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भारत की मूर्तिकला की कहानी

भगवतशरण उपाध्याय

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 660
आईएसबीएन :9788170284666

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भारत की मूर्तिकला की विशेषताओं का वर्णन...

Bharat Ki MurtIkala Ki Kahani a hindi book by Bhagwat Sharan Upadhyay -भारत की मूर्तिकला की कहानी -भगवतशरण उपाध्याय)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय मूर्तिकला

पूजा और आनन्द के लिए आदमी ने प्राचीन काल से ही चित्र और मूर्तियां बनानी शुरू कर दी थीं। क्या भारत और क्या विदेश, सब जगह ऐसी तस्वीरें और मूर्तियाँ मिली हैं जिनसे पता लगता है कि पूजा के लिए अथवा खाली समय बिताने के लिए मनुष्य तस्वीरें या मूर्तियाँ बनाया करता था। टोना-टोटका तब की पूजा थी। आहार तब का सुख था।

आज से कोई बीस हजार साल पहले तक की तस्वीरें हमें मिली हैं। ये पहाड़ी गुफाओं की दीवारों पर, शिकार करने के पत्थर, हाथी-दांत, हड्डी या धातु के शिकार करने के पत्थर, हाथी-दांत, हड्डी या धातु के हथियारों पर खिंची हुई हैं। तांबे आदि धातुयों की ऐसी मूर्तियां भी मिली हैं जो आदमी की शक्ल की हैं और पूजा के काम में आती थीं।

भारत में तो मूर्तियों की पूजा बराबर होती ही रही है। पुराने समय में दुनिया के सभी देशों में लोग मूर्तियां पूजते रहे हैं। हर जगह बड़ी तादात में मूर्तियां मिली हैं। बाहर कई कारणों से मूर्ति-पूजा बन्द हो गई पर हमारे देश में वह चलती रही और आज भी चल रही है। मजे की बात तो यह है कि आदमी आरंभ में जंगली और नंगा रहा है, बिना घर-द्वार के वन-वन भटकता रहा है, पर सुन्दर चीजें उसे बराबर अपनी ओर खींचती रही हैं, मूर्तियों का बनना इसी का परिणाम था यही कला का आरंभ था।

मूर्तियों केवल पूजने के लिए ही नहीं बनीं, खेलने के लिए भी बनीं और आज हमारे पास बहुत प्राचीन काल के लाखों खिलौने मौजूद हैं। खिलौने-आदमी, जानवर, चिड़िया, मछली, मगर-सभी शक्ल के हैं जो आदमी के द्वारा बनाये गए हैं या सांचे में ढांले गए हैं। कई बार तो इनकी खूबसूरती मन को बरबस मोह लेती है। मूर्तियाँ धातु से लेकर मिट्टी तक की बनी हैं-सोना, चांदी, तांबा, पीतल, कांसा, रांगा, कांच, लोहा, हड्डी, हाथीदाँत, रत्न, लकड़ी, पत्थर, मिट्टी, सभी चीजों की। साधारण तौर पर घर में पूजा करने या खेलने के लिए गीली मिट्टी की मूर्तियाँ पहले हाथ से ही बना ली जाती थीं, फिर उन्हें धूप में सुखा लेते थे या आग में पका लेते थे।

बाद में ये साँचे में ढाली जाने लगीं और देखने में काफी सुन्दर भी लगने लगीं, इन मूर्तियों से आज हमारे अजायबघर भरे पड़े हैं। इन मूर्तियों का सिलसिला कई तरह का है और उनकी समझ या जानकारी के लिए उन्हें एक खास क्रम से जानना जरूरी हो जाता है। जैसे किसी मकान को आप नीचे से ऊपर या ऊपर से नीचे देखते हैं, वैसे ही मूर्तियों की जानकारी भी समय के क्रम से करनी चाहिए। इससे उनका अध्ययन आसान हो जाता है।

काल के विचार से हम अपनी मूर्तियों को दस हिस्सों में बांटकर देखेंगे। इनमें से कुछ हजारों साल पहले बनीं, कुछ मध्य काल में और कुछ हाल की ही बनीं हैं। इन सभी को जानवरों के समय के अनुसार अलग-अलग नाम दे दिए हैं। ये नाम इतिहास के युगों से बंधे हुए हैं और इनको ध्यान में रखने से प्रकट हो जाता है कि कौन-सी मूर्तियां किस युग में बनीं, आज से जितना पहले, और उनको कैसे पहचाना जा सकता है या उनका रूप कैसा है।

इस प्रकार के करीब दस युग समझ लीजिए। ये मूर्तियां कब बनीं थीं, यह तो हम बाद में बताएंगे, पर उनके नाम आप अभी जान लें-

1. सिन्धु-सभ्यता का युग
2. मौर्य काल से पूर्व का युग
3. मौर्य राजाओं का युग
4. शुंग युग
5. कुषाण युग
6. गुप्त युग
7. पूर्व-मध्य युग
8. उत्तर-मध्य युग
9. दक्षिण की मन्दिर-मूर्तियां (मन्दिर-मूर्तियों का युग)
10. वर्तमान युग

 

सिन्धु सभ्यता का युग

 

आज से करीब पांच हजार साल पहले कलियुग का आरम्भ माना जाता है। हालांकि इतिहास इस तरह का तो कोई युग नहीं मानता, मगर जब से कलियुग का आरम्भ माना जाता है तब भारत में एक ऐसी सभ्यता फैली हुई थी जो संसार की सबसे पुरानी सभ्यताओं में गिनी जाती है।
उस सभ्यता को विद्वान् ‘सिन्धु घाटी की सभ्यता’ कहते हैं। संसार की सभी पुरानी सभ्यताएं नदियों के किनारे ही जन्मीं और बढ़ी-जैसे मिस्र की सभ्यता नील नदी के किनारे, सुमेर की सभ्यता दजला-फरात नदियों के किनारे तथा चीन की सभ्यताएँ भी सिन्धु, गंगा और नर्मदा नदियों के किराने पनपीं और बढ़ी।

हम पहले जिस सभ्यता का हाल अभी लिखने जा रहे हैं वह सिन्धु नदीं के किनारे दक्षिणी, पंजाब, सिन्धु और बलोचिस्तान में फैली।, इसी से उसे साधारण तौर से सिन्धु या सिन्धु घाटी की सभ्यता कहते हैं। इस सभ्यता का पता हमें अधिकतर वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में मांटगुमरी जिले के हड़प्पा और सिन्धु प्रान्त में लरकाना जिले के मोहनजोदड़ो की खुदाइयों से चला है। वहां के टीलों को खोदकर अन्वेषकों ने पूरे शहर निकाल दिये हैं।

इनसे पता चलता है कि जहां सिन्ध में आज रेगिस्तान फैला पड़ा है, रेत उड़ती है, वहां कभी गेहूँ के खेत लहलहाते थे, हरियाली से जमीन ढकी थी। कला-कौशल की विशेष उन्नति नगरों में होती है। सिन्धु की सभ्यता शहरी थी क्योंकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा नगर थे।

उनमें अच्छी सड़कें थी जिन पर लगातार दो मंजिले मकान खड़े थे। ये मकान धूप में सुखाई या आग में पकाई ईंटों से बने थे। नगरों में सफाई का खास प्रबन्ध था। गन्दा पानी बहने के लिए नालियां बनी थीं। शहर के लोग बड़े-बड़े तालाबों में नहाते थे। ये तालाब कुएं के जल से भरे जाते थे। लोग चरखे से सूत कातकर उससे करघे पर खादी-सा कपड़ा बुनकर पहनते थे।

सिन्धु-सभ्यता में रहने वालों के पास धातुओं, पत्थर और मिट्टी के बने बड़े सुन्दर बर्तन-भाड़े थे। मिट्टी के बने मटकों और दूसरे छोटे-बड़े बर्तनों पर मनमोहक चित्र बने रहते थे या कई प्रकार के रंग चढ़े रहते थे।

वहां जो हजारों की तादात में धातु, हड्डी, हाथीदाँत, रत्न, कांच और मिट्टी की मूर्तियां, खिलौने और ठीकरे मिले हैं, उनसे उस सभ्यता के कला-कौशल का पता चलता है। उनकी सुन्दरता के क्या कहने, सीधे मन को मोह लेती हैं। आदमी उन्हें देखता ही रह जाता है मूर्तियों में से अनेक तो पूजा के हाथ से या सांचे में ढालकर बनाई गई हैं,

अनेक खेलने के लिए। लगता है, लोग देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाकर पूजते थे। एक ठीकरे पर तो त्रिशूल से मिलती-जुलती सींगों वाले देवता की मूर्ति उभरी हुई बनी है। उसके चारों ओर जानवरों की तस्वीरें खुदी हैं जिससे विद्वानों ने अटकल लगाया है कि वह प्राचीनकाल के शिव की मूर्ति है। उस शिव के सारे पशुओं का स्वामी होने से, बाद में उसे ‘पशुपति’ कहने लगे थे।

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