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गबन

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 635
आईएसबीएन :9789350642740

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प्रेमचन्द्र का श्रेष्ठ उपन्यास गबन जिसमें उन्होंने पैसे के गबन की जो समस्या उठाई है वह कुछ बदले हुए रूप में प्रस्तुत है...

Gaban - A hindi Book by - Premchand गबन - प्रेमचंद

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आमुख

आपने जबसे होश संभाला आप प्रेमचंद को पढ़ते और प्यार करते आये हैं। बचपन से लेकर उम्र ढलने तक प्रेमचंद आपके संग-संग चलता रहा है। निश्चय ही आप से कितनों का ही प्रेमचंद साहित्य से गहरा परिचय भी होगा और मुझे विश्वास है कि प्रेमचंद के जीवन-परिचय की मोटी-मोटी बातें भी आप काफी कुछ जानते होंगे। जैसे कि उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नाम के एक गाँव में हुआ था और पिता मुंशी अजायब लाल एक डाकमुंशी थे। घर पर साधारण खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की मुंहताजी तो न थी, पर इतना शायद कभी न हो पाया कि उधर से निश्चिंत हुआ जा सके।

मगर यह बात तो बड़े लोगों की चिन्ता थी, जहाँ तक इस लड़के नवाब या धनपत की बात थी-यही उनके असल नाम थे, ‘प्रेमचंद’ तो लेखकीय उपनाम था, ठीक-ठीक अर्थों में छद्म नाम, जो उन्होंने ‘सोजे वतन’ नामक अपनी पुस्तिका के सरकार द्वारा जब्त करके जला दिये जाने के बाद 1910 में अपनाया था, ताकि उस गोरी सरकार की नौकरी में रहते हुए भी वह पूर्ववत् लिखते रह सकें और उन्हें फिर राजकोप का शिकार न बनना पड़े-उसका बचपन भी गाँव के और सब बच्चों की तरह खेलकूद में बीता, जो बचपन का अपना वरदान है।

छः सात साल की उम्र में, कायस्थ घरानों की पुरानी परंपरा के अनुसार, उसे भी पास ही लालगंज नाम के एक गांव में एक मौलवी साहब के पास जो पेशे से दर्जी थे, फारसी और उसी के साथ घलुए में उर्दू पढ़ने के लिए भेजा जाने लगा, पर उससे नवाब के खेल तमाशे में कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि मौलवी साहब काफी मौजी तबियत के ठीलमढाल आदमी थे, जिनका किस्सा नवाब ने आगे चलकर अपनी कहानी ‘चोरी’ में खूब रस ले-लेकर सुनाया है, पर वह जैसे ही ढीलमढाल रहे हों, वह शायद पढ़ाते अच्छा ही थे, क्योंकि लोग कहते हैं, मुंशी प्रेमचंद्र का फारसी पर अच्छा अधिकार था। फारसी भाषा का प्यार भी मौलवी साहब ने लड़के के मन में जरूर जगाया होगा, क्योंकि बी.ए. तक की परीक्षा में प्रेमचंद्र का एक विषय फारसी रहा।

थोड़ी-सी पढ़ाई और ढेरों खिलवाड़ और गांव की जिंदगी के अपनी मर्जी के साथ माँ और दादी के लाड़-प्यार में लिपटे हुए दिन बड़ी मस्ती में बीत रहे थे कि गोया आसमान से इस बच्चे का इतना सुख न देखा गया और उसी साल माँ ने बिस्तर पकड़ लिया। मुंशी अजायब लाल की ही तरह वह भी संग्रहणी की पुरानी मरीज थीं। इस बार का हमला जानलेवा साबित हुआ। नवाब तब सात साल का था और उसकी बड़ी सगी बहन सुग्गी पंद्रह की। उसी साल उसका ब्याह मिर्जापुर के पास लहौली नाम के गांव में हुआ था गौना भी हो गया था। मां के मरने के आठ-दस रोज पहले आयीं, बड़ी-बड़ी सेवा की। नवाब भी मां के सिरहाने बैठा पंखा झलता रहा और उसके चचेरे बड़े भाई बलदेव लाल, जो बीस साल के नौजवान थे और एक अंग्रेज के यहां टेनिस की गेंद उठा-उठाकर खिलाड़ी को देने पर नौकर थे, दवा-दारु के इंतजाम में लगे रहते थे, लेकिन सब व्यर्थ हुआ।

सात साल के नवाब को अकेला छोड़कर मां चल बसी और उसी दिन वह नवाब, जिसे मां पान के पत्ते की तरह फेरती रहती थी, देखते-देखते सयाना हो गया। और उसके सर पर तपता हुआ नीला आकाश था, नीचे जलती हुए भूरी धरती थी, पैरों में जूते न थे और न बदन पर साबित कपड़े, इसलिए, नहीं कि यकायक पैसे का टोटा पड़ गया था, बल्कि इस लिये कि इन सब पर नजर रखने वाली मां की आंखें मुँद गयी थीं। बाप यों भी कब मां की जगह ले पाता है, उस पर से वह काम के बोझ से दबे रहते। तबादलों का चक्कर अलग से। कभी बाँदा तो कभी बस्ती, तो कभी गोरखपुर तो कभी कानपुर, कभी इलाहाबाद तो कभी लखनऊ, कभी जीयनपुर तो कभी बड़हलगंज किसी एक जगह जम के न रहने पाते। बेटे को उनके संग-साथ की, दोस्ती की भी जरूरत हो सकती है, इसके लिए उनके पास न तो समझ थी और न समय। ‘कजाकी’ में मुंशीजी ने शायद अपनी ही बात बच्चे के मुँह से कहलायी है:

बाबूजी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम बहुत करना पड़ता था, इसी से बात-बात से पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी आता ही न था, वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे।

यानी की प्यार, दोस्ती संग-साथ नवाब को जो कुछ मिलता था, अपनी माँ से मिलता था। सो माँ अब नहीं रही। माँ जैसा ही प्यार कुछ-कुछ बड़ी बहन से मिलता था, सो वह अपने घर चली गयी। नबाब की दुनिया घर के नाते सूनी हो गयी। यह कमी कितनी गहरी, कितनी तड़पानेवाली रही होगी, जो सारी जिंदगी यह आदमी उससे उबर नहीं सका और उसने बार-बार ऐसे पात्रों की सृष्टि की, जिनकी माँ बचपन में ही मर गयी थी और फिर उनकी दुनिया सूनी हो गयी। :‘कर्मभूमि’ में अमरकान्त कहता है:

जिंदगी की वह उम्र, जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाये, तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़े मजबूत हो जाती हैं। उस वक्त खुराक न पाकर उसकी जिंदगी खुश्क हो जाती है। मेरी माँ का उसी जमाने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को खुराक नहीं मिली। वही भूख मेरी जिंदगी है।
और फिर दूसरी माँ के आ जाने का भी शायद वह अपना ही अनुभव है, जिसे मुंशी जी ने उसी अमरकान्त की कहानी सुनाते हुए यों व्यक्त किया है:

अमरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नयी माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया, लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया कि उसकी नयी माँ उसकी जिद और शरारतों को उस क्षमादृष्टि से नहीं देखती, जैसे उसकी माँ देखती थी। वह अपनी माँ का अकेला लाड़ला था। बड़ा जिद्दी, बड़ा नटखट। जो बात मुँह से निकल जाती, उसे पूरा करके ही छोड़ता। नयी माता जी बात-बात पर डाँटती थीं। यहां तक की उसे माता से द्वेष हो गया, जिस बात को वह मना करतीं, उसे अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया। पिता और पुत्र में स्नेह का बंधन न रहा।
यह मनःस्थिति ठीक वह थी, जिसमें इस लड़के नवाब के बहक जाने का पूरा सामान था, लेकिन प्रकृति जैसे अपने और तमाम जंगली-पौधों को, जिनकी सेवा-टहल के लिए कोई माली नहीं होता, नष्ट होने से बचाती है, उसी तरह इस आवारा छोकरे को भी बचाने का एक ढंग उसने निकाला, ऐसा ढंग जो उसकी नैसर्गिक प्रतिभा के अनुकूल था। आवारागर्दी को उसने बंद नहीं किया, बस एक हल्का सा मोड़ दे दिया, मोटी-मोटी तिलिस्म और ऐयारी की किताबों में, जिनका रस छन-छनकर उसके भीतर के किस्सागों को खुराक पहुँचाने लगा। इन किताबों में सबसे बढ़कर थी फैदी की तिलिस्मे होशरुबा, दो-दो हजार पन्नो की अठारह जिल्दें। तेरह साल के इस लड़के ने उसको तो पढ़ ही डाला और भी बहुत कुछ पढ़ डाला, जैसे रेनाल्ड की ‘मिस्ट्रीज ऑफ द कोर्ट ऑफ लंडन’ की पचीसों किताबों के उर्दू तुर्जमे, मौलाना सज्जाद हुसैन की हास्य-कृतियां मिर्जा रुसवा और रतननाथ सरशार के ढेरों किस्से। कोई पूछे कि इतनी किताबें इस लड़के को मिलती कहां थीं।

रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले-लेकर पड़ता था। मगर दूकान पर सारे दिन तो बैठ नहीं सकता था, इसलिए मैं उसकी दूकान में अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और उसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे।
यह गोरखपुर की बात है, जहाँ उन दिनों वह अपने पिता और दूसरी माँ के साथ रहता था और रावत पाठशाला में पढ़ता था, जहाँ उसने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की।

कहने की जरूरत नहीं कि जहाँ ऐसी अच्छी-अच्छी किताबों की पढ़ाई दिन-रात चल रही हो, वहां स्कूल की नीरस किताबों को कौन देखता होगा और क्यों देखे, पर हमारे कथा-साहित्य की दृष्टि से जो हुआ, अच्छा हुआ क्योंकि सच्चे अर्थों में इन्हीं दिनों इन्हीं सब तैयारियों में से होकर उस अमर कथाकार प्रेमचंद का जन्म हुआ, जो आगे चलकर उर्दू और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में आधुनिक कहानी का जन्मदाता बना और आज दुनिया से चले जाने के पचास बरस बाद भी अपने उसी सर्वोच्च शिखर पर बैठा है और जिसने दुनिया की ऐसी लगभग तीन सौ कहानियां और चौदह छोटे-बड़े उपन्यास दिये, जिन्हें एक बार उठा लेने पर फिर छोड़ा नहीं जा सकता, जैसा कि आप सभी उनके असंख्य पाठकों का नित्य अनुभव है। स्वाभाविक ही है कि प्रेमचंद्र की गिनती आज दुनिया के महान लेखकों में होती है और उनके साहित्य का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में ही नहीं और भी पचास भषाओं में किया जा चुका है। रूसी, चीनी, जैसी किन्हीं-किन्हीं भाषाओं में तो शायद संपूर्ण प्रेमचंद साहित्य।

लेकिन वह लेखक कितना ही बड़ा क्यों न हो, आदमी बहुत ही सीधा-साधा था, नितान्त सरल, निश्छल, विनयशील और वैसी ही सीधी-सादी उसकी जीवन-शैली थी। सोलहों आने वैसी ही, जैसी किसी भी दफ्तर के बाबू या स्कूल के मास्टर की होती है सवेरे नौ-दस बजे घर से सीधे अपने काम पर और पांच बजे सीधे अपने घर। अपने ही जैसे दो-चार संगी साथियों और अपने परिवार की छोटी-सी दुनिया ही उसकी कुल दुनिया है, जिसमें घर का बाजार-हाट भी है, बच्चों की सर्दी-खांसी भी है और परिवार की दांताकिलकिल भी है और फिर उन सबके बीच समर्पित भाव से किया गया इतना सब अजस्र लेखन है, जो सचमुच आश्चर्यजनक लगता है, जब इस बात की ओर ध्यान जाता है कि इतना सब जो लिखा गया है, वह लगभग सारी उम्र सात-आठ घंटे की एक न एक नौकरी करते लिखा गया है। मजे से पूरे समय लिख सके, इतनी भी सुविधा बेचारे को न जुट पायी। शुरू से लेकर आखिर तक अभाव और जीवन-संघर्ष की एक ही गाथा।

वह अभी मुश्किल से पन्द्रह का था कि घरवालों ने उसका विवाह कर दिया, जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा। सोलह का होते होते पिता जी गिरस्ती का सब बोझ लड़के पर डालकर परलोक सिधारे। फलतः उस वर्ष मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं दे पाया। अगले साल परीक्षा में बैठा। द्वितीय श्रेणी में पास तो हो गया, लेकिन कालेज में प्रवेश न मिल पाया, पर हाँ, संयोग से बनारस के पास ही चुनार के एक स्कूल में मास्टरी मिल गयी और 1899 से स्कूल की मास्टरी का जो सिलसिला चला, वह पूरे बाईस साल यानी 1921 तक चला, जबकि मुंशी जी ने गांधी जी के आह्वान पर गोरखपुर के सरकारी स्कूल से इस्तीफा दिया। नौकरी करते हुए ही उन्होंने इंटर और बी.ए. पास किया।

स्कूलमास्टरी के इस लंबे सिलसिले में प्रेमचंद्र को घाट-घाट का पानी पीना पड़ा कुछ-कुछ बरस में यहाँ वहाँ तबादले होते रहे। प्रतापगढ़ से इलाहाबाद से कानपुर से हमीरपुर से बस्ती से गोरखपुर। इन सब स्थान-परिवर्तनों में शरीर को कष्ट तो हुआ ही होगा और सच तो यह है कि इसी जगह-जगह के पानी ने उन्हें पेचिश की दायमी बीमारी दे दी। जिससे उन्हें फिर कभी छुटकारा नहीं मिला, लेकिन कभी कभी लगता है कि ये कुछ-कुछ बरसों में हवा-पानी का बदलना, नये नये लोगों के संपर्क में आना, नयी-नयी जीवन परिस्थियों में से होकर गुजरना, कभी घोड़े और कभी बैलगाड़ी पर गांव-गांव घूमते हुए प्राइमरी स्कूलों का मुआयना करने के सिलसिले में अपने देश के जनजीवन को गहराई में पैठाकर देखना, नयी-नयी सामाजिक समस्याओं और उनके नये-नये रूपों से रूबरू होना उनके लिए रचनाकार के नाते एक बहुत बड़ा वरदान भी था। दूसरे किसी आदमी को यह दर-दर भटकना शायद भटका भी सकता था, बिखेर भी सकता था, पर मुंशी जी का अपनी साहित्य-सर्जना के प्रति जैसा अनुशासित एकचित समर्पण आरंभ से ही था, यह अनुभव संपदा निश्चय ही उनके लिए अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हुई होगी।

जीवन-परिचय के संदर्भ में एक बात जो यथास्थान नहीं आ पायी, वह यह है कि प्रेमचंद ने शिवरात्रि के दिन 1906 में, उन्हीं दिनों जब वह शायद अपना छोटा उपन्यास ‘प्रेमा’ (ऊर्दू में ‘हमखुर्मा हमसवाब’) हिन्दी में लिख रहे होंगे (उसका प्रकाशन 1907 में हुआ) जिसका नायक एक विधवा लड़की से विवाह करता है, उन्होंने स्वयं एक विधवा लड़की शिवरानी देवी से विवाह किया, जो कालान्तर में उनके छः बच्चों की मां बनी, जिनमें से तीन अभी जीवित हैं।

शिवरानी देवी बहुत सच्ची, अक्खड़, निडर अहंकार की सीमा तक स्वाभिमानी, दबंग शासनप्रिय महिला थीं,। प्रेमचंद खुद जैसे कोमल स्वभाव के आदमी थे, उन्हें शायद ऐसी ही जीवन-सहचरी की जरूरत थी और शायद इसीलिए प्रेमचंद के जीवन में उनकी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जब जितना मिला उतने में घर चलाया, पारिवारिक चिन्ताओं और रगड़ों झगड़ों से उन्हें मुक्त किया-और बराबर उनके साथ कंधे से कंधा लगाकर उनकी शक्ति के एक स्तंभ के रूप में खड़ी रहीं। 8 फरवरी, 1921 को गांधी ने गोरखपुर की एक सभा में, जिसमें प्रेमचंद भी उपस्थित थे, सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के लिए लोगों का आवाहन किया। प्रेमचंद के मन में भी कुछ संकल्प बना। घर आये, पत्नी से कहा। पांच दिन संशय में गुजरे। इक्कीस साल की जमी-जमायी नौकरी छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मुंशी जी की सेहत खराब, घर में दो छोटे-छोटे बच्चे और तीसरा होने वाला, आगे परिवार कैसे पलेगा इसका कुछ ठौर-ठिकाना नहीं पर छठे दिन शिवरानी देवी ने हिम्मत बटोरकर हरी झंडी दिखा दी, अगले दिन मुंशी जी ने इस्तीफा दाखिल कर दिया और आठवें दिन 16 फरवरी 1921 को मुंशी जी अपनी इतनी पुरानी सरकारी नौकरी को लात मारकर बाहर आ गये।

उस रोज मुंशी जी ने अपना सरकारी क्वाटर्र छोड़ दिया। कुछ रोज बाद यह योजना बनी की महावीर पोद्दार के साझे में एक चर्खे की दूकान शहर में खोली जाये। आखिर दूकान खुली, दस कर्धे लगाये गये, लेकिन दूकान चलाना, भले वह चर्खे की दूकान हो, मुंशी जी के बस का रोग न था। उसी तरह वह देश सेवा के लिए मुंशीजी बने ही न थे। उनका माध्यम तो साहित्य है, सो लिखाई जोर से चल रही है। स्वराज्य के संदेश का प्रचार करने करने वाले लेख और सीधी देश प्रेम की कहानियाँ, जिनमें किसी तरह का बनाव-सिंगार नहीं है और उनके लिखते समय मुंशीजी को इस बात की ही चिन्ता है कि उनकी गिनती स्थायी साहित्य में होगी या नहीं।

गांधी जी ने स्वराज्य की लड़ाई छेड़ रक्खी है। हर वह आदमी जिसे अपने देश से प्यार है, इस समय स्वराज्य का सिपाही है। कोई मैदान में जाकर लाठी खाता है कोई जेल की राह पकड़ता है, मुंशी जी अपना कलम देकर मैदान में उतरते हैं। इसी ख्याल से उन्होंने गोरखपुर से निकलने वाले एक उर्दू अखबार ‘तहकीक’ और एक हिन्दी अखबार ‘स्वदेश’ से बाकायदा जुड़ने और उनमें नियमित रूप से बराबर लिखने की कुछ शक्ल बनानी चाही, पर वह नहीं बनी, तो मुंशी जी बनारस आ गये, फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के चार महीने के बाद मुंशीजी मारवाड़ी विद्यालय, कानपुर पहुँच गये, लेकिन अपने यहाँ जो प्राइवेट स्कूलों का हाल है, स्कूल के हेडमास्टर प्रेमचंद की स्कूल के मैनेजर महाशय काशीनाथ से नहीं बनी और साल पूरा नहीं होने पाया कि मुंशी जी ने बहुत तंग आकर 22 फरवरी को वहां से इस्तीफा दे दिया और फिर बनारस पहुँचे गये।

बनारस में उन्होंने संपूर्णनंद के जेल चले जाने पर कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला और फिर वहां से अलग होकर काशी विद्यापीठ पहुँच गये, जहां उन्हें स्कूल का हेडमास्टर बना दिया गया। अपना प्रेस खोलने की धुन भी बरसों से मन में समायी थी, उसकी तैयारी साथ साथ चलती रही। कुछ ही महीनों बाद जब स्कूल बंद कर दिया गया, तो मुंशी जी पूरे मन प्राण से प्रेस की तैयारी में लग गये-जो अन्नतः खुला तो मगर गले का ढोल बनकर रह गया, जो न तो बजाये बजता था और न गले से निकालकर फेंका जाता था।

आखिर लखनऊ से ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक की कुर्सी संभालने का प्रस्ताव मिलने पर उसे स्वीकार करने के सिवा गति न थी, क्योंकि अपना प्रेस रोजी-रोटी देना तो दूर रहा बराबर घाटे पर घाटा दिये जा रहा था। फिर छः बरस लखनऊ रह गये और वहीं रहते-रहते 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया। उसके कुछ महीने पहले उन्होंने अपनी बेटी की शादी मध्यप्रदेश के सागर जिले की तहसील देवरी के एक अच्छे खाते-पीते देशसेवी घराने में कर दी थी। 1932 के आरंभ में लखनऊ का आबदाना खत्म हुआ और मुंशी जी फिर बनारस आ गये। ‘हंस’ तो निकल ही रहा था, ‘जागरण’ नामक एक साप्ताहिक और निकाला। वह भी बहुत अच्छा था, लेकिन अच्छा पत्र निकालना और उसे चला पाना दो बिल्कुल अलग बातें हैं।

दोनों पत्रों के कारण जब काफी कर्जा सिर पर हो गया तब उसे सिर से उतारने के लिए मोहन भवनानी के निमंत्रण पर उसके अजंता सिनेटोन में कहानी-लेखक की नौकरी करने बंबई पहुंचे। ‘मिल’ या मजदूर के नाम से उन्होंने एक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई का और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। बंबई टाकीज तब हिमांशु राय ने शुरू की थी। उन्होंने मुंशी जी को बहुत रोकना चाहा पर मुंशीजी किसी तरह नहीं रुके। यहां तक कि बनारस से ही फिल्म की कहानियां भेजते रहने का प्रस्ताव भी नहीं स्वीकार किया।

बंबई में सेहत और भी काफी टूट चुकी थी, बनारस लौटने के कुछ ही महीने बाद बीमार पड़े और काफी दिन बीमारी भुगतने के बाद 8 अक्टूबर, 1936 को चल बसे। यही उनका कुल जीवन-परिचय है, जिसमें नाटकीय तत्व तो छोड़ दीजिये, कोई विशेष कथा-तत्व भी नहीं है। तभी तो उन्होंने अपने बारे में लिखा था:

मेरा जीवन एक सपाट समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं तो गढे तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों, और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो निराशा ही होगी।

और सच तो यह है कि अगर ऐसी कुछ बात ही न आ पड़ती, तो शायद उस व्यक्ति ने अपने बारे में इतना भी न लिखा होता। कोई पूछता तो वह शायद कह देता, मेरी जिन्दगी में ऐसा है ही क्या जो मैं किसी को सुनाऊं। बिल्कुल सीधी सपाट जिन्दगी है, जैसे देश के और करोड़ों लोग जीते हैं। एक सीधा-सादा, गृहस्थी के पचड़ों में फंसा हुआ तंगदस्त मुदर्रिस, जो सारी जिन्दगी कलम घिसता रहा, इस उम्मीद में कि कुछ आसूदा हो सकेगा, मगर न हो सका। उसमें है ही क्या जो मैं किसी को जड़ाऊँ। मैं तो नदी किनारे खड़ा हुआ नरकूल हूँ। हवा के थपेड़ों से मेरे अन्दर भी आवाज पैदा हो जाती है, बस इतनी सी बात है। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है, उन हवाओं का है, जो मेरे भीतर बजी। और जो हवाएँ उनके भीतर बजीं उनका साहित्य है। भारतीय जनता के दुःख-सुख का साहित्य, हमारे- आपके दु:ख-सुख का साहित्य, जिसे आप इसी कारण इतना प्यार करते हैं।


अमृत राय

[1]



बरसात के दिन हैं, सावन का महीना। आकाश में सुनहरी घटाएँ छायी हुई हैं। रह-रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हो रहा है, शाम हो गयी। आमों के बाग में झूला पड़ा है। लड़कियाँ भी झूल रही हैं और उनकी माताएं भी। दो-चार झूल रही हैं, दो-चार झुला रही हैं। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा। इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानों चिन्ताओं को ह्रदय से धो डालती हैं। मानों मुरझाये हुए मन को भी हरा कर देती हैं। सबके दिल उमगों से भरे हुए हैं। धानी साड़ियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।

इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया। उसे देखते ही झूला बन्द हो गया। छोटी-बड़ी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना सन्दूक खोला और चमकती-दमकती चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, खूबसूरत गुड़ियाँ और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज। एक बड़ी-बड़ी आँखोंवाली बालिका ने वह चीज पसन्द की, जो चमकती हुई चीजों में सबसे सुन्दर थी। वह फिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। माँ से बोली-अम्मा, मैं यह हार लूँगी।

माँ ने बिसाती से पूछा-बाबा, यह हार कितने का है ?
बिसाती ने हार को रुमाल से पोंछते हुए कहा-खरीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।
माता ने कहा-यह तो बड़ा महँगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी। बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा-बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जायेगा।
माता के हृदय पर सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।
बालिका के आनन्द की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनन्द न होता। उसे पहनकर वह सारे गाँव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-सम्पत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था।
लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।


[2]




महाशय दीनदयाल प्रयाग के एक छोटे से गाँव में रहते थे। वह किसान न थे; पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे; पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे; पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गाँव पर उन्हीं की धाक थी। उसके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसे। वेतन कुल पाँच रूपये पाते थे, जो उनके तम्बाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता-तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती-‘बड़ी दूर खेलने गये हैं।’ कहते हैं मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अन्दर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत सँभलकर चलते थे। फूँक-फूँककर पाँव रखते; दूध के जले थे, छाछ भी फूँक-फूँककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलम्ब !

दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई-न-कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियाँ और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे; इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गाँव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता तो, वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।

एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये। मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गयी।
जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली-बाबूजी, मुझे भी ऐसी ही हार ला दीजिए।
दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा-ला दूँगा, बेटी।
‘‘कब ला दीजियेगा ?’’
‘‘बहुत जल्द !’’

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा-अम्माजी, मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।
माँ-वह तो बहुत रुपयों का बनेगा बेटी।
जालपा-तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं ?
माँ ने मुस्कराकर कहा- तेरे लिए तेरी ससुराल से आयेगा।
यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी। जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें सन्देह था।

जालपा लजाकर भाग गयी; पर यह शब्द उसके ह्रदय में अंकित हो गये। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आयेगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे। तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहाँ से आयेगी।
लेकिन ससुराल से न आये तो ! उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो ? उसने सोचा-तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी ? अवश्य दे देंगी।
इस तरह हँसते-खेलते सात वर्ष कट गये। और वह दिन भी आ गया, अब उसकी चिर-संचित अभिलाषा पूरी होगी।


[3]



मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकरी करते थे और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते; पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हों; पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आँखों से इसके कुफल देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को सन्तान से हाथ धोते, किसी को कुव्यसनों के पंजें में फँसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ़ धारणा हो गयी थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी नहीं भूलते।

इस जमाने में पचास रुपये की भगत ही क्या। पाँच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़े को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती; पर दयानाथ विचलित न होते थे। बड़ा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया-मैं तुम्हारी डिगरी के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरुषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो; लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से वह बिल्कुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर सपाटे करता और माँ और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर माँग लिया और शाम को हवा खाने निकल गये। किसी का पम्प-शू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बाँध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में। दस मित्रों ने एक एक कपड़ा बनवा लिया, तो दस शूट बदलने का साधन हो गया।

सहकारिता का यह बिलकुल नया उपयोग था इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसन्द किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रुपये थे और एक नये परिवार का भार उठाने की हिम्मत; पर रामेश्वरी ने त्रिया-हठ से काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरुष को झुकना पड़ा। रामेश्वरी बरसों से पुत्र-बधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएँ बनकर आयीं, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता। कुछ- कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आये। दीनदयाल ने सन्देश भेजा, तो उसको आँखें सी मिल गयीं। अगर कहीं शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिनों की राह देखनी पड़े। कोई यहाँ क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद। लड़के पर कौन रीझता है। लोग तो धन देखते हैं; इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।


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