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नारी विमर्श >> शायद सब ठीक है

शायद सब ठीक है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6388
आईएसबीएन :000000000

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका आशापूर्णा देवी का एक नया उपन्यास....

Shayad Sab Theek Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शायद सब ठीक है

भोर के आकाश से श्यामल डरता है—अलस्सुबह के उस आकाश से जब मोम जैसी छांह भरी मुलायम एक रोशनी आकाश और धरती को एक जैसा बनाये रखती है।
उस रोशनी और आकाश को देखने के भय से श्यामल देर रात तक जागा रहता है, इसलिए कि भोर के वक्त उसकी नींद कहीं टूट न जाये। यही वजह है कि लिखाई-पढ़ाई का सारा काम श्यामल रात के वक्त ही करता है। अब बहुत रात तक जागकर थकावट से चूर हो सोने की कोशिश नहीं करनी पड़ती है श्यामल को; क्योंकि इस आदत का वह आदी हो गया है।
तो भी अकस्मात यदि किसी दिन इस मोम की बनी भोर-वेला मे श्यामल की नींद टूट जाती है तो वह फौरन आंखें बंद कर, तकिए में मुंह छिपाकर, खोयी हुई नींद को पाने की कोशिश करता है।
मगर खोयी नींद क्या श्यामल को वापस मिल जाती है ? या फिर वह खौफनाक भोर का समय चेतना के किसी गहरे स्तर से उभरकर चला आता है ?
उस भोर-बेला की पृष्ठभूमि में श्यामल को दिखायी पड़ता है कि एक बच्चा किसी के हाथ के धक्के खाकर नींद टूटने के कारण हड़बड़ाकर उठकर बैठ गया है। अवाक होकर देखता है कि मच्छरदानी खुली हुई है, बिस्तर पर मां-बाप नहीं हैं, कमरे का दरवाजा खुला हुआ है। उस खुले दरवाजे से उनींदी चांदनी जैसा एक प्रकाश कमरे में आकर लेटा हुआ है।
उस तरह के प्रकाश-शिशु को उसने कभी नहीं देखा था और न ही यह देखा था कि इस तरह दरवाजा खुला हुआ है। उस खुले दरवाजे से दालान से लेकर आंगन तक का हिस्सा दिखायी पड़ता है, साथ ही यह भी देखने को मिलता है कि बहुत सारे लोग वहां इधर-उधर घूम-फिर रहे हैं, खड़े हैं। वे लोग कौन हैं ? वहां क्या कर रहे हैं ?
बच्चे के शरीर में एक सिरहन दौड़ गयी। यदि किसी दिन वह देर रात तक रसोईघर में बुआ के पास बैठ कहानी सुनता है, उस दिन आंगन पास कर कमरे में आने के दौरान दीवार के किनारे के घने वृक्षों को देखते ही उसी तरह का अहसास होता है। बुआ का हाथ पकड़, आंखें मूँदे वह तेज कदमों से चला आता है।
बुआ कहती है, ‘‘बाप रे, गिरा दोगे क्या ? इतनी तेजी से भाग क्यों रहे हो ? देख नहीं रहे कि हाथ में गरम दूध है।’’
सारा काम खत्म कर बुआ दादा के लिए दूध गरम करके ले आती है। दादा को उस बड़े कटोरे को थाम दूध पीते देख उस लड़के को बहुत ही आश्चर्य होता है। दादा इतना सारा दूध कैसे पी जाते हैं ? लेकिन कहानी सुनने का दिन कभी-कभार ही आता है—सिर्फ उसी दिन सुनने को मिलती है जब वह हठी लड़का अड़ जाता है; वरना हर शाम मां उसे लाकर मार-मारकर सुलाती है। कहती है, ‘‘रात-भर जगे रहोगे तो बीमार पड़ जाओगे।’’ घर के तमाम लोग रात-भर जगते हैं तो बीमार नहीं पड़ते और वही बीमार पड़ जाएगा, यह बात उसकी समझ में नहीं आती।
आंखें बंद किए तेज कदमों से उसे आते देख मां कहती है, ‘‘देर रात में आंगन होकर आना तुम्हें अच्छा नहीं लगता !.....डर रहा था न ?’’
दादा यह सुन लेता है तो कहता है, ‘‘लड़के को डरपोक मत बनाओ,बहू ! छुटपन से ही साहसी बनना चाहिए। शरत को मैं रात के वक्त अकेले छत पर छोड़ चला आता था।
शरत कैसा हुआ है, कौन जाने ! मगर यह लड़का तिनक भी साहसी नहीं है। अंधेरे पर नजर जाते ही उसे डर लगता है, छांह देखते ही देह सिहर उठती है।
उस दिन भी धुँधले प्रकाश दो देख उसे भय का अहसास हुआ। कमरे के चारों तरफ गौर से ताका। सारा कुछ तो सही हालत में है—सिरहाने की तरफ खिड़की के नीचे तिपाई पर सुराही पहले की तरह रखी हुई है। इस तरफ बेंच पर एक पर एक रखे हुए बक्से और पिटारिया, जिन पर माँ की अनुपस्थिति में वह लड़का घोड़े पर सवार होने का खेल खेलता है, वे भी सही –सलामत और दुरुस्त हैं और उस तरफ अलगनी पर मां की साड़ियां, जिनके पीछे वह लड़का छिपकर साड़ियों को और नीचे खींच देता है, वे भी पहले की तरह ही हैं।

सारा कुछ ठीक-ठाक है। फिर ?
मां और बाबू जी कमरे से क्यों चले गये हैं ?
बाकी तमाम लोग क्या कर रहे हैं ?
लड़के को फिर एक बार धक्का जैसा महसूस हुआ। यह हाथ मां का नहीं है, न ही बुआ का। उस मकान की छोटी चाची अभी इस घर में क्या करने आयी है ? उस लड़के से ही क्यों कह रही है, ‘‘उठ, बेटा, आ जा ! जन्म का ऋण चुकाने की खातिर मांको एक बार देख ले। इसके बाद देख नहीं सकेगा।’’
‘जन्म का ऋण’ का मतलब क्या है ?
वह मां को देखने क्यों जाएगा ? मां कहां है ?
छोटी चाची गोद में उठाने की कोशिश करते हुए कहती है, ‘‘आ, बेटा, चल, मैं तुझे ले चलती हूं। चुपचाप चल।’’
तभी बुआ कमरे में प्रवेश करती है; असंतुष्ट स्वर में कहती है, ‘‘उसकी नींद तोड़ने को मैंने तुम्हें मना किया था न, छोटी बहू?’’
छोटी चाची कहती हैं, ‘‘ऐसा न करती तो मन में बड़ी चोट पहुंचती, ननदजी ! एकाएक नींद टूटने पर यदि देखता मां नहीं है, कहीं भी नहीं है तो ?’’
वे लोग मां के संबंध में इस तरह की बातें क्यों कर रहे हैं ? माँ को क्या हुआ है ?
लड़का दुबारा चिल्ला उठा कि माँ कहाँ है ?’’
इस बीच दिख गया है कि माँ कहां है।
लड़का मां की यह अजीब हरकत देख भय से लकड़ी की तरह जड़ होकर ताकता रहता है, ताकता रहता है। कमरा छोड़ मां आंगन में क्यों लेटी हुई है ? मां के चारों तरफ इतने साले लोग क्यों हैं ? बाबू जी कहां हैं ! हां, बाबू जी ?
लड़के की नजर बाप पर गयी। वह ओसारे के किनारे दोनों हाथ से मुंह ढककर बैठा हुआ है।
लड़के ने इसके पहले कभी मृत्यु का दृश्य नहीं देखा था, फिर उसे सहसा लगा कि मां मर गयी है।
तभी से भय की शुरुआत हुई है।
वही भय हमेशा दबोचे रहता है।
थोड़ी देर बाद ही दादा की मोटी और गंभीर आवाज लड़के को सुनायी पड़ी, ‘‘देरी क्यों हो रही है ?’
किसी ने कहा, ‘‘और थोड़ी-सी सुबह हुए बगैर।’’
फिर वही वजनदार आवाज, ‘‘सुबह को चुकी है।’’ उसके बाद बोले, ‘‘श्यामल को यहां से ले जाओ।’’
इसका मतलह लड़के का नाम श्यामल है। यानी वही लड़का श्यामल है। लेकिन वह इतना गुमसुम क्यों है ? वह क्या चुपचाप रसोईघर के पास के उस छोटे-से दरवाजे से होकर चाची के साथ कुछ कहकर चला गया ?

हालांकि जिस दिन वह बुआ के साथ रघु के घर जाने की जिद करता है और इस पर मां हाथ पकड़कर खींचती है तो वह चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा लेता है। बुआ गुस्सा कर कहती हैं, मना क्यों कर रही हो, बहू ? एक बार ग्वाले के घर जाने से तुम्हारा लड़का ग्वाला हो जाएगा ?’’

किसी दिन मां को चंडी मंदिर जाते देखता तो, ‘‘मां के साथ जाऊंगा’ कहकर चिल्लाना शुरू कर देता। ऐसे में किसकी मजाल कि रोक ले !
बड़े-बुजुर्गों से कुछ लेना हो तो चिल्लाना ही एकमात्र हथियार है, इसे श्यामल ने अच्छी तरह समझ लिया था।
लेकिन उस डरावनी भोर से श्यामल नामक लड़का ‘मां के पास जाऊंगा’, यह कहकर नहीं चिल्लाया।

छोटी चाची उसे मकान में ले गयी और अपने बिस्तर पर लिटाकर कहा, ‘‘सो रहो।’’
डरकर उसने आँखें बंद कर लीं। मगर सोएगा कैसे ? वह अजीब तस्वीर उसकी आंखों पर चस्पां (चिपक कर) होकर बैठी हुई नहीं है क्या ?
आंगन में छोटे पाये की एक खाट है और उस पर मां नींद में मशगूल है। चारों तरफ बहुत सारे आदमी हैं, जिन्हें श्यामल पहचानता भी नहीं। दादा सामने खड़े हैं लेकिन मां का चेहरा खुला हुआ है, मां ने घूंघट नहीं काढ़ा है।
इस बीच यह तस्वीर पत्थर पर खुद गयी है।
श्यामल समझ गया था कि अब वह मां को देख नहीं पाएगा। श्यामल ने खुद ही अंदाज लगा लिया था कि मर जाने के बाद आदमी फिर लौटकर नहीं आता। यह बात किसने सिखायी थी श्यामल को ?
यह सब बात कौन सिखाता है ? इसके अलावा बाकी सारी बातें ?
किस तरह शिशु की चेतना के जाल में आहिस्ता-आहिस्ता विश्व के रहस्य की लीला फंस जाती है ?
किस तरह बड़े-बुजुर्गों की मानसिकता का मर्म वह समझ जाता है ? किस तरह क्षण-क्षण विकसित होती उसकी बुद्धि की पंखुड़ियों पर कुटिल बुद्धि का दांव-पेंच पड़ना शुरू हो जाता है ?

हां, दांव-पेंच अवश्य ही पड़ता है !
शिशु को जो सरलता के प्रतीक के रूप में अभिहित किया जाता है, इससे बढ़कर कोई गलती नहीं हो सकती। या यह भी कह सकते हैं कि इससे बढ़कर आत्म-प्रवंचना हो ही नहीं सकती। शिशु बड़े-बूढ़ों से कम धूर्त नहीं होते। अपना काम निकालने के लिए वे इस तरह की चाल चल सकते हैं, नितांत भोलेपन का भान कर इस तरह की चालाकी कर सकते हैं कि अक्सर बड़े-बूढ़ों को बेवकूफ बनना पड़ता है

श्यामल को उस शैशवावस्था में ही अहसास हो गया था कि उसकी मां की मृत्यु के पीछे किसी गड़बड़ी का हाथ है। मां बीमार नहीं पड़ी थी (श्यामल को उस समय पता था कि बीमार पड़ने से आदमी मर जाता है) फिर भी मां मर गयी। इसका अर्थ क्या है ?
इसके अलावा श्यामल को इस बात का भी अहसास हो गया था कि बुआ के सामने मां के संदर्भ में जिक्र नहीं किया जा सकता है। मां की इस आकस्मिक मृत्यु से बुआ खफा है; जैसे बुआ को पराजित करने के ख्याल से ही मां ने मृत्यु का वरण किया है।
वरना बार-बार दादा के पास आकर क्यों कहती है, ‘‘भगवान ले जाते हैं, उन पर वश नहीं चलता। यह सिर्फ मुझे परेशान करने के लिए ही किया है।’’
मां के मरने से बुआ को क्यों पराजित होना पड़ता है, श्यामल यह समझ नहीं सका। साथ ही यह भी नहीं समझ सका कि बुआ को कौन-सी परेशानी उठानी पड़ रही है।
मां जब थी तो बुआ क्या श्यामल को किसी दिन नहलाती नहीं थी ? खाना नहीं खिलाती थी ? घुमाने-फिराने नहीं ले जाती थी ? मां रसोई पकाती और बुआ बहुधा यह सब करती थी।

फिर ? फिर बुआ कि जुबान पर इतनी ‘परेशानियों’ का किस्सा क्यों रहता है ? आन्दी बुताइत के घर जाकर बुआ श्यामल को वहाँ के बच्चों के साथ खेलने को छोड़ देती हैं और आन्दी की मां के पास बैठकर कहती है, ‘‘देखो, मुझे कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अपनी तकदीर के कारण मर-खप रही हूं और उस पर गले में यह फंदा डालकर चली गयी।’’
बातचीत के तमाम शब्द का अर्थ न समझने के बावजूद यह समझता है कि श्यामल ही बुआ के माथे का बोझ है।
बुआ के प्रति एक इयत्ताहीन आक्रोश और अभिमान ने क्रमशः उस शिशु-मन की आक्रांति कर लिया था। बुआ को परेशान करने की दुष्प्रवृत्ति (जो पहले भी थोड़ी-बहुत मात्रा में थी) धीरे-धीरे प्रबल होती गयी थी।
बुआ को पराजित करने का एक बड़ा हथियार है श्यामल के पास।
सुबह से ही उस हथियार को हाथ में थाम श्यामल युद्ध के मैदान में उतर जाता है।

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