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हास्य-व्यंग्य >> कृपया दायें चलिए

कृपया दायें चलिए

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 6310
आईएसबीएन :00000

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कृपया दायें चलिए पुस्तक का कागजी संस्करण...
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कवि का साथ

 

आपने भी बड़े-बूढ़ों को अक्सर यह कहते शायद सुना होगा कि हमारे पुरखे कुछ यूं ही मूरख नहीं थे जो बिना सोचे-विचारे कोई बात कह गए हो या किसी तरह का चलन चला गए हों। हम तो खैर अभी बड़े-बूढ़े नहीं हुए, मगर अनुभवों की आंचों से तपते-तपते किसी हद तक इस सत्य का समर्थन अवश्य करने लगे हैं। हमारे पुरखे सदा अनुभव का मार्ग अपनाते थे। संगी-साथियों का भला-बुरा, तीखा-कड़वा अनुभव उठा लेने के बाद ही उन्होंने यह सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक तत्व पाया कि- ‘ना कोई तेरा संग-संगाथी, हंस अकेला जाई बाबा।’

बड़े गहरे तजुर्बे की बात है। और मैं तो सेर पर पंसेरी की चोट लगाकर यहां तक कहना चाहूंगा कि ‘बैर और फूट’ का महामंत्र भी इसी महानुभाव की देन है। न रहे बांस और न बजे बांसुरी। लोगों में यदि आपस में बैर-फूट फैल जाए तो फिर ‘साथी-संगी’ शब्द ही डिक्शनरी से निकल जाएंगे- जब साथी न रहेंगे तो साथ निभाने की जरूरत भी न रहेगी, चलिए जैजैराम-सीताराम, कोई टंटा ही न रहेगा। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता के आलस्य सभ्य स्वर्मिण युग की कल्पना शायद कभी साकार हो जाए। ‘बैर और फूट’ के मंत्रसिद्ध देश में जन्म लेकर, इतने बड़े उपदेश के बावजूद हम-आप सभी संगी-साथियों के फेरे में पड़े रहते हैं। इसे कलिकाल का प्रभाव न कहें तो और क्या कहें।

हद हो गई कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के भयंकर समर्थक प्रति वर्षोत्तरी पीढ़ियों के नौनिहाल नौजवान भी दिन-रात किसी न किसी का साथ निभाने के पीछे अपने-आपको तबाह किए रहते हैं। लड़कियों को सखा और सखाओं को सखियां भी चाहिए। मां-बाप प्रबंध करें या वे स्वयं-स्त्री-पुरुष दोनों को ही जीवन-साथी की चाहना भी अब तक हर वर्ष होती है।

अगर यही तक बात थम जाती तो भी गनीमत थी, मगर एक जीवनसाथी के अलावा हर एक को काम के साथियों की आवश्यकता भी पड़ती है और मनबहलाव के साथियों की भी। काम और मनबहलाव दोनों ही अच्छे-बुरे होते हैं और साथ भी दोनों ही प्रकार के होते हैं। यहां तक तो दुभांत चलती है, मगर इसके बाद जहां तक साथ निभाने का प्रश्न है, वह चाहे अच्छा हो या बुरा, हर हालत में बड़ा कठिन होता है।
एक दिन मेरे परिचित सज्जन मुझसे अपना दुखड़ा रोने लगे। बेचारे बड़े भले आदमी हैं। पढ़े-लिखे औसत समझदार, भावुक और काव्य-कलाप्रेमी युवक हैं। इनके दुर्भाग्य ने इनके साथ यह व्यंग्य किया कि इनके बचपन के एक सहपाठी मित्र को अंतराष्ट्रीय ख्याति का कवि बना दिया।

 एक समय में स्कूल ख्यात कवि थे; वह कुछ भी नहीं था।.......इसी संदर्भ में इन सज्जन को कवियों के संग-साथ का चस्ता लगा। उस दिन उन्हें उदास देखकर जब मैंने बहुत कुरेदा तो बोले : ‘‘आपसे क्या कहें, साथ निबाहनें के फेर में हम तबाह हो गए। और हमारा तो ठहरा कवियों का साथ, गोया करेले पर नीम चढ़ गया है। कच्चे धागों में मन को बांधकर जीने वाले इन कवियों-कलाकारों का साथ दुनिया-दिखावे के लिए तो अवश्य बड़े गौरव की बात है। बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय ख्याति के कवियों के साथ घूमते हुए देखकर लोगबाग हमें भी पांच सवारें में मानते हैं। मगर इसके बाद का हाल ?- अजी कहां तक कहें, मजहबी यह है कि हमारे पास शेषनाग की तरह हजा़र बातें नहीं हैं।’’

हमारे एक कवि साथी एक बार एक बड़ा दरबारी किस्म के कवि सम्मेलन में जाते समय हमारी नई घड़ी मांग ले गए। हम कोई घन्ना सेठ नहीं, हां, उम्दा चीज़ें रखने का शौक है। इसलिए धीरे-धीरे बचत के रुपये जोड़कर कभी अपनी मनचीती वस्तु खरीद लिया करते हैं। साढ़े तीन सौ का नया माल अपने कवि साथी को टेम्परेरी तौर पर भी सैंप देने में हमें संकोच हुआ। भले ही हमें उनकी नीयत पर शक न हुआ हो, मगर यह भय तो था ही कि मूडी और लापरवाह स्वभाव के कवि जी मेरी घड़ी कहीं इधर-उधर रखकर भूल आएंगे और हें-हें करके बैठ जाएंगे, इधर हम बेमौत मारे जाएंगे। घड़ी की घड़ी जाएगी, ऊपर से जीवन-संगिनी महोदया की हज़ार अलाय-बलाय सहनी पड़ेगी। हमारा संकोच देखकर कवि जी के मन का एक कच्चा धागा टूट गया, तपकर बोले : ‘‘तुम ! तुम बुर्जुआ हो, अपने एक कवि मित्र का गौरव नहीं सहन कर सकते। तुम चूंकि कविता नहीं कर सकते मगर घड़ी खरीद सकते हो, इसलिए मेरे मान-सम्मान को अपने पैसे की शक्ति से दबाना चाहते हो......।’’

फिर तो, मित्रवर कवि ठहरे, एक ज़बान से सौ-सौ वार कर चले। हार कर मैंने घड़ी दे दी। फिर......जिसका डर था वही हुआ। कवि जी ने आकर कह दिया कि घड़ी खो गई। सुनकर जब मेरा चेहरा उतर गया तो वो गरज कर बोले : ‘‘मैं ब्लड़ बैंक में अपना खून बेच-बेचकर चाहें क्यों न जमा करूं, मगर साढ़े चार सौ रुपये कहीं से भी लाकर तुम्हारे मुंह पर फेंक जाऊंगा। तुम महानीच हो, मेरे जैसे महान कवि के मित्र कहलाने के योग्य नहीं। आते ही तुमसे यह तो न पूछा गया कि कहो मित्र तुम्हें वहां कैसा यश मिला ? बल्कि अपनी ही घड़ी का रोना रोने बैठ गए।’’ जोश में आकर कवि जी कह चले : ‘‘तुमने-तुमने अपनी घड़ी खो जाने की चोट को एक बार भी मेरे अंतरत में, मेरे मर्मस्थल में टटोलकर नहीं देखा और मुंह लटकाकर बैठ गए। तुम्हें क्या मालूम कि उसके खो जाने की पीड़ा से तड़पकर मैंने एक कविता सिखा डाली है। अगर मालूम होता तो तुम्हे

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