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मंत्रिमंडल

राजकृष्ण मिश्र

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :639
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6557
आईएसबीएन :81-7055-487-X

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राजनीतिक उपन्यासों के लेखन में सिद्धहस्त राजकृष्ण मिश्र के इस नये उपन्यास में एक प्रदेश के बहाने पूरे भारत राष्ट्र की राजनीतिक दशा-दुर्दशा को बेनकाब किया गया है।

Mantrimandal - An Hindi Book by Rajkrishan Mishra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उस दिन राजभवन में, मंत्रिमण्डल के शपथ ग्रहण में, केवल तीन मन्त्री बन पाये थे, स्वयं उत्सुकदास, दूसरे लोबीराम और तीसरे थे, भीमसिंह।
उत्सुकदास का मन बड़ा उदास था। चारों तरफ शोरगुल था, जयजयकार, माला, फल, फूल, स्वागत के दौर थे और था एक कभी न खतम होनेवाला उत्सव जो सुबह से देर रात तक चलता रहता। इसी सबके लिए तो उन्होंने संघर्ष किया था। यह सब पाने के लिए पिछले तीन महीनों में, उन्होंने अपनी सारी जमा-पूँजी, सारी सुख, आत्मा की समस्त ताकत, व्यक्तित्व के सारे अरमान खर्च कर डाले थे। उस दिन उनके और सत्ता के बीच न तो कोई था, और न ही कोई दीवार थी। वह प्रदेश के मुख्यमन्त्री बन चुके थे। शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने हजारों लोगों की भीड़ के सामने सरकार की बागडोर सँभाली थी। कोई नहीं जानता था, किसी को मालूम नहीं था, उत्सुकदास का खेल क्या था। वह तो चुपके से जैसे किसी की आँख का काजल, किसी की नजर का चोर, किसी मन की शंका, किसी का लोभ किसी का भय, किसी की घृणा, किसी की सहमति, किसी का स्नेह, किसी का धन्धा और किसी की आकांक्षा, समेट-समेटकर अपने अन्दर आत्मसात् कर चुके थे। उनको मालूम था, एक चीज का आँख का काजल, किसी की नजर का चोर, किसी की मन की शंका, किसी का लोभ किसी का भय, किसी की घृणा, किसी की सहमति, किसी का स्नेह, किसी का धन्धा, और किसी की आकांक्षा, समेट-समेटकर अपने अंदर आत्मसात कर चुके थे। उनको मालूम था, एक एक चीज का हिसाब देना था उनको। एक-एक करके, सब के सब किसी गिद्ध की तरह, अपना-अपना हक, अपना-अपना अधिकार, अपना-अपना लोभ, स्वार्थ, नोच-नोचकर ले जाने के लिए आनेवाले थे। इतने वादे, इतनी प्रतिज्ञाएँ, इतने आश्वासन, वह भला कहाँ पूरा कर सकते थे। छोड़कर कहीं जाने का सवाल ही नहीं था और ना था अवसर, किसी बात से पीछे हटने का। जो हो गया था, वो हो गया था।

उत्सुकदास को मालूम था, किस भयावह स्थिति में वह पहुँच चुके थे। यद्यपि उनको मुख्यमन्त्री बना दिया गया था, उनके किसी आदमी को मन्त्रिमण्डल में शामिल नहीं किया गया था। यहाँ तक कृष्णबल्लभ को पार्टी से निलम्बित करने की घोषणा खुद उनके संरक्षक, उनके गुरु गुरुपदस्वामी ने कर दी थी। जहाँ एक तरफ बलदेव चौधरी, रंगीनराय का गुट मजबूत हुआ था, वहाँ दूसरी तरफ, लोबीराम का मन्त्री होना एक राजनैतिक भूल थी, एक ऐसा दाँव था, जिसकी वजह से वह जानते थे, मन्त्रिमण्डल बनने से पहले ही खत्म हो गया था। लोबीराम तब तक परछाइयों की राजनीति किया करते थे। उनको पैसे से मोहब्बत थी और लोग उनको पैसे दे दिया करते थे। कभी, कहीं, किसी भी तरह, लोबीराम ने पद, प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष नहीं किया, कोई लड़ाई नहीं लड़ी। लोबीराम असल में अपनी, औकात में रहा करते थे। लेकिन उस दिन उनको राजनैतिक परिस्थितियों ने उठाकर एक ऊँचे मुकाम पर बैठा दिया था। उत्सुकदास को हैरत हो रही थी हाई कमांड के अधकचरे नेताओं के, सड़े-गले दिमाग पर, जो इतना भी समझ नहीं सके, लोबीराम एक ऐसा सुलगता हुआ बम था, जिसे कभी भी, कोई भी, पलीता लगाकर फोड़ सकता था। उसके बाद उत्सुकदास जानते थे, कुछ नहीं बचेगा, सब कुछ नेस्तनाबूद हो जायेगा, बिखर जायेगा। उधर भीमसिंह नाम का एक जानवर उनके गले में बाँध दिया गया था। उनको मालूम था, जिस तरह की राजनीति वह करते थे, उसमें भीमसिंह की कोई जगह नहीं हो सकती थी। खयालीपुलाव, कागजी बातें, सपनों के आदर्श से सरकारें नहीं चला करतीं।

लोबीराम, पहली बार मन्त्री बने थे, इसलिए उनसे चूक हो गयी थी। उत्सुकदास तो पुराने खिलाड़ी थे, सारा खेल, उनका ही रचा हुआ था उनसे कोई भूलचूक होने का प्रश्न ही नहीं उठता। भीमसिंह, शपथ तो किसी तरह निकाल ले गये, लेकिन, शपथ-समारोह के बाद राजभवन की चाय पार्टी में, वह ज्यादा देर टिक न सके। वैसे भी, बहुत लोगों को यह पता नहीं था, भीमसिंह कहाँ से टपक पड़े। वह न तो गुरुपदस्वामी गुट के थे, न ही बलदेव चौधरी रंगीनराय के गुट के। उनको मन्त्री न तो दरोगा ने बनवाया था न ही बलरामशास्त्री ने। उनका नाम पहलेवाली सूची में नहीं था। वह विधानसभा के सदस्य भी नहीं थे। वह थे विधान परिषद के सदस्य। और वहाँ भी उनकी सदस्यता समाप्त होने में बस कुछ ही दिन बाकी थे। वह न तो भीम की तरह विशालकाय शरीर के स्वामी थे और ना ही सिंह की तरह फुर्तीले और अपार बलवान। उनकी शक्ल किसी चूहे की तरह थी लेकिन, उनके बड़े-बड़े कान, चेहरे से अलग भागने को तैयार खड़े रहते। उनकी गोल खोपड़ी में, लेकिन, लोगों के अनुसार, बड़ी-बड़ी योजनाएँ थीं, आर्थिक नव-निर्माण के न जाने कितने फार्मूले उन्होंने तैयार कर रखे थे। हुआ यूँ, जब पार्टी अध्यक्ष, राज्यपाल सदाशिवनारायण बरुआ के पास, प्रदेश के राजनैतिक संकट के विषय में, बातचीत करने गये थे, उसी समय राज्यपाल की चुन्दी आँखों ने, पार्टी अध्यक्ष के अन्दर चल रहे, धर्मयुद्ध के बारे में कुछ अनुमान लगा लिया था। ऐसे मौकों पर राज्यपाल की शिकारी तबीयत को कुछ चाहिए जरूर था, किसी का सिर या किसी का ताज। राज्यपाल की, उत्सुकदास के लिए झारदार गालियों का प्रवाह जब रुका तो इसके पहले, पार्टी अध्यक्ष कुछ कहते, राज्यपाल ने भीमसिंह के गुणों का बखान करना शुरू कर दिया था। मन्त्रिमण्डल की समस्या थी। सूची बदलने की समस्या थी। बलदेव चौधरी और कृष्णबल्लभ यादव का नाम मन्त्रिमण्डल की सूची से कटना था और लोबीराम का नाम जोड़ा जाना था। इस फेरबदल के कारण पूरी सूची में अनेक परिवर्तन, अवश्यम्भावी हो गये थे। उधर पार्टी अध्यक्ष, विरोधी गुट की बचकाना हरकतों से इतने आतंकित हो चुके थे कि उन्होंने अपने समस्त कौशल से अपने मन में उत्सुकदास के प्रति उफान मारते नफरत के नाग को कुचलकर, उत्सुकदास को मुख्यमन्त्री बनाने का निर्णय ले लिया था।

कोई चारा नहीं था। समय, तेजी से भागता जा रहा था। शपथ ग्रहण समारोह के पहले, विधायकों की बैठक भी होनी थी। मन्त्रिमण्डल की सूची में बिना हाईकमाण्ड के विचार-विमर्श के फेरबदल करना सम्भव नहीं था। टेलीफोन पर इतनी लम्बी बातचीत करना सम्भव नहीं था। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष की सहमति से, गुरुपदस्वामी ने मन्त्रिमण्डल की सूची को ही छोड़ देने का प्रस्ताव रखा था। पार्टी अध्यक्ष, इसके पीछे गुरुपदस्वामी की चाल समझ नहीं सके। गुरुपदस्वामी असल में, राजनैतिक संकट के बहाने, मंत्रिमण्डल में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए समय चाहते थे। बलरामशास्त्री के अतिरिक्त, उस सूची में उनका कोई विश्वासपात्र नहीं था। जाहिर था, लोबीराम का नाम आगे बढ़ाने में, और कृष्णबल्लभ का नाम, वापस लेने में, गुरुपदस्वामी, एक तीर से दो शिकार कर रहे थे।

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