा विचित्र दिखाई पड़ता रहा है।
यह भी सत्य है कि औघड़ व अवधूत का सब कुछ विचित्र असामान्य एवं अन्य साधु-सन्तों से भिन्न होता है। भले ही वे स्वयं में सच्चे अघोर साधक हैं भी या नहीं। परन्तु उनका स्वरूप और व्यक्तित्व में औघडों की तरह होता और वह सब कुछ अन्य साधु-सन्तों से भिन्न होता है। यही भिन्नता तो उन्हें असामान्य बनाकर अघोर या औघड़ बनाती है। अन्य साधु-संतों से यहाँ तक कि अन्य शैव-साधकों एवं उपासकों से भी भिन्न तथा विचित्र होते हैं—अघोर साधक ! औघड़ तथा अवधूतों का अपना अलग संसार ही होता है।

अब यह जान लें कि अघोर शब्द को सरल और कठिन, भय रहित और भयानक, कोमल और कठोर, भावुक और शुष्क, दयालु और क्रूर जैसे विपरीत अर्थों में बाँधते हैं जो कि सर्वथा असंभव है नहीं, क्योंकि मनुष्य के दो व्यक्तित्व होते हैं। एक बाह्य व्यक्तित्व और दूसरा आन्तरिक व्यक्तित्व। आन्तरिक व्यक्तित्व में दोनों प्रकार की विरोधी विचारधाराओं एवं भावनायें भी होती हैं। सुख-दुख, हर्ष-विषाद, कोमल, -कठोर, दया-क्रोध सत्-असत, सरल, कठिन, आतंक, कृपा, वरदान, शाप जैसी विरोधी भावनायें समय-समय पर अपना सर उठाती ही रहती हैं। अघोर या औघड़ भी इसी प्रकार की भावनाओं एवं अर्थों से परिपूर्ण होते हैं। शिव के अघोर एवं अवधूत अवतार से अघोर एवं औघड़, साधना एवं शक्ति का जन्म हुआ था। अघोर साधना तथा शक्ति घोर योग को सिद्ध करने पर प्राप्त होती हैं। घोर योग का अर्थ है—कठिन योग साधना। यानी साधारण योग नहीं। असाधारण योग की साधना करके ही कोई शैव अघोर बन सकता है।

अघोर शक्ति प्राप्त करने के लिए साधक को योगसाधना के प्रत्येक अंग का परिमार्जन कर प्रथम सोपान से, चढ़ता हुआ चरम सीमा के अंतिम सोपान तक पहुंचना होता है। साधारण योग साधना से ही साधक को तन-मन और समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। ऐसा योग साधक अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने मर्जी के अनुसार ही अनुशासित बना लेता है। किन्तु घोर योग की साधना में सफल हुआ घोर साधक यानी अवधूत या औघड़ उससे भी उच्चकोटि का हो जाता है। उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में ही नहीं होती, वरन् वह अपनी कुछ या सभी इन्द्रियों को निष्क्रिय कर देता है। इन्द्रियाँ जब पूर्णतया निष्क्रिय हो जाती हैं तो उनमें किसी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं रह जाती। इसे हम और सरल ढंग से समझें तो यह कि त्वचा रूपी इन्द्रिय जब पूरी तरह संवेदनशील हो गयीं तब उस त्वचा पर चाहे कोमल स्पर्श हो या कठोर दोंनो ही पूरी तरह बराबर हैं।
ऐसी त्वचा को मच्छर डसें या साँप समान हैं। ऐसी त्वचा पर चाहे चंदन का लेप हो या मल का, फूल चुभें या काँटे। इत्र लगे या मूत्र सब अर्थहीन है या उनका प्रभाव एक-सा ही होगा। इसी प्रकार नासिका रूपी इन्द्रिय के लिए भी होता है। चाहे सुगन्ध मिले या दुर्गन्ध समान है। जिह्वा और कंठ के लिए संवेदनशीलता एक समान हो जायेगी। जिह्वा ने जब अपनी, संवेदनशीलता त्याग दी तब साधक नमक, मिठाई, खट्टा, तीखा, गर्म, ठण्डा, कसैला, सुगन्धित, दुर्गन्धित कुछ भी आये, समान स्वाद देगा। इसी प्रकार पाँचों कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियों के विषय में जान सकते हैं। जब घोर योग द्वारा समस्त इन्द्रियों को निष्क्रिय कर लिया जाता है, तब आध्यात्मिक शक्ति का विकास हो जाता है और प्राण वायु मूलाधार में स्थित कुंडलिनी को जाग्रत कर सहस्त्रासार तक पहुँचा देती है। फिर तो शून्य शिखर में कुंडलिनी विराजमान हो परमानंद की अनुभूति कराती रहती है।

घोर योग की उपरोक्त विधि से साधना करके साधक अघोर बन जाता है। ऐसे अघोर, औघड़ एवं अवधूत को संसार में रहते हुए भी संसार और सांसारिकता की कोई चिन्ता नहीं रहती है। उसके लिए सारा विश्व, समस्त सृष्टि एक-सी ही लगती है। वह जीव में, निर्जीव में, चैतन्य में शिव की सत्ता अघोरेश्वर का दर्शन ही करता है। उसके कंठ में सुगन्धित पुष्पों की माला हो या विषधर, रुद्राक्ष हो, हीरे-मोती हों या कि कंकाल की अस्थियाँ सब समान होंगी। वह वस्त्र या मृगचर्म या व्याग्रचर्म धारण किये हो अथवा दिगम्बर हों क्या फर्क पड़ता है ? वह नग्न हो या दिव्य राजसी वस्त्र पहने हो, एक समान रहेगा। व सुस्वादु व्यंजन ग्रहण कर रहा हो या सड़ा हुआ पशु मानव का माँस दोनों एक जैसे ही लगेंगे। उसे गंगाजल और मदिरा में कोई भेद नहीं दिखता, वह फूलों की सेज में सोये या शिला पर अथवा काँटों पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। कहने का तात्पर्य यह है कि अघोर शक्ति प्राप्त हो जाने पर औघड़ को सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, गर्मी-सर्दी का अनुभव ही नहीं होता। इतना ही नहीं, उसका मन निर्विकार भाव से परिपूर्ण हो जाता है। सामान्य से असामान्य और मानव से शिव समान बना देने वाली इस महान अघोर साधना से जो शक्ति प्राप्त होती है, वही अघोर शक्ति है।

अघोर शक्ति की पूर्णता प्राप्त करने वाले सच्चे सिद्ध अवधूतों में अग्नि तत्त्व कभी बढ़ने या हावी नहीं होने देते। ये सिद्ध औघड़ संतों की तरह शान्त, सरल और भय रहित होते हैं। ऐसे लोग समाज से सम्बन्ध ही नहीं रखते। ये अवधूतेश्वर शिव की उपासना में अधिकांश समय ध्यान एवं समाधि में व्यतीत करते है और हिमालय, मानसरोवर या जंगलों में निर्जन स्थानों पर निवास करते हैं। यह बात अवश्य होती है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसे सिद्ध अवधूतों के सम्पर्क में आ जाता है। और वे उसकी सेवा से प्रसन्न हो जाते हैं या कोमल भावना का जागरण हो जाता है, तो वे मात्र अपने चिंतन (सोच-विचार) या वाणी से ही व्यक्ति का हित, साधन एवं कल्याण कर देते हैं। स्वतंत्र एवं सांसारिकता से निर्लिप्त होने के कारण इन लोगों की वाणी में स्वच्छन्दता बनी रहती है। इसके साथ ही इनके अपशब्द या गालियाँ भी प्रेम एवं स्नेह से भरे रहते हैं। ये लोग किसी की परवाह नहीं करते, क्योंकि यह स्वयं शिव हो जाते हैं।
ऐसे लोगों की वाणी से निकला वरदान या शाप कभी निष्फल नहीं जाता है। वे जो कुछ कहते हैं, सोचते हैं वह सत्य एवं सुलभ हो जाता है।
अघोर शक्ति प्राप्त सिद्ध औघड़ स्वयं में परम ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। तब वह शिवोऽहम की श्रेणी में आकर ही अवधूतेश्वर समान हो जाता है। इसीलिए बड़ी प्रबल होती है—औघड़ शक्ति

2
अघोर योग की चरम स्थिति है


आध्यात्मिक क्षेत्र हो या सांसारिक योग साधना का अपना विशिष्ट महत्त्व होता है, वही सफल व्यक्ति होगा, जिसके अन्दर योग शक्ति होगी। यह बात अलग है कि किसके अन्दर कितनी योग शक्ति है अथवा कितनी योग शक्ति संचित कर सकता है। जो जितनी योग शक्ति जुटा सकता है, वह उतने ही ऊँचे उठकर कार्य कर सकता है। प्राणों में ऊर्जा योग शक्ति और योग शक्ति की चरम स्थिति ही ब्रह्मत्व है।
यह ब्रह्मत्व क्या है ? आप यह भी जान लें क्योंकि यह जानना उसी तरह आवश्यक है जैसे कि अपने जनक को जानना। यह कटु सत्य है कि जननी ही बता सकती है कि उसने जिसे जना है, उसका जनक कौन है ? यह व्यक्ति का सांसारिक जनक होगा। परन्तु आध्यात्मिक जनक को जानने, पहचानने और पाने के लिए योग का ही एक मात्र सहारा लेना होगा। ‘ईश्वर है’ उसे सृष्टि का एक-एक कण स्वीकार करता है।

विश्व के सारे धर्म एवं सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं, कोई गौड़ कहता है, कोई अल्लाह तो कोई ब्रह्म। उसके हजारों लाखों नाम हो सकते हैं परन्तु कोई यह नहीं कह सकता कि ईश्वर या एक सुपर पावर नहीं है। प्रकृति कहो या शक्ति कहो, परमात्मा कहो या ब्रह्म कहो सब एक ही पिता के एक ही जनक के पर्यायवाची शब्द हैं। वह पिता है—हमारा, तुम्हारा, समस्त प्राणियों का, सृष्टि के समस्त कण-कण का, उसे पहचानना, जानना और पाना यही शेष है। उसे पाने के लिए उसी को पहचान कर उसकी शक्ति अपने में संजोने के लिए योग एक मार्ग साधना है।

योग क्या है ?

योग का अभ्यास या साधना प्राणायाम से प्रारम्भ होता है। प्राणों में ऊर्जा का संचार वायु से होता है। वायु तत्त्व अग्नि अवं जल तत्व से भिन्न-भिन्न रूपों, अंशों में मिलकर प्राणियों के तन-मन पर एक नया रासायनिक यौगिक का निर्माण करते हैं जिसके प्राप्त कर-व्यक्ति दूसरे से भिन्न हो जाता है। वह दूसरे से श्रेष्ठ भी हो सकता है और हीन भी हो सकता है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि स्वयं उस व्यक्ति ने अपने तन-मन पर यानि आन्दर-बाहर कैसे-कैसे यौगिकों का निर्माण कर लिया है और उसमें से कौन-कौन से यौगिक उच्च दिशा को ले जाते हैं या निम्न दिशा को ले जाते हैं। यह रहस्य जान लेने के बाद व्यक्ति अपने अन्दर श्रेष्ठ यौगिकों को ही बढ़ावा देगा। यदि वह ऐसा करता है, ऐसे अभ्यास करता है तो अभ्यास करते-करते वह एक उच्चतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है !


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