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मन-मृगछौना

कामिनी

प्रकाशक : आराधना ब्रदर्स प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6463
आईएसबीएन :000000

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मन-मृगछौना पुस्तक में डॉ. कामिनी के प्रेरणाप्रद निबंधों का संकलन है। यह निबंध विषय-वस्तु के साथ भाषा-भाव की दृष्टि से भी अपनी अहम भूमिका रखते हैं....

Man-Mrigchauna - An English Book - by Kamini

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


वर्तमान के प्रति संपूर्ण समर्पण जीवन को वास्तविक बनाता है। जीवन के साथ जगत जुड़ा हुआ है। जगत की परिधि अपने आसपास से आरम्भ होकर देश-देशान्तर तक जाती है। इस आत्म प्रसार में भावना का योगदान रहता है। भाव लोक से जुड़े हैं, घर-परिवार से जुड़े हैं, अपने-विरानों से जुड़े हैं, इसी से भाव की दुनियाँ का मुकाबला और कोई दुनियाँ नहीं कर पाती। मन-मृगछौना के अन्तर्गत जिन संदर्भों को एकत्रित किया गया है, वे संदर्भ मेरे मन में गहरे उतरे हैं।

इन निबन्धों में लोक-जीवन से बटोरी गई आस्थायें हैं। प्रेरक व्यक्तित्व हैं। भावना में डूबते-उतराते क्षण हैं और इन सब स्थितियों में मेरा मन मृग-शावक की भाँति चकित होकर कुलाचें भरता रहा है। संस्कृति के अन्तर्गत सहानुभूति का वातावरण समाया रहता है, इसी से संस्कृति सार्वजनीन संपदा है, जो चेतना को उद्बुद्ध करती है और वैचारिक उल्लास को ज्ञान के दंभ से बचाती रहती है। वर्तमान में हम सब घोर धार्मिक और साम्प्रदायिक वैमनस्य से पीड़ित हैं। धर्म उन्माद का रूप ले रहा है और ज्ञान दंभ से सरबोर हो चुका है। ऐसा स्थिति में लोक मूल्यों का महत्व अपने आप बढ़ जाता है। इन निबन्धों में मेरा मन अपनी माटी से निरन्तर लिपटा रहता है। आज चारों ओर भय, आतंक और नफरत का वातावरण है, ऐसे वातावरण में भी मुझे मेरा गाँव, मेरा अँचल, अपने लोग और अपना राष्ट्र बल-संबल देता है।

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