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सूर का भ्रमर गीत

पुरुषोत्तम बाजपेयी

प्रकाशक : आशा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6466
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत पुस्तक में सूरदास के भ्रमरगीत सार से सम्बंधित विभिन्न दृष्टिकोणों को दृष्टिगत रखकर विचार किया गया है।

Sur Ka Bhramar Geet - A hindi book by Purushottam Bajpai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आत्म निवेदन

प्रस्तुत पुस्तक में सूरदास के भ्रमरगीत सार से सम्बंधित विभिन्न दृष्टिकोणों को दृष्टिगत रखकर विचार किया गया है। इधर साहित्य के विधिवत अध्ययन के फलस्वरूप साहित्यकार के कृतित्व के प्रति धारणाओं में परिवर्तन हो रहा है। परन्तु जन-जीवन की शाश्वत भावनाओं को छूनेवाली मनोभूमि पर आधारित उद्गार बदलते युग धर्म की मान्यताओं के बीच अपना स्थान रखते हैं। सूरदास का ‘भ्रमर-गीत’ में अनेक विद्वानों द्वारा प्रणीत सूर साहित्य से लाभान्वित होकर ‘भ्रमर-गीत’ से सम्बन्धित प्रचलित मूल्यांकनों का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। डॉ. भोलाशंकर व्यास जी ने आमुख लिखकर तथा श्री सुधाकर पाण्डेय एवं डॉ. त्रिभुवन सिंह ने क्रमशः प्रेरणा एवं परामर्श देकर मुझे जो स्नेह एवं उत्साह प्रदान किया है वह अनुभूति की वस्तु है।
यदि इस रचना से ‘‘सूरदास के भ्रमर-गीत’’ के अध्येताओं को किंचित मात्र भी मान्यता प्राप्त हुई तो मैं अपने परिश्रम को सार्थक समझूँगा।

विनयावनत्
पुरुषोत्तम बाजपेयी

सम्मति


श्री पुरुषोत्तम बाजपेयी हिन्दी जगत् के लिये नये नहीं हैं। अपने अन्य समीक्षा ग्रन्थों द्वारा इन्होंने हिन्दी पाठकों के बीच अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। ‘सूरदास’ श्री बाजपेयी की अभिनव कृति है जिसके द्वारा इन्होंने अपनी मार्मिक समीक्षा शक्ति का परिचय दिया है। ‘महाकवि सूर’ अपनी कतिपय विषय एवं शैली गत विशेषताओं के कारण अपने काव्य के आविर्भाव से लेकर आज तक अत्यन्त लोक प्रिय रहे हैं। सहृदय पाठक, जागरुक समीक्षक एवं भक्तजन समान रूप से ‘सूर’ काव्य का सादर अध्ययन करते चले आ रहे हैं, पर आज भी उसका आकर्षक पूर्ववत् बना है जो सूर-साहित्य की महिमा का अनुपम रहस्य है।

लीला प्रभु श्रीकृष्ण को केन्द्र में रखकर ‘सूर’ ने विपुल पदों के निर्माण द्वारा हिन्दी साहित्य की भी वृद्धि की है, जिसके मर्म तक पाठकों को पहुँचाने में प्रस्तुत समीक्षा पुस्तक सोपान सिद्ध होगी इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं। उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए जिन मार्मिक प्रसंगों की जानकारी आवश्यक होती है, उनका सफल उद्घाटन बाजपेयी जी ने किया है। जिससे केवल छात्र ही नहीं बल्कि अध्यापक भी लाभान्वित हो सकते हैं। पुस्तक के सीमित कलेवर में यथा संभव उन सभी शीर्षकों की समाहित कर लेना जिनकी अनिवार्यता सूर-काव्य के अवगाहन में स्वयं सिद्ध है, बाजपेयी जी की अपनी कलात्मक विशेषता है, जिसके लिए निश्चित रूप से वे बधाई के पात्र हैं। ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग सूर काव्य का नवनीत कहा जाता है, जिसकी विशद चर्चा इस पुस्तक में हुई है। अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र में इस पुस्तक का समुदित आदर होगा, ऐसा सहज ही विश्वास किया जा सकता है। मैं श्री बाजपेयी जी की इस कृति का आदर करता हूँ।

भूमिका


एकांगी समाजशास्त्री नजरिये से किसी कलाकृति को परख करने पर कभी-कभी खतरा हो जाने का डर होता है। कलाकृति और कलाकर के कई पहलू शायद अधिकतर महत्त्वपूर्ण पहलू-छूटे रह जाते हैं और हम महज उसके बाहरी आलवाल, उसके आसपास पड़ने वाले प्रभाव तक ही चकर घिन्नी लगाया करते हैं। सूर हिन्दी के उन गिने चुने चोटी के कवियों में हैं, जिनकी असलियत एकांगी समाजशास्त्र चश्मे से देखने पर धुंधली दिखाई पड़ती है और कई बड़े-बड़े मूर्धन्य आलोचकों तक को सूर के कलाकार को पूरी तौर पर परखने में न केवल परेशानी हुई है बल्कि उन्होंने उसके बारे में गलत धारणा भी बना ली है। इसी तबके के लोगों ने हिंदी आलोचना में जबर्दस्ती सूर और तुलसी की तुलना के बखेड़े को पैदा किया है, जो अनावश्यक और अभीप्सित जान पड़ता है। मुझे खुशी है कि श्री पुरुषोत्तम जी बाजपेयी इस तरह के किन्हीं पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सूर की कला का आस्वादन करने बैठे हैं। आलोचक सबसे पहले भावुक सहृदय है; अगर वह सहृदय रसास्वादक नहीं बनता, तो उसका प्रकांड पाण्डित्य और गंभीर दार्शनिक घटाटोप अजायबघर या नुमायश की चीज हो सकती हैं, उससे साहित्य के विद्यार्थी का कोई वास्ता नहीं है। श्री बाजपेयी जी ने बड़ी ईमानदारी से सूर की कविता को फिर से पुनर्निर्मित (रिक्रियेट) करने की कोशिश की है। उनके ‘‘सूरदास का संगीत’’ और ‘‘सूरदास और श्रृंगार’’ और बाद के तीन चार परिच्छेद इसके सबूत हैं, जो इस आलोचना कृति की जान हैं। उन्होंने इस मूल चेतना को बखूबी पहचाना कि सूर मूलतः गीतिकार हैं और उसके काव्य का सौंदर्य उदात्त ‘लिरिकल’ सौन्दर्य है। उनकी महनीयता उसकी उदात्तता (सब्लिमिटी) महाकाव्यों प्रबंधकाव्यों की महनीयता और उदात्तता से भिन्न है, और इस तरह की महनीयता के लिहाज से अगर कोई गलदश्रु भाव सूर को तुलसी से भी महान् कलाकार घोषित कर दे, तो किसी को एतराज क्यों हो ?

सूर की कविता की सबसे बड़ी आकर्षण-शक्ति तो यह है कि उसमें लोक-काव्य की भूमि सोंधी गंध के साथ अभिजात काव्य की रुहे मुश्क भी घुली मिली है। तकनीक की दृष्टि से अनगढ़ ग्रामीणता पर परिष्कृत नागरिकता का विचित्र किंतु मणिकाञ्चन संयोग शायद इतने प्रभावास्वर रूप में कहीं-कहीं मिलेगा, उसकी कुछ झलक अष्टछाप में भी सिर्फ परमानंद से मिल सकती है। जड़िया कवि नंददास के यहाँ जड़ाव को अतिशयता अनाविल लावण्य के दर्शन नहीं होने देती और बाद के कृष्ण भक्त कवियों ने तो ब्रज की चम्पा-चम्पा जमीन को ब्रजयात्रा करने पर भी उसकी आत्मा पहचानने में, कृष्ण की विविध लीलाओं को मंदिरों में गान और अभिनय करने पर भी उन्हें मानस के सेलुलाइड पर उतारने की क्षमता का परिचय देने में उतनी सफलता नहीं दिखाई है, जितनी इस अंधे सूर ने, जिसने करील कुंजों की हर लता के इशारे को, कलिंदजा को हर अभिभंगी की करवट के स्पंदन को जाना-पहचाना ही नहीं, प्रतिक्षण महसूस किया है जिसने कृष्ण और गोप-बालकों की हर उछल-कूद, शैतानी और छेड़खानी में जी भर कर खुद भी हाथ बँटाया है और नंदनंदन के मधुर मुरलीरव की मुहताज, उनकी चंद्रिका के पान के लिये तड़पती चकोरियों के साथ स्वयं भी अपने श्रवणों और रसना को ही आँखें बनाकर वियोग में निरर्गल अश्रुधारा बहाई है। सूर ने भावनाओं की जिन विविध भंगिमाओं की स्वानुभूति विवृति की है, जिन बिंबो को अपनी तूलिका से सजीव सृष्टि दी है; उन्हीं का चर्चित चर्वण करते-करते बाद के कृष्णभक्त कवि रसानुभव करते रहे हैं। कहा जाता है कि ‘बाणीच्छिष्टं जगत् सर्वम्’ पर ब्रजभाषा के कृष्ण काव्य की दुनिया के बारे में भी कहा जा सकता है-

सुरोच्छिष्टं जगत् सर्वम्।


शुद्ध कलावादी कवि-आलोचक एजरा पाउण्ड और समाजशास्त्रीय आलोचना के जन्मदाता कार्लमार्क्स दोनों ने ही यूरोप की प्रोवाँसलि फ्रेंच और स्पेनिश के भाषाक्षेत्रों के बीच में बोली जाने वाली रोमन भाषा है, जिनका मध्ययुगीन साहित्य अत्यधिक समृद्ध है। यह साहित्य शौर्य-गीतियों और श्रृंगारी प्रेम-गीतियों के लिये विशेष प्रसिद्ध है।

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