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कृष्ण की आत्मकथा - संघर्ष

मनु शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6519
आईएसबीएन :81-7315-271-3

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‘कृष्ण की आत्मकथा’ का सातवां भाग

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Krishna ki Atmakatha - Sangharsh - A hindi book by Manu Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण के अनगिनत आयाम हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ में कृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है।
यथार्थ कहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है :

नारद की भविष्यवाणी
दुरभिसंधि
द्वारका की स्थापना
लाक्षागृह
खांडव दाह
राजसूय यज्ञ
संघर्ष
प्रलय

नियति ने हमेशा मुझ पर युद्ध थोपा - जन्म से लेकर जीवन के अन्त तक। यद्यपि मेरी मानसिकता सदा युद्ध विरोधी रही ; फिर भी मैंने उन युद्धों का स्वागत किया। उनसे घृणा करते हुए भी मैंने उन्हें गले लगाया। मूलतः मैं युद्धवादी नहीं था।
जब से मनुष्य पैदा हुआ तब से युद्ध पैदा हुआ - और शांति की ललक भी। यह ललक ही उसके जीवन का सहारा बनी। इस शांति की ललक की हरियाली के गर्भ में सोए हुए ज्वालामुखी की तरह युद्ध सुलगता रहा और बीच-बीच में भड़कता रहा।
लोगों ने मेरे युद्धवादी होने का प्रचार भी किया ; पर मैंने कोई परवाह नहीं की, क्योंकि मेरी धारणा थी - और है कि मानव का एक वर्ग वह, जो वैमनस्य और ईर्ष्या-द्वेष के वशीभूत होकर घृणा और हिंसा का जाल बुनता रहा - युद्धक है वह, युद्धवादी है वह। पर जो उस जाल को छिन्न-भिन्न करने के लिए तलवार उठाता रहा, वह कदापि युद्धवादी नहीं है, युद्ध नहीं है।... और यही जीवन भर मैं करता रहा।

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