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नारी विमर्श >> राजकन्या

राजकन्या

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : राजभाषा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6384
आईएसबीएन :81-8113-034-5

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका आशापूर्णा देवी का एक नया उपन्यास

Rajkanya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका, आशापूर्णा देवी का एक नया उपन्यास।
आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र है।
इनके उपन्यास मूलत: नारी केन्द्रित होते हैं। सृजन की श्रेष्ठ सहभागी होते हुए भी नारी का पुरुष के समान मुल्यांकन नहीं? पुरुष की बड़ी सी कमजोरी पर समाज में कोई हलचल नहीं, लेकिन नारी की थोड़ी सी चूक उसके जीवन को रसातल में डाल देती है। यह है एक असहाय विडम्बना !
बंकिम, रवीन्द्र, शरत् के पश्चात् आशा पूर्णा देवी हिन्दी भाषी आँचल में एक सुपरिचित नाम है- जिसकी हर कृति एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती है।

राजकन्या

उनके प्रेम ने रंग पकड़ लिया।
छोटा सा सूत्र। फिर हल्की सी मुस्कुराहट।
छोटी सी बातचीत। इसके बाद रचा गया। ‘एकाएक’ बनाया गया ‘इत्तफाक’ के सहारे कभी-कभी मिलना। यह थी उनके प्रेम की पहली अवस्था। फिर तो जैसे बाढ़ ही आ गई। न उन्होंने दूसरे को ‘आप’ कहा, और न यदा-कदा मुलाकात होना ही पर्याप्त रहा। रोज़ मिलना ज़रूरी हो गया, चाहे जैसे हो। आँधी चलती हो, बिजली कड़कती हो, पानी बरसता हो, चाहे धूप चटकती हो।
ग्रह-नक्षत्र विरुप हो जाने से किसी दिन मिलना न हो पाता हो तो उस दिन हृदय में जो ‘कालिक पेन’ उठता, कि क्या कहना। एक को नहीं, दोनों को ही। मगर मजबूरियाँ ऐसी कि जब दौड़े चले जा रहे हैं मिलने, यह भी सम्भव नहीं। कोई आजाद नहीं, नौकरी के पहियों से दोनों बँधे। हर दिन। काम, काम और काम। फुलटाइम पार्टटाइम। बस शाम को ही छुट्टी मिलती है। तो फिर उसी वक़्त मिलना होता है। कलकत्ते के अजगर जैसे शरीर पर थोड़ी सी जगह। वहीं पर है उसका अपना स्वर्गलोक। वहाँ वे, यानी आमने-सामने नहीं तो अगल-बगल बैठ अपने सम्मिलित स्वर्ग की कल्पना करते हैं। दो हृदयों की मुग्धता, उनकी विह्नलता मर्त्यलोक में एक अनिर्वचनीय अमृतधारा बरसा उसे स्वर्ग बना देती है। उनकी मुग्धता से, प्रेम-विह्नलता से इर्ष्यातुर हो उठते हैं स्वर्ग के निवासी, तैंतीस करोड़ देवता। ये दोनों ख्याति-प्राप्त व्यक्ति तो नहीं हैं, पर इससे क्या ? जिस जगह ये बैठते हैं, वह बहुत ख्याति प्राप्त जगह हैं। वह है कलकत्ते के ‘मैदान’ का एक कोना।

एक बात है। जेबें दोनों की बिल्कुल मैदान सी ही हैं, खाली-खाली। इसलिये आइसक्रीम खाना उसके लिये शायद ही कभी संभव हो पाता है। उनका सहारा तो है ‘मसाला मुड़ी’ और नहीं तो प्रेमिका-प्रेमी का चिरन्तन बन्धन-सूत्र, मूँगफली।
किसी दिन मानस खरीदता है, किसी दिन तोमसी। इस नियम को तामसी ने ही लागू किया है। पहले-पहले मानस कहता ‘इतना तो कम से कम मुझे रोज़ करने दिया करो। अपने को निहायत गरीब, निकम्मा और बदकिस्मत सोचने से मुझे बचाओ।’
तामसी तमक कर कहती, ‘बड़े स्वार्थी हो जी ! बस अपनी ही बात सोचते हो न ? यह भी कभी सोचा है कि मुझे अपनी गरीबी, अपनी बदकिस्मती का दु:ख है कि नहीं ? मैं भी उनकी लज्जा से बचना चाहती हूँ या नहीं ?’
‘तुम माहिला हो। आदि काल से महिलायें ही, पुरुष को धन्य करती हैं।’
‘वह तो पुराने-जमाने की सड़ी-गली मान्यता है,’ ‘मानस के संकोच को फूँक मार कर उड़ा देती है तामसी, ‘यह तो समान अधिकार का जमाना है। एक से कानून, एक से अधिकार। वह जमाना बहुत पीछे छूट गया है। जब स्त्रियाँ नैवेद्य स्वीकार करने के लिये देवी बनी बैठी रहती थीं।’
मूँगफली का छिलका छीलते हुए मानस ने कहा, ‘वह जमाना गया, बहुत बुरा हुआ। पुरुष के अहं को एकदम धूल में मिला दिया है तुम लोगों ने।’
‘पुरुष का अहं नहीं, हथेली पर छीली मूँगफली के दाने फूँकती हुई तामसी बोली, ‘उसकी चालाकी। उसकी चतुराई। वे जानते थे कि कुम्भकर्ण की नींद खुलने पर मामला गड़बड़ा जायेगा, इसलिए लोरी सुना-सुनाकर......’

‘कुम्भकर्ण ? यह कैसी तुलना कर डाली तुमने ?’ मानस ने हँसकर कहा, ‘क्या तुम्हें अपनी उपमा बहुत इज्जतदार लगी ?’
बड़ी शान्ति से तामसी बोली, ‘हो सकता है कि इज्जतदार नहीं हों, पर है बहुत उपयुक्त।’
‘जो भी हो,’ कहा मानस ने, ‘उस वक्त लग रहा था कि अक्लमन्दी कर रहा हूँ, यही सोच पुरुष ने बड़ी मूर्खता की थी। चतुराई समझ बुद्धूपना। हमारे पिता-, पितामह के जीवन कैसे दु:खमय थे, सोचो तो, बेचारे अभागे कभी जान ही न पाये कि प्रेम किस परिन्दे का नाम है।’

‘कौन कहता है ?’ भृकुटी तन गई तामसी की।
‘कहता क्या है ? देखा तो है मैंने उनके जीने का ढंग। उनका जीवन, जीना नहीं, जुगाली करना था। इकट्ठे हो व्यक्ति घर-गृहस्थी चला रहे हैं, क्या यही प्रेम की पराकाष्ठा है ?’
हँसती तामसी। कहती, ‘वे अगर आज के लोगों की हालत देख पाते तो वे भी कहते-राम भजो, क्या दो व्यक्तियों को एक साथ सड़कों पर भटकते फिरना ही प्रेम है ? जब तक अपने घर के एकान्त में साधिकार स्थापित न किया, तब तक चैन कहाँ ? सड़को पर घूमने वाला तुम्हारा ये प्रेम तो बहुमूल्य वस्तु को खुली पेटी में रख छोड़ने के बराबर है। हर वक्त यही फिक्र सताये रहती है, अब गया, तब गया।’

‘उसी में मज़ा है। सुख भी उसी में है।’ ‘कहता मानस, ‘पुरुष के पौरुष की प्रतिष्ठा तो उसी में है। अब देख लो मुझको ही, फटा कुर्ता पहनने वाला एकमात्र क्लर्क, अगर किशोर-वय: में ही परिणय-सूत्र से प्राप्त किसी किशोरी का मालिक बन बैठता, और काल के बदलने के साथ यौवन प्राप्त होते-होते दोनों सिर्फ गृहस्थी की गाड़ी खींचने में लगे होते, तो आज का यह राजतिलक कहाँ मिलता मुझे ? कैसे मैं जान पाता कि मेरी कीमत कितनी है, कहाँ है ?’
उसकी बातें सुन तामसी खुशी से छलकने लगती, आल्हाद से विह्नल होती। फिर भी कहती, ‘आज की खारीदारी मुझे ही करने दो। आज आइस्क्रीम लूँगी।’
यह सब तो खैर, शुरू-शुरू की बातें हैं।
इस समय वे लोग स्टेज को पार कर चुके हैं। इन दिनों वे भविष्य के सपने देख रहे हैं। मगर सपनों को वास्तव का रूप देने की राह में काँटे-ही-काँटे हैं। मानस तो बस, वही ‘मात्र क्लर्क’ हैं। ऊपर से बनी बनाई गृहस्थी का पूरा भार। बंगाल में रहने वाले लाखों युवकों की तरह, विधवा माँ, ब्याहने लायक बहन और नाबालिग भाई, उसके हिस्से में भी पड़े हैं।

और, जैसा कि हमेशा से होता आया है, बेटी की शादी पहले माँ, बेटे की शादी की बात सोच भी नहीं सकती। बल्कि बेटा अगर बिल्कुल शादी न करे तो उन्हें बहुत ज़्यादा खुशी हो, अधिक निश्चिन्तता मिले।
कहती तो नहीं ऐसा वह कभी भी, पर यह ‘न कही’ बात उसकी बातों से उनके हाव-भाव सर्वदा प्रकट होता रहता। बेटे की शादी का तो यही मतलब होता है कि उस पर जोर घट जाता है। उसकी कमाई पर, उसके फुर्सत के क्षणों पर उसकी इच्छा-अनिच्छा पर। सचाई जब ऐसी है, तब मानस जैसे साधारण परिवार के बेटे की माँ के लिये अधिक उदारता कहाँ तक सम्भव है ?
दोषी नहीं मानता मानस। इतना वह जरूर समझ गया है कि उसकी शादी के प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेगी माँ। बहन उससे कई साल छोटी है, मगर उसकी शादी की बात से वे उसे हरदम याद दिलाती रहती हैं।
और तामसी ? उस बेचारी की दशा तो और भी गई बीती है।
परिचय के पहले दिनों में ही तामसी ने कहा था, ‘मेरा नाम सुन कर ही आप समझ गये होंगे कि मेरी दशा कितनी अन्धकाराच्छन्न है। पैदा होते ही माँ का अस्तित्व मिट गया। बेचारी इस दुनिया से ही कूच कर गयी। हालत देख-सुन कर मौसी या बुआ, किसी ने ‘तामसी’ नाम रखकर जन्म भर के लिये बदला ले लिया। इतनी काली तो मैं हूँ नहीं कि मेरा नाम तामसी रखा जाय, आप ही बताइये ?’

यह तो भगवान ही जानते हैं कि जिसके साथ दो-चार दिनों का ही परिचय है, उससे, अपने रंग के विषय में पूछा जाता हैं कि नहीं, या, ऐसा प्रश्न तामसी ही किसी और से करती या नहीं, मगर मानस से उसने यह सवाल किया था। यह तो तब की बात है, जब वे एक-दूसरे को ‘आप’ कहते थे।

इस प्रश्न से मानस शायद ज़रा पशोपेश में पड़ गया था। इसी कारण जवाब देने में ज़रा देर हो गई थी। मगर उसी स्पष्ट, उज्जवल, सप्रतिमता पर दृष्टि डाल उसने अपनी झेंप का गला घोंट दिया था और कहा था, ‘जब आपने कारण बता ही दिया, जब मेरे मन में जागने वाले प्रश्न का अन्त ही कर दिया आपने। नहीं तो नाम सुनते ही मेरे मन में प्रश्न जगा था, कि ऐसा नाम आपका किसने रखा ? अवश्य ही, किसी ईर्ष्या पराण रिश्तेदार का काम है यह !’
‘हाय हाय ! यह तो बहुत अच्छा हुआ कि मेरी मौसी या बुआ ने आपका यह मन्तव्य नहीं सुना।’
‘सुनना चाहिये था उन्हें। भाग्य को लेकर नाम रचना बहुत बुरी बात है। कारण, वही एक वस्तु है जो मनुष्य के अपने हाथ में है। रिश्तेदार अगर उस पर भी कटार चलाने लग जायें, तो बड़े दु:ख की बात है।’
‘आपका नाम बहुत सुन्दर है। बहुत ही आर्टिस्टिक ! सुनने को भी कम ही मिलता है। बहुत साधना, बहुत मित्रता के बाद आपका जन्म हुआ था, क्यों ?
देवी-देवताओं के दरों पर बहुत मत्था टेकने, बहुत सिर पटकने के बाद-’
‘धत् तेरे की ! आप ऐसा सोच बैठी थी ? बात ऐसी बिल्कुल भी नहीं। गरीब के घर कहाँ साधना ? कैसी मित्रता ? मेरा नाम मेरे पिता ने रखा था। वे सज्जन, मेरे ख्याल से, जरा आशावादी थे। उन्होंने उम्मीद की होगी कि उनका बेटा बड़ा होकर, ‘मानस मोहन’ होगा। यही है मेरा पूरा नाम।’
‘पिता नहीं हैं ?’
‘नहीं। उनको गुजरें कई साल हो गये।’
बुझी-बुझी दृष्टि से, पत्ते झिरझिराते एक पेड़ को देखती हुई तामसी बोली, ‘पिता मेरे भी नहीं हैं। मेरे बचपन में ही चल बसे थे। सुना है मैंने कि माँ की मृत्यु से उन्हें बड़ी चोट लगी थी।’
इस प्रसंग के छिड़ जाने से, उसी दिन से, वे एक दूसरे के ज़रा और करीब आये थे। उस करीब आने के माध्यम से ही मानस तामसी का अन्तरंग परिचय मिला। उसकी हालत मानस जैसी सीधी-सपार्ट नहीं है। बड़ी ही विचित्र, बड़ा ही जटिल है उसका जीवन। वैसे वह खुद कहती है कि उसने वह सब सह लिया है, अब आदत पड़ गई है।

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