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जीवनी/आत्मकथा >> पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान

दामोदर लाल गर्ग

प्रकाशक : साहित्यागार प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6374
आईएसबीएन :81-7711-153-1

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महाराजा पृथ्वीराज के व्यक्तित्व और कृतित्व को कुछ नवीन विचार और खोजों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास...

Bharat Ka Antim Hindu Samrat Prithaviraj Chauhan - A hindi book by Damodar Lal Garg

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राजपूताने के वीरान्तक योद्धाओं में बीठली गढ़ का लाडला, सोमेश्वर-सुत शाकम्भरीश्वर महाराजाधिराज चौहान नरेश सूर्यकुल भूषण पृथ्वीराज चौहान का नाम भारतीय इतिहास में उसी प्रकार अंकित है जैसे नभमंडल में शशिकर ! महाराजा पृथ्वीराज ने अल्प जीवनकाल (मई 1166-1192) में दुर्वेध कार्यों से अपना नाम ऐसा आख्यात कर दिया जो आज भी जनश्रुति बना हुआ है। यह शासक अपने व्यक्तित्व का धनी कृत्यत्वि का योद्धा था अर्थात् जो कहता उसे लाख विघ्न आने पर भी अवश्य करता। देवगिरि का संग्राम इसका ज्वलन्त उदाहरण है। यह सच्चे अर्थों में माँ भारती का सेवक और स्वाधीनता का पुरोधा था।

महाराजा पृथ्वीराज ने कभी विरोधियों और विदेशियों के सामने मस्तक नहीं झुकाया बल्कि क्षत्रियोचित स्वभाव के अनुसार सदैव रणक्षेत्र को उद्धत रहता। बनाफर वंश के लोकप्रसिद्ध आल्हा उदयसिंह को यदि किसी ने धूल चटाई तो वह था अजयमेरु गढ़ का पृथ्वीराज चौहान। कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर कन्नौज मंडल के सभी सामन्त और सरदारों के समक्ष राजा जयचन्द का मानमर्दन करने वाला यदि कोई वीर था तो वह केवल पृथ्वीराज चौहान था।

महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने जहाँ राजपूताने का गौरव बढ़ाया वहीं भारतीय आदर्श युद्ध नीति को स्थापित करते हुए युद्ध के मैदान में घायल पड़े गौरी को मारा नहीं।

ऐसे अनेक तथ्यों के साथ-संयोगिता एक योगिनी थी, क्या जयचन्द के समय में स्वयंवर जैसी प्रथा रही, गाँव की अनपढ़ श्यामली महाराज की सशक्त प्रहरी, नृत्यांगना कर्णाटी ने संयोगिता को किस प्रकार पृथ्वीराज की ओर आकर्षित किया एवं भावी युद्ध की योजना बनवाई आदि के बारे में खोजपूर्ण सामग्री आप इस ग्रन्थ के अगले पृष्ठों में पढ़ सकेंगे।

दो शब्द

भारतीय शौर्य और संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का एक लम्बा इतिहास है, उसमें भी राजपूताना की भूमि कोलार से कम नहीं, जिनके कण-कण ने अपने शौर्य, त्याग, बलिदान से सम्पूर्ण इतिहास को प्रभावित किया, और उनमें से एक कीर्ति स्तम्भ है शाकम्भरीश्वर महाराधिराज पृथ्वीराज चौहान।

राजपूताने की आन-बान विश्व आख्यात रही, जिसकी रक्षार्थ अपने प्राणों तक को न्यौछावर करने के पग-पग पर उदाहरण मिलते हैं जो यहाँ के सिद्धान्तों की एक स्वाभाविक कसौटी रही। इनकी यशोगाथाओं ने जहाँ नये-नये आयामों को संस्पर्श किया वहीं भौतिक और लौकिक रूप से सदैव ही हानियों ने जहाँ नये-नये आयामों को संस्पर्श किया वहीं भौतिक और लौकिक रूप से सदैव ही हानियों को वरण करते रहे। चौहान सम्राट पृथ्वीराज उक्त संकल्प के जीते संकल्प के जीते-जागते उदाहरण रहे।

साम्भेश्वर पृथ्वीराज चौहान के अदम्य साहस और बलिदान पर ढेरों ग्रन्थों की रचना हो चुकी है जो उसकी महानता की द्योतक हैं। हमने भी उस युगपुरुष के व्यक्तित्व और कृतित्व को कुछ नवीन विचार और खोजों के साथ प्रस्तुत करने का साहस किया है।

विचारणीय छोटी सी उम्र में काँटों भरा ताज, उस पर भी पारिवारिक विद्रोह, द्वितीय उस काल की विस्तारवादी राजनीति, जिसने राजपूतों को कभी संगठित नहीं होने दिया, ऐसी विषम परिस्थितियों में सत्ता को संभालते, सैनिक अभियान छेड़ उनको पराभूत करना भी केवल पृथ्वीराज जैसे सशक्त योद्धा का ही कृत्य हो सकता है।

चौहान नरेश पृथ्वीराज ने कभी छल-कपट अथवा विश्वासघात से विरोधी पर आक्रमण नहीं किया और न ही किसी के समक्ष घुटने ही टिकाये बल्कि विदेशी आक्रान्ताओं को देश से खदेड़ने का अन्त तक प्रयास किया। कहने का तात्पर्य है कि इस वीर पुरुष ने देश की रक्षार्थ अपने प्राण उत्सर्ग करना उत्तम समझा परन्तु आक्रान्ताओं से हाथ कभी नहीं मिलाया। इस प्रकार पृथ्वीराज सच्चे रूप में एक युगावतारी पुरुष रहा।

महाराजा पृथ्वीराज चौहान से संबंधित सभी तथ्यों को यथास्थान प्रस्तुत करने के साथ-साथ उन वंशों का भी यहाँ वर्णन किया गया है जिनसे इसका सीधा टकराव हुआ, जैसे- गहड़वाल और गौरवंश। साथ ही उन दोनों नायिकाओं को भी परिशिष्ट में विशेष स्थान दिया गया है जिन्होंने पर्दे में रहकर पृथ्वीराज की सुरक्षा, सहायता और जासूसी भी की।

इस ग्रन्थ में चौहान वंश के कुछ अभिलेखों की पट्टिकायें देकर इसे जहाँ सशक्त बनाने का प्रयास किया गया है वहीं राजपूताने के चौहानों की सम्पूर्ण वंशवाली देकर तथ्यात्मक बनाने का श्रम किया है। तराईन के युद्ध की समीक्षा के साथ द्वितीय युद्ध के परिणामों के साथ सिरसागढ़ के मैदान में स्वतंत्रता के पुरोधा का सूर्यास्त भी दृश्यवत किया है।

अन्त में प्रतीत होता है कि चौहान नरेश पृथ्वीराज के अनेकों भूलें कीं जिन्हें हम उसकी अपरिपक्व अवस्था और कुशल राजनीति का अभाव कह सकते हैं। यदि इस व्यक्ति को कुशल राजनीतिज्ञ मार्गदर्शक अथवा किसी प्रभावशाली शासक का सहयोग मिला होता तो विदेशियों की सत्ता भारत में कभी भी कायम नहीं होती।

अन्त में इतने बड़े प्रख्यात योद्धा, युगावतारी, स्वतंत्रता के पोषक व्यक्ति के चरित्र पर कुछ लिखना, मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए बहुत ही जटिल कार्य था परन्तु गढ़ बीठली के विशाल भव्य राजप्रसादों में खिलखिलाते, मचलते और रूठते बचपन ने मुझे असीम साहस दिया इसलिए सर्वप्रथम मैं युगपुरुष की पावन आत्मा को हृदय से नमन करता हूँ। साथ ही श्री रमेश जी वर्मा, प्रो. साहित्यागार, जयपुर का विशेष आभारी हूँ जिनकी प्रेरणा और उत्साहित करने की भावनाओं से गिरि सम कार्य को सरलता से पूर्ण कर सका।

दामोदर लाल गर्ग

भूमिका

भारतीय वाङ्मय में इस तथ्य के ठोस प्रमाण हैं कि जब से भारत भूमि पर मानव विकास की धारा प्रवाहित होने लगी उसी काल से श्रम और सुरक्षा का महत्त्व बढ़ा, व्यवस्था के नाम पर शासन जैसे शब्द की उत्पत्ति हुई। शासन करने वालों को कालान्तर में राजा-महाराजा और महाराजाधिराज जैसे प्रतिष्ठित पदों से अलंकृत किया जाने लगा।

वैदिक शास्त्र-पुराणों की मान्यता तो यहाँ तक रही कि राजा ईश्वर का अवतार होता है इसीलिए तत्कालीन समाज में राजा को ही आदर्श का श्रेष्ठतम स्रोत्र स्वीकारा गया। राजा में अन्य लोगों के विपरीत कुछ ऐसे गुण (साहसी, उत्साही, धैर्यवान, वैभववान एवं उसमें समाज की सुरक्षा और संरक्षण की क्षमता) दर्शाये गये जिससे स्वत: सम्मान और श्रद्धा का पात्र बन जाया करता था इसलिए ही प्रजा उसे सर्वोच्च सिंहासन पर बैठाते हुए माईबाप और भगवान के तुल्य पूजती थी1।

भारतवर्ष में आरम्भ से राजा-महाराजा अथवा सम्राट ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी को दिग्विजय कर उसे दान करने वाले भी हुए जिन्हें पौराणिक काल में चक्रवर्ती सम्राट के नाम से प्रख्यातित किया गया तथा विद्वानों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर हजारों ग्रन्थों की रचनाएँ कीं। ऐसी व्यवस्थाएँ अनादिकाल से महाभारत काल तक विस्तृत रूप से पढ़ने को मिलती हैं2 ।

महाभारत काल के बाद भारतीय शासन व्यवस्था में एक आश्चर्यप्रद भूकम्प आया। जैसे-जैसे एकछत्र राज्य करने वाले वंश का पारस्परिक युद्धों के कारण नाश होने लगा, वैसे-वैसे ही भारत भू पर नये-नये राजवंशों का प्रभाव प्रसारित होने लगा। यादवों के बाद नागवंश, शिशुनाग वंश, नन्दवंश तथा मौर्य जैसे शक्तिशाली वंशों का उदय हुआ। मौर्य राजवंश का प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ई. पू. में भारतीय सिंहासन पर आसीन

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1. श्रीमद्भागवत, रघुवंश पुराण, वाल्मीकि रामायण आदि
2. महाभारत, शुकसागर, अग्निपुराण।



हुआ। इसी वंश का अशोक 274 ई. पूर्व में गद्दी पर बैठा। यह व्यक्ति भारतीय इतिहास में अशोक महान् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अशोक महान एक ऐसा सम्राट हुआ जिसने बगैर वाहिनी के प्रतत राष्ट्र को शान्ति और सुरक्षित रखते हुए वैभवशाली बनाया, ऐसा उदाहरण शायद ही संसार के किसी इतिहास में मिले। यह सम्राट स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी होने के उपरान्त भी सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था। इसकी सहिष्णुता का सबसे अच्छा उदाहरण इसके एक स्तम्भ पर पढ़ने को मिलता है। जिस पर उत्कीर्ण है ‘‘जो अपने धर्म का आदर करता है और अकारण ही दूसरे धर्म की आलोचना करता है, वह वास्तव में अपने आचरण द्वारा ही स्वयं के धर्म को बड़ी हानि पहुँचाता है, ऐसा व्यक्ति अपने धर्म के तत्त्व को समझता ही नहीं।3’’ अशोक महान् के आदर्श भारतीय संस्कृति की एक धरोहर हैं। आज भी उसका अशोक चक्र स्तम्भ भारतीय प्रजातंत्र में गौरव का स्थान प्राप्त किये हुए है। यह अपने समय का एक महान् चक्रवर्ती सम्राट हुआ।

अशोक महान् के पश्चात् भारतीय राजनीति में कुछ समय के वास्ते शुंग और कुषाण वंशों का दखल हुआ परन्तु ये दोनों वंश राजनीति के क्षितिज पर ज्यादा समय तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सके। सन् 271 में गुप्त राजवंश का प्रभात हुआ। मौर्यवंश के बाद भारतीय इतिहास में यह दूसरा शक्तिशाली और दीर्घकालीन वंश हुआ जिसने विस्तृत भारतवर्ष को एक ध्वज के नीचे ही नहीं रखा बल्कि समूचे देश को वैभवशाली बनाते भारतीय संस्कृति और सभ्यता को विदेशों में भी प्रसारित कराया।
इस वंश के ज्यादातर सम्राट प्रभावशाली, अश्वमेध यज्ञों के करने वाले एवं राजा कर्ण के समान महादनी भी हुए।

इस वंश के बाद थानेदार अथवा कान्यकुब्ज (कन्नौज) का राजवंश, जिसे इतिहास में वर्द्धनवंश के नाम से पुकारा गया है, भारतीय राजनीति के आभामण्डल में तेजी से उभरा। इस राजवंश में हर्षवर्द्धन जैसे शूरवीर, दूरदर्शी, उदार एवं हिन्दू संस्कृति के पोषक सम्राट हुए। इतिहास बतलाता है कि इस सम्राट के नाम से मातंग अपने इरादे ही नहीं बदल लेते थे बल्कि प्राणों की खातिर गुफाओं की ओर पलायन कर जाते थे।
सम्राट हर्षवर्द्धन के उत्तराधिकारी इतने सबल और प्रभावशाली नहीं हुए कि विप्लव काल में सम्पूर्ण साम्राज्य को संरक्षण प्रदान कर सकें। इनकी कमजोरियों का परिणाम रहा कि देश में छोटे-छोटे क्षत्रपों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करके राजा-महाराज जैसे खिताबों से अलंकृत करना आरम्भ कर दिया, जिसका दूरगामी प्रभाव यह पड़ा जो कि राष्ट्र अभी तक एक शासन के अन्तर्गत सुरक्षित था वह अब विभाजित होकर टुकड़ों में बँटने लगा। इसी सन्दर्भ में सपादलक्ष के वासुदेव ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करते हुए

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3. न्यू हिस्ट्री ऑफ इण्डिया (हिन्दी संस्करण) 1944, पृष्ठ 75, ईश्वरी प्रसाद



चौहान वंश की नींव डाली और चन्ददेव ने कान्यकुब्ज क्षेत्र को अधिगृहीत करते गहड़वाल वंश की स्थापना कर दी। इन्हीं का अनुसरण करते हुए देश के अन्य भागों में भी कहीं तोमर तो कहीं चालुक्य, राष्ट्रकूट, चन्देल, परमार तथा सोलंकियों के अन्य राजवंशों शाखाओं ने विस्तार करना आरम्भ कर दिया। इस समय तक भी भारतवर्ष में सम्राट जैसा ख्यातिप्रद पद विद्यमान रहा जो तोमरों के बाद अन्त में चौहानों को प्राप्त हुआ।

विभिन्न क्षत्रपों और राजवंशों के उदय हो जाने के कारण, जो कभी भारतवर्ष हिन्दू राष्ट्र के नाम पर एक सिंहासन के नियंत्रण में बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, सुमात्रा, भूटान तथा चीन की सीमा तक अपनी धाक जमाये हुए था वह कालान्तर में टुकड़ों में विभाजित होता चला गया। साथ ही, इन क्षत्रपों ने सुरा और सुन्दरी के साथ विनाश रूपी युद्धों को नित्य के मनोरंजन का साधन बना लिया जिसके परिणाम में छोटी-छोटी बातों और राज्य-बिस्तार की नीतियों को लेकर इनमें नित्य ही युद्धों की चौपड़ बिछाई जाती रही। ऐसी व्यवस्थाओं से इनकी परस्पर शक्ति ही क्षीण नहीं हुई बल्कि पारस्परिक दूरियाँ भी गहरी होती चली गईं, जिसकी वजह से ये लोग कभी संगठित नहीं हो सके और न ही मिलकर किसी आक्रमणकारी का साहस और निष्ठा से मुकाबला कर पाये। इनके युद्धों को देख कर एक बार तो ऐसा प्रतीत होता था मानो ये लोग स्वयं के वास्ते ही युद्ध कर रहे हों। बस यही विभाजित संकीर्णता भारतीय राजवंशों के पतन का कारण बनी।

भारतीय शासकों की जगजाहिर फूट ने ही विदेशी हमलावरों को आमंत्रित किया और ऐसे भी अनेक अवसर आये जब इन्हीं क्षत्रपों ने एक-दूसरे को नीचा दिखलाने के वास्ते विदेशी शक्तियों को निमंत्रण देकर बुलाया। सच्चाई यह है कि इन लोगों में राष्ट्रीय भावना के स्थान पर क्षेत्रीय संकीर्णता और जातिगत अहम इस कदर घर कर चुका था कि इन्हें स्वयं पर पड़ने वाली मुसीबत से खुद को ही लोहा लेना पड़ता था। अर्थात् ये लोग अकेले-अकेले ही लड़ते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि अहम धारी छोटे-बड़े राजवंशों का पतन होता गया और विदेशी सल्तनत की नींव भारत में मजबूत होती चली गईं।

जब मुहम्मद गौरी भारत में आया उस समय उत्तर भारत में दो महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ अपने-अपने वर्चस्व को कायम रखने में स्वार्थरत थीं जिसमें एक शाकम्भरीपति पृथ्वीराज चौहान जो अजमेर का शासक और दिल्ली का सम्राट कहलाता था। और दूसरी तरफ था गहड़वाल वंश का कान्यकुब्ज नरेश जयचन्द जो उत्तरी भारत के विस्तृत राज्य का अधिपति था। इन दोनों में भी शत्रुता की खाई इतनी गहरी थी जो उस समय लोक प्रसिद्ध रही।

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