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नारी विमर्श >> पंछी उड़ा आकाश

पंछी उड़ा आकाश

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6383
आईएसबीएन :81-8113-010-3

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तार मात्र है।...

Panchi Uda Aakash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पंछी उड़ा आकाश
1

‘‘यह मकान आपने खरीदा है ?’’
इस प्रश्न के साथ ही बिना-बुलाए वह भद्र पुरुष मेरे मकान के बरामदे पर चढ़ आए।
खिचड़ी बाल, छोटी-छोटी दाढ़ी, मांसहीन खिंचा हुआ चेहरा और शरीर का रंग तांबई; देखने में परिष्कृत नहीं लग रहे थे।
पहनावा ? वही भी मनोरम नहीं था।
बंद गले का कोट, नीचे अधमैली घुटनों तक धोती और मैली-कुचैली जीर्ण विद्यासागरी चप्पलें। उस विचित्र वेशभूषा में भद्र पुरुष अच्छे-खासे जोकर लग रहे थे।
फिर भी उनके चेहरे पर निम्न श्रेणी की छाप न थी। सच कहूं तो उस चेहरे पर विगत आभिजात्य के कुछ कण अभी भी चिपके रह गए थे।
इसलिए उन्हें भद्र पुरुष कहने के लिए ब्याह हो रहा हूं, वरना कहना न होगा कि उनका चेहरा देखकर कोई भी खुश नहीं होगा। मैं भी खुश नहीं हुआ।
ऐसे भद्र पुरुषों का मुझे थोड़ा अनुभव है, मिलते ही गर्दन पर सवार होकर बातें करेंगे और उनका दूसरा या तीसरा सवाल होगा, ‘तनखाह कितनी है ?’ ऐसे लोग बाज़ार भाव से बातचीत शुरू करके, बेहद नंगी भाषा में आजकल के लड़के-लड़कियों की अविराम निंदा करके भले आदमियों का वक्त खराब करते हैं, और इसी बहाने अपने घर का चाय का खर्च और अखबार का खर्च बचाते हैं। दूसरे आदमी का बस का मंथली टिकट उधार मांगकर सारा दिन काम निबटाते हैं और दूसरी या तीसरी मुलाकात में पैसे उधार मांग बैठते हैं।

नए मुहल्ले में पहले ही दिन इस प्रकार के एक चरित्रवान्, भद्र पुरुष की उपस्थिति से मैं मन-ही-मन चिढ़ उठा। मगर भद्रता नाम की भी एक चीज़ होती है जिसके प्रभाव से लोगों को अभिनेता बनना पड़ता है, झूठा बनना पड़ता है, कपट और आडंबर करना पड़ता है। नतीजा यह होता है कि निहायत भलामानुस भी तंग आकर कभी-कभी रूखाई से पेश आता है।

खैर, भद्र समाज में जो-जो नाटक होता है वह तो करना ही होगा, जब भद्र लोगों के इस मुहल्ले में रहने आया हूं।
उसी भद्रता के कारण अपने चेहरे की रेखाओं को यथासंभव मुस्कान में फैलाते हुए बोला, ‘‘अरे, आइए-आइए, आप लोगों के आश्रय में आ गया हूं।’’
भद्र पुरुष ने बड़े जोर से सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘रहने भी दीजिए। ऐसी बातें क्यों करते हैं। आश्रय किस बात का ? मैं तो खुद निराश्रित हूं- वायुभूतो निराश्रय:।’’
मन-ही-मन हंसा मैं। भद्र पुरुष शायद सोच रहे थे कि अन्य लोगों की तरह मैं भी उन पर ऐसे फालतू प्रश्नों से आक्रमण कर दूंगा, जैसे, मेरे लिए एक नौकरानी की व्यवस्था कर सकें तो बड़ी मेहरबानी हो, अच्छा दूध कहां मिलता है ? धोबी यहां से कितनी दूर रहता है ? आदि-आदि।
उनकी आशंका को दूर करते हुए मुस्कराकर मैंने कहा, ‘‘नया-नया आपके मुहल्ले में आया हूँ, तो आप लोगों के आश्रय में ही आया हूं। शायद आप मेरे पड़ोसी है ?’’
भद्र पुरुष ने दुबारा सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं महाशय, मेरी पड़ोसी होने का सौभाग्य आपको नहीं प्राप्त हुआ है। उसका आपको कोई फायदा भी नहीं होगा। मैं जो रमता जोगी हूँ, मेरा कोई ठौर ठिकाना नहीं है। नारद मुनि की तरह मुझे भी घूमते रहने का अभिशाप मिला है।
और वह विचित्र व्यक्ति हो-हो करके हंस पड़ा।
कुछ दिन पहले खरीदा मेरा मकान टालीगंज के एक छोर पर है। बस्ती से थोड़ा अलग। अभी भी यहां पेड़-पौधों की हरियाली बिखरी हुई है। इस स्थान को निर्जन कहा जाए तो गलत न होगा।
भद्र पुरुष की प्रचंड हंसी के पास के पीपल पर से कोई दर्जन भर पक्षी उड़ गए। वे सज्जन इस मुहल्ले के निवासी नहीं हैं, यह जानकर आश्वस्त हुआ। थोड़ी-सी वास्तविक भद्रता दिखाते हुए मैंने कहा, ‘‘खड़े ‘‘क्यों हैं, बैठिए न।’’
‘‘हां-हां। बैठता हूं।’’
भद्र पुरुष ने बेंत की कुर्सी को प्राय: तीन हाथ दूर खींचकर उस पर अपनी काया को स्थापित किया। फिर बोले, ‘‘जरूर बैठूंगा। बैठने तो आया ही हूं। बहुत दिनों से इधर आया नहीं था। इधर से गुजर रहा था तो देखा, इस मकान पर नया रंग-रोगन चढ़ रहा है। अचानक मेरा मन रंगीन हो उठा। आपके बिना बुलाए ही आ गया। देख रहा हूं सीलिंग के नीचे जो थोड़ी कार्निश थी, वह आपने उड़ा ही दी है। देखकर.....।’’

अचानक वह चुप हो गया।
‘......लगता है पहले आप इस मुहल्ले में रहते थे ?’’ प्रश्न यों ही किया था, वरना भद्र पुरुष की बातों से यही यह बात स्पष्ट थी। मगर उन्होंने इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं दिया। अपना वाक्य जहां से खतम किया था वहीं से आगे जोड़ दिया,.....देखकर मुझे लगा:
‘‘पुराने मलिन मुख को दूर रखूंगा, छोड़ दूंगा पथ।
जिधर से सगौरव निकलेगा नूतन का रथ।’’
मैंने हंसकर पूछा, ‘‘लगता है कविता भी लिखते हैं ?’’
भद्र पुरुष ने छोटी-छोटी दाढ़ी से भरे उस मांसहीन चेहरे पर जैसे नववधू-सुलभ लज्जा का भाव लाकर कहा, ‘‘कभी लिखता था, अब नहीं। वह सब बुरी आदते अब नहीं रहीं।’’
भूतपूर्व कवि नए कवियों से ज़्यादा खतरनाक होते हैं। कविता लिखने की बुरी आदत भले ही छूट गयी हो, मगर उसके प्रमाणस्वरूप कविता के कुछ टुकड़े हमेशा अपनी जेब मे लेकर चलते हैं। अचानक वे टुकडे़ कब जेब से निकलकर उनकी जुबान पर चढ़ जाएंगे और आपको निहायत फूहड़ कविताओं का बेहद मजबूर श्रोता बनना पड़ेगा कहना मुश्किल है। मेरा दिल कांप उठा। जिस भयावह परिस्थिति में मैं फंसने जा रहा था उससे गला छुड़ाने के लिए मैंने कहा, ‘‘अभी अंदर से चाय बनाने को कहकर आता हूँ।’’

मैंने मकान के भीतरी भाग की ओर दृष्टि दौड़ाई, जहां से कहते ही, चाय की प्यालियां खड़खड़ाती हुई आ जाएंगी:
मगर भद्र पुरुष ने लोक-चरित्र के मेरे ज्ञान के अहंकार को धूलिसात् करते हुए कहा, ‘‘नहीं-नहीं, वह सब फार्मेलिटी मेरे साथ नहीं चलेगी। मैंने कहा न मैं रमता जोगी हूं। किसी प्रकार के सामाजिक या लौकिक बंधन में मैं नहीं पड़ता।’’
‘‘अरे, थोड़ी-सी चाय में हर्ज ही क्या है ?’’

भद्र पुरुष बोल पड़े, ‘‘थोड़ी-सी चाय पिलाने में आपको ही भला क्या मिल जाएगा ? था, मुझे भी एक समय चाय का बहुत नशा था। सवेरे उठकर कौए जैसे कांव-कांव करते हैं उसी तरह आँख खोलते ही मैं चाय-चाय करता था। अब वह सब आदतें नहीं रहीं।’’
भद्र पुरुष ने गहरी सांस ली।
धीरे-धीरे इस आदमी का व्यक्तित्व मुझे आकर्षित कर रहा था। जिस व्यक्ति को कभी कविता लिखने का शौक था, कभी चाय पीने का शौक था, अब उसे कोई शौक नहीं रहा, उसका निश्चय ही एक दिलचस्प अतीत होगा। मगर इसके बाद क्या बात करूं, यह समझ में नहीं आया, तो मैं इधर-उधर ताकने लगा।
भद्र पुरुष थोड़ी देर मकान को एकटक देखते रहे। फिर बोले, ‘‘दो तल्ले पर उत्तरी बरामदा शुरू होते ही जो कमरा है उसकी पूरबी दीवार पर एक आला है। वह अभी है या आपने उसे भरवा दिया है ? माडर्न मकानों में आजकल उस तरह के आले असभ्यता माने जाते हैं।’’
मैं चौंक उठा। इसमें संदेह नहीं कि भद्र पुरुष इस मकान से भली भांति परिचित हैं। हो सकता है कभी इसमें रहे हों।
मैंने उत्सुक होकर पूछा, ‘‘क्यों, क्या उस आले को लेकर आपकी कोई प्रिजुडिस है ?’’
‘‘मेरी प्रिजुडिस ?’’ एकाएक भद्र पुरुष थोड़ा उत्तेजित होकर बोले, ‘‘मेरी कैसी प्रिजुडिस ? इस मकान के कमरे से मेरा क्या संबंध ?’’
भद्र पुरुष का गुस्सा देखकर और भी कौतूहल हुआ। बोला, ‘‘लगता तो है कि पहले इस घर में रहे हैं आप ?’’
‘‘कभी नहीं।’’ भद्र पुरुष उत्तेजित होकर कुर्सी ठेलकर खड़े होते हुए बोले, ‘‘आप तो अजीब आदमी हैं ? आप कहना क्या चाहते हैं आप ?’’

मैं एकदम परेशान हो उठा। प्राय: माफी मांगता हुआ-सा बोला, ‘‘आश्चर्य ! इससे आप इतने, .....मैंने तो ऐसे ही कहा था, मेरा इससे कोई खास मतलब नहीं था। मतलब यह कि इस घर के बारे में जब आप इतना जानते हैं तो शायद आप इसमे कभी रहे हों। आप कुछ अन्यथा न लें। बैठिए न!’’
भद्र पुरुष थोड़ा ठमक गए। इसका कारण मेरी विनम्रता हो सकती है या शायद उन्हें अपना इस तरह उत्तेजित होना ही बहुत आकस्मिक और अभद्रतापूर्ण लगा हो।
कुर्सी खींचकर उस पर बैठते हुए बोले, ‘‘आप भी बुरा मन मानिएगा। मैं अपना टेंपर सब समय बैलेंस नहीं रख पाता। समझे न ? और एक समय था मैं......।’’
और एक जानकारी मिली। यानी कि इस समय वे गर्म मिजाज हो गए हैं, मगर कभी निहायत शांत प्रकृति के आदमी थे।
और भी एक जानकारी यह मिली कि श्रीमान्जी अपने-आप जितनी बकबक करते जाएं, मगर एक भी बात अगर पूछ ली जाए तो, उसका उत्तर देने तो दूर, खोंखिया उठते हैं। आले के बारे में पूछते ही आफत, हालांकि बात खुद ही उठाई थी। जो भी हो, आले के बारे में मेरी जिद जिज्ञासा तीव्र हो उठी थी। इसीलिए मैंने दूसरा रास्ता अपनाया।
सीधा सवाल करके मैंने कहा, ‘‘मेरी पत्नी ने पहले आले को बन्द करने के बारे में आपत्ति उठाई थी। कहा, था, ‘रहने दो।’ मगर आपने जो कहा कि आजकल नहीं चलता, सो ठीक ही है। कांट्रैक्टर ने कहा, ‘‘बाबूजी, बेडरूम में आला आजकल एकदम नहीं चलता ?’’

मगर इस बार भद्र पुरुष उस दिशा में जरा भी उत्सुक नहीं दिखे। एक पल मेरी ओर बिना पलक झपकाए देखने के बाद पूछा, ‘‘आपकी पत्नी है न?’’
मैंने मुस्कराकर उत्तर दिया, ‘‘जी हां, जब तक भाग्य में यह बंधन लिखा है, तब तक तो रहेंगी ही।’’
‘‘देखिए महाशय ! जीवन-मरण को लेकर परिहास न कीजिएगा। बहुत बुरी आदत है।’’ भद्र पुरुष थोड़ा गंभीर हो गए। फिर एक अजीब प्रश्न किया उन्होंने।
‘‘आपकी पत्नी की उम्र क्या है ?’’
कोई और, मतलब कोई इस तरह तुरंत का परिचित यह सवाल करती तो मैं उसे उचित शिक्षा दे देता। मगर सच कहता हूँ, मैं समझ गया था कि इस आदमी को सामान्य भद्रता की परिधि में नहीं रखा जा सकता। उसमें कुछ अस्वाभाविकता है, इसमें संदेह नहीं। चेहरे और पोशाक के साथ उसकी तलस्पर्शी आँखों की चुभती हुई गंभीर दृष्टि का कोई मेल नहीं था, जिससे उपर्युक्त धारणा और भी दृढ़ हो रही थी।

इसलिए गुस्सा न करके हंसते हुए मैंने कहा, ‘‘स्त्रियों की उम्र ? यह तो उनको बनानेवाले विधाता भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते।’’
‘‘फिर भी कुछ अंदाजा तो होगा।’’ वे करीब-करीब धमकी जैसी भंगिमा बनाकर बोले।
‘‘वह अंदाजा तो मुझे देखकर आप भी कर सकते हैं।’’
‘‘मैंने तो कर लिया है। इसीलिए तो परेशानी हो रही है मुझे।’’ एक बार आपादमस्तक मुझे घूरकर उन्होंने एक और गोला दागा, ‘‘देखने में कैसी हैं ?’’
इस बार मेरे लिए अपने को संभालना मुश्किल हो उठा। उनके प्रश्न का उत्तर देने के बदले मैंने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘क्या आपका प्रश्न भद्रता की सीमा नहीं लांघ रहा है ?’’
‘‘हां, लांघ रहा है। जानता हूं। मगर आपके भद्र समाज और उसकी भद्रता से मेरा क्या वास्ता ?’’ बिना जरा भी विचलित हुए निर्लिप्त भाव से उन्होंने कहा:
‘‘आप कौन हैं यह तो मैं जानता नहीं, मगर मुझे तो इसी समाज में रहना है।’’

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