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हास्य-व्यंग्य >> तू डाल डाल मैं पात पात

तू डाल डाल मैं पात पात

संजय झाला

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6331
आईएसबीएन :81-288-1786-8

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हास्य की नव उज्ज्वल जलधार व व्यंग्य के हिल्लोलित उच्छल प्रहार...

Tu Daal Daal Mein Paat Paat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक वो संजय था, एक मैं संजय हूँ,
उसने महाभारत देखा था,
मैं ये महान भारत देख रहा हूँ,
उसमें और मुझमें अन्तर इतना सा है,
उसके सामने एक धृतराष्ट्र था,
मेरे सामने करोड़ों धृतराष्ट्र हैं.....
मैं संजय हूँ....

वर्तमान में समाज अपने ही द्वारा स्थापित मूल्यों, मर्यादाओं, रूढ़ियों एवं आडंबरों से लड़ रहा है, हर तरफ पाखंडी सुधारवादियों, छद्मवेषी राजनीतिज्ञों, पाश्चात्य सभ्यता के पक्षधरों ने अपन जाल फैला रखा है। समाज की इन विसंगतियों को रेखांकित करता हुआ लेखक पाठक को हंसाता-गुदगुदाता उस धरा की ओर ले जाता है जिसमें उत्ताल तरंगों की तीखी भयावहता के साथ जीवन के प्रश्नों से जूझने का सामर्थ्य भी है। अपने समय, समाज और दुनिया को समझने के लिए यह व्यंग्य-संग्रह एक दस्तावेज है।

व्यंग्य विवेक अनेक हैं तोरे


हास्य की नव उज्ज्वल जलधार व व्यंग्य के हिल्लोलित उच्छल प्रहार, अपने कथ्य के तथ्य की रंगत को शास्त्र सम्मत संस्तुति देने के लिये कहीं संस्कृत की सुभाषित-सूक्तियाँ तो कहीं हिन्दी के सद्ग्रन्थों की सटीक उक्तियाँ।
शैली के नये-नये अवयवों का प्रयोग, कहीं तुम्हारे बहुमुखी पौराणिक ज्ञान से प्रसन्न और कहीं अधुनातन संचेतना से सन्न...प्रसन्न हो गया मन।

कल्पना की दूरगामी तरंग, भावों की उत्साहित उमंग, मधुर भाषा में मकरन्द की सुगन्ध, गद्य में पद्य का आनंद, विषय की अप्रतिहत गति, न कहीं शैथिल्य न कहीं अति, सतत्, सजग समरसता के प्रति।
हास्य की विद्युत छटा में व्यंग्य की घनघटा का गर्जन निराला, लेखन की कौन पाठशाला में पढ़े हो रे ! संजय झाला।
भविष्य में और भी अधिक शिष्ट-विशिष्ट संग्रह अवतरण हेतु आशीर्वाद।

ओमप्रकाश ‘आदित्य’
‘पंचतंत्र’

अंदाज़े बयाँ और है...


‘‘भ्रष्ट सत्यम् जगत मिथ्या’’ के व्यंग्य-लेख पढ़कर ही मुझे विश्वास हो गया था कि प्रिय संजय ने नई पीढ़ी के चर्चित व्यंग्यकारों की क़तार में एक सशक्त एवं सुपठित रचनाकार की हैसियत से अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करा दी है। इनकी प्रत्येक रचना में हास्य-व्यंग्य का जो सहज तथा विरल विस्फोट हुआ है, वह यकीनन काबिले-ग़ौर है। वास्तव में चचा ‘ग़ालिब’ की तरह इनका भी अन्दाज़े-बयाँ और है.....।

इस पुस्तक के प्रकाशन पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

*अल्हड़ बीकानेरी

व्यंग्याभास का आभास


हास्य मानव मन को प्रफुल्लित कर देता है जबकि व्यंग्य हृदय पर सीधे चोट करता है। वास्तव में जब हास्य विशद आनन्द या रंजन को छोड़कर प्रयोजनिष्ठ हो जाता है तो वह व्यंग्य का मार्ग पकड़ लेता है। किसी भी विकृति-आकृति, वाणी-वेशभूषा, चेष्टा अस्वाभाविक हाव-भाव तथा यंत्रवत् क्रिया-कलापों को देखकर हँसी आ जाना स्वाभाविक है किन्तु यही विकृतियाँ, अस्वाभाविक चेष्टाएँ अपना प्रयोजन स्पष्ट करने लगें तो व्यंग्य का रूप ग्रहण कर लेती हैं। संजय झाला का ‘‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’’ व्यंग्य-संग्रह ठीक वैसा ही पाठक के अवसाद के क्षणों में प्राण फूँकने का काम करता है।

हास्य-व्यंग्य में मानव-चरित्र की दुर्बलताओं की अपेक्षात्मक आलोचना की जाती है किन्तु इन सबका उद्देश्य सुधारवादी तथा मानवतावादी होता है। आज चारों तरफ शासन में चाटुकारों, दंभी देशभक्तों, पुरातनपंथियों, फैशनपरस्तों, पश्चिमी सभ्यता के पक्षधरों, रूढ़ियों-आडम्बरों की पुनर्स्थापना करने वालों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के बल पर देश को चलाने वालों, असामाजिक तत्त्वों का बोलबाला है। संजय  झाला ने अपने व्यंग्य लेखों में इन सब पर, गुरु-शिष्य के बदलते रिश्तों, मनुष्य को मनुष्य से लड़ाने वाली राजनीति तथा समाज में फैले ढोंग-पाखंडों पर, सरकारी दफ़्तरों व राजनीति में फैले विविध रंगी भ्रष्टाचार व अनाचारों पर तीखा प्रहार किया है।

अपने समय, समाज और देश-दुनिया को समझने के लिए लेखक का यह व्यंग्य-संग्रह एक दस्तावेज है। वर्तमान युग की त्रासदियों और समाज के विद्रूप चेहरे को पाठक के सामने यथावत रखने का कार्य वे बेखौफ़ करते नज़र आते हैं साथ ही जीवन मूल्यों की पड़ताल करते हुए नैतिकता के कई प्रश्न खड़े करते हैं। और इस पड़ताल में वे जवाबदेही के लिए भी सबसे पहले स्वयं को ही प्रस्तुत करते हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था पर चोट करते हुए प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी ने लिखा था—

‘‘अपनी अर्थव्यवस्था को डेंगू हो चुका है।
लेटती है तो उठा नहीं जाता, बिठा दो तो लुढ़क जाती है।’’

संजय झाला ने अपने लेखों में विदेशी पूँजी की हवाई रफ़्तार के साथ देशी धन की रेंगने की गति को रेखांकित किया है। लेखक यहाँ उन्मादियों, प्रमादियों और कुचमादियों को समान रूप से झूड़ते-झाड़ते नज़र आते हैं। प्रगतिवादी कवियों ने पूंजीपतियों को खूब कोसा है तो संजय झाला ने पतियों को खूब मसोसा है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने व्यंग्य को आभास कहा तो संजय झाला की यह कृति उस आभास का आभास है। ये लेख विडम्बना-लेख हैं जो विभिन्न बिम्बों और रूपाकारों के माध्यम से व्यंग्य के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। बदलती जीवन शैली और गिरते मूल्यों को व्यक्त करता एक रूपाकार देखिये-
‘‘आदमी स्साला ‘जड़स्थितप्रज्ञ’ हो गया है, ‘न’ सुखेन सुखी, ‘न’ दुखेन दुखी’। बाप के मर जाने पर बेटा उसका कपाल दुकान के मुहूर्त के नारियल की तरह फोड़ता है। दोपहर के कड़वे ग्रास के नाम पर गाजर का हलवा खाता है और रात को लॉकर की चाबी ढूँढ़ता है।’

संजयझाला के ये लेख मानव-मन पर चोट कर उसे लहू-लुहान ही नहीं करते (जो व्यंग्य का प्रतीत कार्य है) बल्कि उस पर अपनी सहानुभूति का मरहम भी लगाते हैं, उसकी चोट का मसाज भी करते हैं। इन लेखों में उनका कोरा मसख़रापन ही नहीं है बल्कि इन विसंगतियों के वे निकटतम दर्शक, भोक्ता और आलोचक हैं। प्रहारक और सर्जक के रूप में इन लेखों के माध्यम से समाज-राजनीति तथा व्यवस्था में जगह-जगह फैली सीलन और बदबू के बीच खुली हवा का एक झोंका सा प्रतीत होते हैं।

प्रशासनिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर किया यह व्यंग्य उल्लेखनीय है :-
‘‘वकील वो होता है जो सत्य को सूली पर टाँग कर उसमें असत्य की कील ठोंकता है....और नेता,....नेता हमारी मिट्टी के लाल हैं। इसमें मुँह पर मिट्टी लगी है। सी.बी.आई. जब यशोदा माई बनकर इनका मुँह खुलवाती है तो उनके मुख-मण्डल में घोटालों का ब्रह्माण्ड नज़र आता है। कभी सीमेंट, कभी सड़कें, कभी पुल, कभी देश।’’
महाभारत में अर्जुन मछली की छाया (परछाईं) देखकर मछली को बाण मारता है जबकि संजय अपनी धर्मपत्नी छाया को देखकर (समर्पित कर) मछलियों (विसंगतियों) पर व्यंग्य बाण मारते हैं।
‘भ्रष्ट सत्यम् जगत्मिथ्या’ के बाद यह उनका तीसरा व्यंग्य संग्रह है जो और अधिक विविधता के साथ पाठकों को सुलभ हो रहा है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

डॉ. शिवशरण कौशिक


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