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जीवनी/आत्मकथा >> शब्द और सुर का संगम

शब्द और सुर का संगम

दानबहादुर सिंह

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6430
आईएसबीएन :978-81-237-5195

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यह पुस्तक काजी नज़रुल इस्लाम के काल की विषम परिस्थितियों का आकलन करते हुए इस महान चितेरे की शाश्वत और मानवीय मूल्यों से आपूर्ण बहुमुखी प्रतिभा की झलक प्रस्तुत करती है....

Shabd Aur Sur Ka Sangam Kazi Nazrul Islam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक बांग्ला काव्य एवं संगीत के इतिहास में काज़ी नज़रूल इस्लाम निस्संदेह एक युग स्थापित कर गए। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के बाद 20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक में केवल वही एक निर्भीक और सशक्त रचनाकार रहे हैं। उनकी बहुमुखी प्रतिभा के परिप्रेक्ष्य में अनेक मौलिक एवं अनूदित साहित्य जैसे-उपन्यास, लघुकथा बाल साहित्य भी लिखा, कुशल गायक व अभिनेता भी रहे। नज़रूल जीवनपर्यन्त राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के आधार-स्तंभ रहे। यह पुस्तक काज़ी नज़रूल इस्लाम के काल की विषय परिस्थितियों का आकलन करते हुए इस महान चितेरे की शाश्वत और मानवीय मूल्यों से आपूर्ण बहुमुखी प्रतिभा की झलक प्रस्तुत करती है।
दानबहादुर सिंह (29 जुलाई 1940) कई भाषाओं के ज्ञाता हैं। वे कई वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा आकाशवाणी के लिए साहित्य सृजन करते रहे हैं।

उपोद्घात


भारतीय वाङ्मय उस महासागर की तरह विस्तीर्ण और अतल है जिसमें नाना नाले एवं नदियां अपने अस्तित्व को भुलाकर एक साथ विलीन हो जाते हैं और छोड़ जाते हैं अनंत हीरे, मोती और अन्यान्य बहुमूल्य रत्न, जिनका मूल्य सहज रूप में आंका नहीं जा सकता। विविध भाषाओं के इंद्रधनुषी आकाश में बांग्ला साहित्य का अवदान संभवतः सर्वाधिक वैशिष्ट्यपूर्ण और सत्यम शिवम सुदंरम से विभूषित है। उसे साहित्य और संगीत की युगलबंदी से जिन प्रख्यात कवियों और साहित्यकारों ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, उनमें प्रातः स्मरणीय महाकवि काज़ी नज़रूल का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आधुनिक बांग्ला काव्य एवं संगीत के इतिहास में नज़रूल निस्संदेह एक युग स्थापित कर गए और एक संस्था बनकर जिए। 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में केवल वही एक सशक्त एवं निर्भीक कवि थे। रवीन्द्रनाथ के बाद वर्तमान शताब्दी में एकमात्र सर्वाधिक जनप्रिय कवि नज़रूल ही थे।

प्रथम युद्धोपरांत आधुनिक बांग्ला काव्य में रवीन्द्र काव्य एकमात्र वैयक्तिक चेतना और पाण्डित्य की देन कहा जा सकता है। इसी युग में पराधीन समस्या–पीड़ित तथा द्वंद्व–जर्जरित बांग्ला देश की स्वाधीनता के लिए विद्रोह, नैराश्य इत्यादि नाना प्रकारेण भारत की पक्षधरता को रूपायित करने में उनका काव्य बेजोड़ सिद्ध हुआ है। नज़रूल बांग्ला देश के अन्यतम श्रेष्ठ चारण कवि थे। वर्तमान युग में एक गीतकार एवं सुरकार के रूप में वही सर्वोच्च स्थान के अधिकारी हैं। उनकी बहुमुखी प्रतिभा के परिप्रेक्ष्य में अनेक मौलिक एवं अनूदित साहित्य जैसे-उपन्यास लघुकथा, नाटक निबंध, विदेशी काव्यों का अनुवाद और पत्रकारिता आदि प्रकाशित हुए। वह अपने युह के एक सिद्ध कुशल गायक और अभिनेता भी थे। रवीन्द्रनाथ को छोड़कर इस प्रकार की बहुमुखी प्रतिभा और किसी में भी नहीं थीं।

नज़रूल इस्लाम 1942 के अगस्त विप्लव में एक दुस्साध्य रोग से आक्रांत हो गए और उसके बाद उनकी लेखनी सदा के लिए निष्क्रिय हो गई। प्रथम महायुद्ध के बाद अगस्त आंदोलन के आरंभ तक नज़रूल की प्रतिमा ने किसी विशिष्ट साहित्य की सृष्टि नहीं की। इसी युग में बांग्ला देश का स्वाधीनता संग्राम आरंभ हुआ। इन्हीं संघर्षों के बीच उनका साहित्य, संगीत और शिल्प इत्यादि अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचे। लेकिन नज़रूल इस्लाम के साहित्य और संगीत के संदर्भ में तत्त्वमूलक और तथ्यपूर्ण विस्तृत आलोचना के क्षेत्र में बहुत थोड़े-से समीक्षक उभरकर सामने आए। दुःख का विषय है कि ये समस्त आलोचनाएं, प्रायः एकांगी निकलीं। ये युक्तिसंगत नहीं थीं।

द्वितीय महायुद्ध के उपरांत नज़रुल के साहित्य का पठन-पाठन आरंभ हुआ। उन्हीं दिनों उनके अत्यंत निकटस्थ मित्रों ने उनके बारे में कुछ समीक्षाएं छपवाईं। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि यद्यपि महाकवि काज़ी नज़रूल इस्लाम को अंग्रेजी साहित्य का उतना प्रगाढ़ बोध नहीं था, तथापि उनकी अंतश्चेतना इतनी विलक्षण थी कि अंग्रेजी का अल्पबोध होते हुए भी उनके कई पुराने कवियों की रचनाओं से उनकी मिलती-जुलती हैं और उनमें काव्य का एक नूतन सौष्ठव एवं स्वरूप झांकता है।

नज़रूल के जीवन और प्रतिभा की आलोचना, 20वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध के साहित्य और संगीत के मेलजोल से इतिहास की रचना के लिए एक नया द्वार खुला। कुछ लोगों ने इन आलोचकों को बड़े ध्यानपूर्वक देखा, लेकिन फिर भी उससे नज़रूल की प्रतिभा का संपादन आरंभ किया। वे थीं’- ‘नवयुग’ और ‘धूमकेतु’। किंतु नज़रूल की संपूर्ण रचनाओं का कहीं भी कोई ब्योरा तिथिवार नहीं मिलता। बीच-बीच में ऐसे कुछ मोड़ आए जिससे उनका काव्य और संगीत अपने प्राकृत स्वरूप को खो बैठा।
यदि किसी को नज़रूल की संपूर्ण रचनाओं का विधिवत अध्ययन करना है तो वह पश्चिमी बंगाल में स्थित बालीगंज के पुस्तकालय को देखे। इसी में उनकी संपूर्ण रचनाएं संभालकर रखी हुई हैं।
उनका गौरवगान गाने वाले बांग्ला साहित्य के अनेक लेखक और कवियों ने अपने पूरे प्रयास किए। उनमें प्रमुख रूप से डॉ. आशुतोष भट्टाचार्य, डॉ, जगदीश भट्टाचार्य और डॉ. साधन कुमार भटटाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं।

इस ग्रंथ की रचना में काज़ी नज़रूल इस्लाम से संबधित अनेक ग्रंथों का आधोपांत अध्ययन एवं मनन किया गया है। उनसे यथोचित सहायता भी ली गई है। लेखक उन सबका आभारी है।

इस ग्रंथ के प्रणयन में मुझे जिनसे सतत सहयोग मिलता रहा है, उनमें मेरी पत्नी श्रीमती शोभा देवी, बेटी श्रीमती सुनीता देवी, ज्येष्ठ पुत्र चि. डॉ. सत्य प्रकाश सिंह, चिरंजीव कैप्टन इंदु प्रकाश सिंह और कनिष्ठ पुत्र चिरंजीव शील प्रकाश सिंह सम्मिलित हैं। इन सबने इसे देखने और संवारने में भरपूर हाथ बंटाया है।
अंततः यदि इसके प्रणयन में कहीं किसी प्रकार की कोई भूल-चूक हो गई है अथवा कोई अप्रासंगिक बात कह दी गई है तो लेखक उसके लिए क्षमा-याचना करता है। वह उन सभी सहृदय विद्वानों का समादर भी करेगा जो इस आद्योपांत पढ़कर अपने बहुमूल्य विचारों से इसके संशोधन में हाथ बंटाएंगे।

दानबहादुर सिंह

नज़रूलयुगीन परिस्थितियां


20 वीं शताब्दी ‘संक्रांति काल’ कही जा सकती है। इसकी प्रथमार्द्घ शताब्दी में बांग्ला देश तथा भारत में नाना समस्याएं एवं संकट दृष्टिगोचर हुए। इस प्रकार की समस्याएं यूरोप में भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भाव से देखने को मिलीं। इंग्लैण्ड और भारत के बीच नए-नए संबंधों के, विशेषतः विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में द्वार खुले। भारत का संबंध धीरे-धीरे अन्य उन्नतिशील एवं विकासशील देशों के साथ बढ़ा। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतरवर्ती काल में जो समस्याएं एवं संकट मूर्त रूप हो उठे थे, उनकी भयावनी काली छाया मनुष्यों के अंतरजीवन में भी प्रस्फुटित होने लगी। इस प्रकार विश्व इतिहास की परिक्रमा करके यदि देखा जाए तो पता चलेगा कि समस्याएं एवं संकट अशुभ रूप में ही अंकुरित हुए थे। 18वीं शताब्दी के शेष भाग में शिल्प-विप्लव भी बड़ी तेजी से हुआ।

इंग्लैंड के शिल्प–विल्लव के दौरान आर्थिक, नैतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में सदूरगामी परिवर्तन परिलक्षित हुए। इस विप्लव के धारा–क्रम में इंग्लैंड की सीमा–रेखा का कई बार अतिक्रमण हुआ और पृथ्वी पर उसके रूप चतुर्दिक परिव्याप्त हो गए। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने बंगला देश और भारत को अपना उपनिवेश बना लिया। भारत के समुद्री तटों से विप्लव की ये तरंगें भीतर प्रवेश करने लगीं। यूरोप में विज्ञान एक वरदान सिद्ध हआ लोगों के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने की मिले। जर्मनी के महामनीषी गेटे भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। बिहार के औधोगिक क्षेत्र धनबाद में व्यक्ति–स्वतंत्रता की बात चल पड़ी, किंतु धनी वर्ग में शोषण की प्रवृति बड़ी तेजी से बढ़ी जिसके कारण समाज तांत्रिक व्यवस्था की भावधारा ही बदल गई। विशेष सुविधाभोगियों के विरुद्ध जन-आंदोलन आरंभ हो गया। भारत में ब्रिटिश के आ जाने के कारण विदेशी शिल्प वाणिज्य एवं शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में यूरोपीय भावधारा बड़ी तेजी से पनपने लगी और युवा वर्ग उसकी तरफ आकृष्ट हआ।

प्रथम महायद्धोपरांत विज्ञान के क्षेत्र में जहां एक ओर प्रगित के लक्षण दिखाई दिये वहीं उसके कारण–कौशल को देखकर लोग भविष्य के प्रति आशांकित हो उठे। प्रथम युद्ध की विभीषिका में लाखों लोगों के काल-कवलित हो जाने के कारण विश्व में आतंकवाद और प्रमाद उत्पन्न करने वाली शक्तियों को बढ़ावा मिला। इसी कारण अनेक देशों में मुद्रास्फीति बढ़ी। बेरोजगारी और महामारी बढ़ गई। नैतिक मूल्यों का विपर्यय हुआ। विश्रृंखलता भी बढ़ी। प्रथम महायुद्ध में पराजित पक्षकी दुरावस्था का वर्णन नहीं किया जा सकता। नाना देशों में श्रमिक विक्षोभ की ज्वाला भड़क उठी। रूसी विप्लव की सफलता से श्रमिक आंदोलन को नूतन शक्ति मिली। विभिन्न देशों में श्रमिक वर्ग के भीतर श्रम-शक्ति को लेकर आत्मचेतना जाग्रत हुई।

जन आंदोलन की उत्ताल तरंगों को अवरुद्ध करने के लिए और महाजनी सभ्यता के स्वार्थ संरक्षण के उद्देश्य से उग्र जातीयवाद के चिन्ह दिखाई देने लगे। ये देश हैं-जर्मनी और इटली आदि। इन सब कारणों से वहाँ घृणा, आक्रोश, निर्मम शासनदंड और प्रताड़ना की सीमा न रही। युद्ध के फलस्वरूप उन्हें कुछ भी नहीं मिला। पारिवारिक विघटन आरंभ हो गए। जीविकोपार्जन के लिए समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। दुःख और दुर्दशा के कारण मनुष्य की नीतियों में परिवर्तन आ गए। पूर्णतः चैतन्य समाज के भीतर अचेतन भावना पनपने लगी और यौन प्रवृत्तियों को फैलाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। फ्रायड आदि मनस्तत्व चिंतकों की नूतन गवेषणा से जगत् में एक युगांतर आया। साहित्य तथा शिल्प के क्षेत्र में मनस्तत्व संबंधी नूतन गवेषणा से जगत् में एक युगांतर आया। अवधारणाओं के विभिन्न तथ्य खुलकर सामने आ गए।
सामाजिक एवं शास्त्रीय अनुशासन, नैतिक उत्पीड़न की बात धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। इसी कारण साहित्य शिल्पियों ने इन सबसे मुँह मोड़ लिए।

प्रथम महायुद्धोपरांत जनमानस पर बोझ बढ़ता गया। मानव–मूल्यों का ह्रास होने लगा और मृत्यु का भय दैनंदिन बढ़ने लगा। सभ्यता एवं संस्कृति भी ह्रासोन्मुखी होने लगी। इन सबके कारण साहित्य, संगीत और शिल्प प्रभृति में भी गिरावट आने लगी। संशय, अविश्वास एवं स्वार्थ की भावना युग मानस को राहु की तरह ग्रसने लगी। सार्वजनिक जीवन में आश्चर्यजनक नूतन मूल्यों की उद्भावना होने लगी। प्रथम विश्व यु्द्धोपरांत संकटापन्न पृथ्वी अब शनैःशनै मुक्त होने लगी।

ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप भारत में पाशचात्य शैली का अनुमान बड़ी तेजी से बढ़ा। भारत के अतिरिक्त बांग्ला देश में भी इस प्रकार का प्रभाव देखने को मिला। 1920 के आते-आते हमारे देश में सार्वजनिक, राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक जीवन में परिवर्तन के लक्षण प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देने लगे। इसने हमारे सांस्कृतिक जीवन को भी झकझोरकर रख दिया।

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