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प्रवासी लेखक >> उरोज

उरोज

हरी बिन्दल

प्रकाशक : पहले पहल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :57
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 6424
आईएसबीएन :978-81-906272-0

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उरोज, उर के ओज एक प्रौढ़ रचना है। मूलतः हास्य रस के कवि समझने जाने वाले बिंदल जी इस काव्य में नवीन कल्पना और भावों के गाम्भीर्य को लेकर अपने नूतन परिवेश में अवतरित हुए हैं....

Uroj A Hindi Book By Hari Bindal -उरोज - हरी बिन्दल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हरीबाबू बिंदल की नवीन कृति उरोज, उर के ओज एक प्रौढ़ रचना है। मूलतः हास्य रस के कवि समझने जाने वाले बिंदल जी इस काव्य में नवीन कल्पना और भावों के गाम्भीर्य को लेकर अपने नूतन परिवेश में अवतरित हुए हैं। यद्यपि उन्होंने काका हाथरसी से प्रभावित होकर अपनी अन्य रचनाओं की भाँति इस काव्य में छप्पय या कुण्डलियाँ छन्द चुना है (जिसे काका जी ने हास्य के छक्के कहा था), तदापि यह काव्य केवल गुदगुदाने व हँसाने वाला न रहकर बन गया है मानव की ब्रह्मनंद सहोदर काम-रति की गहन अनुभूति का सरस वर्णन....अंततः तो सारा व्यापार अधिकांशतः नारी के श्रृंगार के इर्द-गिर्द घूमता है। फैशन, उरोज को घटाने-बढ़ाने की शल्यक्रिया, हर धर्म-जाति-देश-काल के विभिन्न परिदान, नर्तकियों, अभिनेत्रियों, मॉडलों के दिखते-ढँकते शरीर-सभी कुछ तो संसार में नारी के इर्द-गिर्द नाचते दिखाई देते हैं। उरोज को ढँकने न ढँकने की बहस पर टिका है संस्कृतियों, सभ्यताओं का संघर्ष। केसर की गंध और अणु आयुध को एक साथ रखने की क्षमता पर न जाने कितने काव्य लिखे गये हैं और लिखे जायेंगे और उनमें एक और पुजारी हरीबाबू बिंदल आये हैं। अपना सौंदर्य-साधना भरा श्रृंगार पुष्प-गुच्छ चढ़ाने। आशा है साहित्यिक जगत उनका आभारी होगा। इत्यलम्।

वेदप्रकाश वटुक

प्रकाशकीय

‘उरोज, उर के ओज’ पढ़ना एक ऐसी रम्य-रचना में गोते लगाना है जो नारी सौंदर्य के बखान की भारतीय परम्परा की पुरातन और आधुनिक छवि को अपने आप में आत्मसात किये हुए है।

श्री हरिबाबू बिन्दल पिछले 33 वर्षों से अमेरिका में रहते हुए जिस तल्लीनता से हिंदी में सृजनकर्म कर रहे हैं, यह छन्द पढ़कर कहीं से भी नहीं लगता कि वे एक क्षण को भी अपनी माटी से दूर हुए हैं। यूँ तो बन्दल जी व्यंग्यकार के तौर पर प्रतिष्ठित हैं, लेकिन एक कवि के तौर पर और वह भी नारी सौंदर्य जैसे प्रौढ़ विषय पर लिखने का उन्होंने जो साहस दिखाया है वह कमाल का है।
उम्मीद है सुधि पाठक कविता की इस पुरातन और आधुनिक धारा का एक साथ आनंद उठायेंगे।

महेंद्र गगन

आभार


‘उरोज, उर के ओज’ लिखने की शुरुआत काफी समय पहले हुई थी, तीन छन्द लिखकर। फिर एक दो छन्द इसमें और जुड़े, किन्तु जब आठ छन्द हो चुके तो एक भूत-सा सवार हो गया और लिखते जाने का कई बार लगाम लगाने की कोशिश की, क्योंकि समय काफी खर्च होने लगा था। किन्तु, जब ये छन्द कुछ लोगों को पढ़वाये, इन लोगों ने पसंद किये तो फिर तो इसे एक लघु-काव्य बनाकर ही दम लिया।

इनको रुचि से पढ़ने वालों और उसमें सुधार सुझाने वालों में पहला नाम हैं डॉ. सत्येन वर्मा का। डॉ. वर्मा वैसे तो मैथमैटिसियन हैं पर श्रृंगार रस में काफी रुचि रखते हैं। प्यार की अपनी एक कविता में इन्होंने मैथमैटिक्स का पुट देकर इसे एक विशिष्ट बनाया। ‘उरोज, उर के ओज’ में जहाँ-तहाँ साइंस और मैथमैटीकल फोर्मूले उनकी कविता का ही प्रभाव है। सत्येन जी के सुधारों के लिए मैं आभारी हूँ। अपने दूसरे मित्र डॉ. नरेन्द्र टंडन उर्दू और उर्दू शायरी में दखल रखते हैं। उन्होंने ‘उरोज, उर के ओज’ में प्रयुक्त उर्दू शब्दों में नुक्ते लगवाये हैं। इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। कई और डॉ. पदवी वाले मित्रों ने हस्तलिपि पढ़कर मुस्कराते हुए पसंद आने का संदेश दिया है। एक दो महिला मित्रों ने भी पढ़कर ‘उरोज, उर के ओज’ में प्रयुक्त उपमाओं को पसंद कर सहमति जताई। मैं इन सभी चाहने वालों और इस काव्य में सुधार सिखाने वालों का धन्यावाद करता हूँ। साथ ही खुजराहो की नारी प्रतिमाओं का भी आभार प्रदर्शित करता हूँ।

नटराज बुक्स के प्रबंधक श्री विनोद महाजन ने पुस्तक के मुखपृष्ठ पर भारतीय चित्र डालने का सुझाव दिया, जबकि मैं स्वयं यूरोपीय नग्न चित्र डालने का विचार रखता था। विनोद जी के सुझाव के लिये उनका धन्यवाद।
हरीबाबू बिंदल

भूमिका

‘कंचन काया कामनी, करि क्यों कर कमनीय, कटि का कंचन काटि के, कुच के कारन कीय’ ये लाइनें आपने कहीं न कहीं सुनी होंगी, बचपन में अनजाने मैंने अपने ताऊ जी के मुँह से सुनी थीं। बहुत पहले किसी को मैंने निर्भय हाथरसी द्वारा लिखित ‘उरोज’ नाम की एक छोटी-सी पुस्तक पढ़ते देखा था, धुन सवार हुई इसे खरीद कर पढ़ने की। इस पुस्तक में उरोज के उगने से लेकर उनके ढलने तक की प्रक्रिया कविता में लिखी थी। कुछ ही दिनों में वह पुस्तक गायब हो गई। उसकी प्रथम लाइनें अभी भी याद हैं ‘शैशव की सरसता ने अंतिम अँगड़ाई ली....क्योंकि उस किशोरी के उरोज बढ़ने लगे।’ बाकी कुछ याद नहीं। उस कविताई पुस्तक का रह-रहकर ध्यान आता है। निर्भय हाथरसी की उस कृति को काका हाथरसी की काव्य शैली, यानि कि ‘छक्के’ रूप में मैंने लिख डाला है। विषय तो श्रृंगार ही है किन्तु काव्यात्मक बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ी है। हास्य लेखक होने के कारण श्रृंगार के साथ हास्य का जुड़ जाना स्वाभाविक है। खुजराहो और उस जैसे अन्य स्थलों पर नारी प्रतिमाओं को बड़े-बड़े उरोजों के साथ गढ़ा हुआ देखा गया है। खुजराहो मन्दिर देखने के बाद, उनका प्रभाव मन पर था, वह वजन भी यह लघु-काव्य लिख कर कम हुआ है। हास्य और श्रृंगार का काव्यात्मक मिश्रण पढ़ने को मिलेगा इस ‘उरोज, उर के ओज’ लघु-काव्य में।

‘उरोज, उर के ओज’ मुख्यतः स्वान्तः सुखाय लिखा है, किन्तु कुछ लोगों ने पढ़ा तो उनको अच्छा लगा इसीलिये इसे पुस्तक रूप में छपवाया है कि भाषा कहीं क्लिष्ट, कहीं सरल है। अश्लील न होने का पूरा प्रयत्न किया है, किन्तु कुछ लगे तो पाठक हास्य और परिहास्य का अंग मान कर मुझे क्षमा कर देंगे, ऐसा निवेदन है। नारी उरोज की यह काव्यात्मक एवं श्रृंगारिक अभिव्यक्ति आपको कहाँ तक गुदगुदा सकी है, यह तो जानने की इच्छा रहेगी। यदि कुछ लोगों का मन भी खुश हुआ तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूँगा। ‘उरोज, उर के ओज’ पढ़िये और आनंद के सागर में डुबकी लगाइये।

हरीबाबू बिंदल

उरोज की महिमा


भारत के कुछ प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर ही नहीं, विश्व के सभी बड़े देशों में नारी के खुले उरोजों की प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं। भारत में इन्हें कुछ मंदिरों की प्राचीरों पर बिठाया गया है तो स्पेन, फ्रांस, इटली, ग्रीक आदि योरोपीय देशों में इन प्रतिमाओं को भव्य इमारतों के ऊपर अजायबघरों में और शहर के प्रतिष्ठित चौराहों पर बिठाया गया है। साउथ अमेरिका में अर्जेंटाइना के बड़े शहर बाँनजियर, ब्राजील के रियोडिजनेरो और चिली के बड़े शहर सेन्टियेगी में इनकी बहुतायत है। यहाँ अजायबघरों के अलावा चौराहों और पार्कों में भी बड़ी ही खूबसूरत नग्न प्रतिमायें लगाई गई हैं। अपने देशाटन के दौरान मैंने योरोपीय व साउथ अमेरिका के हर बड़े शहर में इन्हें पाया है। कुछ स्थलों पर तो संगमरमर की ये प्रतिमायें इतनी आकर्षक और सजीव जैसी हैं कि इन्हें देखते ही बनता है। उन जगहों पर इनके चित्र उतारना सख्त मना है। ‘उरोज, उर के ओज’ लिख कर मैंने इन सब दर्शनीय स्थानों की सराहना की है।
योरोपीय चित्रकारों की तो महिमा ही अलग है। फ्रांस व ग्रीक के कई मशहूर चित्रकारों द्वारा बनाये नग्न चित्र बेशकीमती होते हैं और बहुत ही प्रतिष्ठित अजायबघरों में बड़े-बड़े साइजों में लगाये जाते हैं और उनकी किताबें बहुत ऊँचे दामों में बिकती हैं। पहले मेरा विचार इन चित्रों को अपनी किताब में देने का था, किन्तु भारत के लिये व हिन्दी भाषा के साथ वे ठीक नहीं रहते, इसलिये विचार छोड़ दिया। पश्चिमी सभ्यता में तो कई जगहों पर ‘न्यूड बीच’ होते हैं जहाँ स्त्रियाँ खुले बदन समुद्र की लहरों पर स्नान करती हैं और रेत पर धूप सेंकती हैं।
नग्न चित्रों और उनके वर्णन के साथ मशहूर चित्रकारों की ‘काफी टेविल साइज’ में बहुत किताबें मिल जाती हैं। कालिदास के मेघदूत, कुमार संभव और ऋतुसंहार में, केशवदास के रसिक प्रिया, जायसी के पद्मावत (स्त्री भेद वर्णन खंड’, भगवतीचरण वर्मा के मृगनयनी ग्रन्थों में स्त्री सुन्दरता एवं उरोज का उत्तेजित करने वाला वर्णन है, किन्तु कविता की विधा में मैंने कोई किताब उरोज की महिमा गाते नहीं देखी है। साहित्य के भक्तिकाल में बिहारी व घनानंद ने कुछ श्रृंगार राधा-कृष्ण को लेकर लिखा है, रीतिकाल और छायावाद के कवियों ने कुछ वैसा नहीं लिखा। अश्लील किताबें तो हो सकती हैं, किन्तु आधुनिक कवि इस विषय पर साहित्य के तौर पर लिखने से डरे-डरे हैं। ‘उरोज, उर के ओज’ लिख कर मैंने उस डर पर विजय पायी है।
उरोजों के उभरने, निखरने, पनपने, सँवरने और सिथिलने की प्रक्रियाओं को विभिन्न माध्यमों से समदर्शित और विभिन्न उपमाओं से अलंकृत किया है। उरोजों के रूपों को पंचतत्वों की श्रृष्टि के सृजन जैसे गहन विषय से, दिन के बढ़ते हुए पहरों के निखरने से, प्रकृति के रहस्यमय आकर्षणों के पनपने से और श्रेष्ठ फल आम के रूपों से समानता की कोशिश की है, आशा है पाठक इस प्रयास को पसंद करेंगे और सराहेंगे।
हरीबाबू बिंदल


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