लोगों की राय

विविध >> स्पाउस

स्पाउस

शोभा डे

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :269
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6631
आईएसबीएन :0-14-306213-1

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

248 पाठक हैं

शादी का सच बताती शोभा डे की कलम से एक रोचक किताब

Spouse Shadi Ka Sach - A Hindi Book - by Shobha Dey

इसमें शक की कतई गुंजाइश नहीं कि शादी एक ख़ुमार है। लेकिन यह एक अजीब ही किस्म का ख़ुमार है। क्योंकि इसमें भी शक की गुंजाइश नहीं कि यह अगर एक बार उतर गया तो नासूर का रूप ही अख़्तियार कर सकता है। यह कहना है कर्तव्यनिष्ठ पत्नी, छह बच्चों की मां और मशहूर लेखिका शोभा डे का। उनका मानना है कि शादी नाम है अपनी निजी ज़िंदगी और पति/पत्नी, बच्चों, और ससुराल वालों की ज़िंदगी के बीच तालमेल बिठाने का, और शादी से पहले और बाद की अपनी जिंदगी के दो अलग-अलग दौरों के बीच संतुलन कायम करने का।

समाज की इस शायद सबसे ज़्यादा विवादित संस्था के बारे में लिखी इस दिलचस्प किताब में शोभा डे ने बताया है कि शदियां क्यों और कैसे सफल और असफल होती है। समाज के स्थापित और रूढ़िवादी नज़रियों के प्रति अपने बागी तेवर बरकरार रखते हुए वे मौजूद दौर के परिप्रेक्ष्य में शादी की नई परिभाषा देती हैं। शादीशुदा ज़िंदगी में आमतौर पर पेश आने वाले मुद्दे, एक तरफ़ अपनी निजी ज़िंदगी और दूसरी तरफ़ पति/पत्नी, बच्चों और कैरियर के बीच अकसर खड़ी होने वाली दिक़्क़तों, सास और बहू के बीच का शाश्वत संघर्ष, साफ़गोई की ज़रूरत, रोमांस की अहमियत (नहीं, प्रेम जताना ग़ैर-मर्दाना नहीं है !) व़गैर शादी से संबंधित शायद ही कोई मुद्दा ऐसा हो जिसे इस किताब में लेखिका ने अनछुआ छोड़ा हो।

रोचक, जानकारी से भरपूर और इस सबसे ज़्यादा व्यावहारिक–संबंधों पर लिखी गई यह अपने आप में संपूर्ण किताब है, उन सभी लोगों के लिए जो शादी के खुमार को ज़िंदगी भर कायम रखना चाहते हैं।

एक
आ गले लग जा


मुझे अपने पति का हाथ थामना अच्छा लगता है। उन्हें भी मेरा हाथ थामना पसंद है। पर डे थोड़े शर्मीले हैं। इसीलिए जब हम पब्लिक में होते हैं, तो वे अपनी बांह बढ़ा कर सामने देखते रहते हैं, जैसे किसी घने जंगल में डाकुओं को देख रहे हों। अगर मैं उनकी उंगलियों में अपनी उंगलियां फंसाने की कोशिश करूं, तो उनके चेहरे का भाव बदल जाता है और पीठ तन जाती है। शायद उन्हें लगता है इस उम्र में हम बचकाने लग रहे होंगे। हो सकता है वे सही ही सोचते हों। पर मुझे इसकी फ़िक्र नहीं होती। मेरे बच्चों को भी मेरी ये हाथ पकड़ने की आदत अटपटी लगती है। ख़ासकर बड़ी बेटियां खीझती रहती हैं, ‘हम अब बच्चे नहीं रहे...प्लीज...हम ख़ुद सड़क पार कर सकते हैं।’ शायद मेरे पति और बच्चे ये नहीं समझ पाते कि इसका संबंध डाकुओं से बचाव या सुरक्षित सड़क पार करने की उनकी क्षमता या अक्षमता से नहीं है–इसका संबंध मुझसे है ! शायद मैं डरती हूं कि कोई कार टक्कर न मार दे। शायद मुझे घने जंगलों में असामाजिक तत्वों से सुरक्षा चाहिए। या, शायद, मुझे उनका हाथ पकड़ना पसंद है !

बहुत से दंपती एक-दूसरे को स्नेह से, बिना कामेच्छा के, स्पर्श करना छोड़ देते हैं–आपने नहीं देखा ? कोई स्पर्श नहीं, ना ही आंखें मिलाना। कितना दुखद है ! जबकि हल्के से हल्का स्पर्श भी वह असर कर सकता है जो अक्सर हज़ारों शब्द भी नहीं कर पाते–कि दूसरा व्यक्ति एक अंतरंग से अहसास से भीग जाए।

यद्यपि मेरा लालन-पालन अलग ढंग से हुआ था। मेरे परिवार में स्पर्श लगभग वर्जित सा था। जैसा कि आम भारतीय परिवारों में होता है। स्नेह के प्रदर्शन को बढ़ावा नहीं दिया जाता था, ख़ासकर जब बच्चियां बच्चियां नहीं रहती थीं। यहां तक कि मेरी मां जो बहुत स्नेहमयी थीं, उन्होंने भी शायद ही कभी अपने किसी बच्चे को सीने से लगाया हो या चूमा हो। हमें ये अजीब भी नहीं लगता था, क्योंकि हमें पता नहीं था कि इसके अलावा भी कुछ होता है। मुझे याद नहीं कि कभी मैंने अपने पिता को हमारी मौजूदगी में मां के कंधे पर हाथ रखते भी देखा हो, और मैं भी इन्हीं वर्जनाओं के साथ बड़ी हुई।

मैं मानती हूं कि डे का लालन-पालन भी इसी तरह से हुआ था। वे अभी भी काफ़ी हद तक रिज़र्व से हैं, ख़ासकर तब जब हम घर से बाहर होते हैं। हालांकि, हम अपनी और अपने बच्चों की ज़िंदगी में स्पर्श की अहमियत पर बात करते हैं। आजकल, अक्सर काम से वापस आने के बाद वे मेरे माथे पर हल्का सा चुंवन देने लगे हैं। इसमें भी जैसे एक चोरी का सा भाव होता है–जैसे कोई स्कूली लड़का चोरी से जल्दबाज़ी में चुंबन ले। और मैं, मेरी एक नज़र किचन के दरवाज़े पर रहती है, कि कहीं नौकरानियों ने तो नहीं देख लिया। हम इस पर हंसते हैं, पर न सहज हो पाते हैं, न बदलते हैं।

स्पर्श, जैसा कि सभी मनोवैज्ञानिक कहेंगे, बहुत ज़रूरी है। यहां तक कि पशुओं के बच्चों को भी अगर प्यार से थपथपाया या दुलराया न जाए, तो वे भी दूर हो जाते हैं। यही बात इंसानों के साथ है। ज़बानी माफ़ी मांगने से बेहतर विकल्प आलिंगन है। युवा जोड़े अक्सर दोनों चीज़ें–आलिंगन और माफ़ी मांगना– भूल जाते हैं। इस सवाल पर उनमें से अधिकांश कंधे झटक देते हैं और उलझे से नज़र आने लगते हैं। मैं उनसे पूछती हूं कि बिना सेक्स की इच्छा के वे एक-दूसरे को बांहों में थाम कर कभी समय बिताते हैं या नहीं। बहुत ही कम, उनका जवाब होता है।

एक-दूसरे के शरीर को जानना बाहरी शारीरिक गुणों पर ध्यान केंद्रित करने से कहीं ज़्यादा होता है। वह व्यक्ति जो अपने जीवनसाथी के शारीरिक स्वरूप में गहरी दिलचस्पी लेता है, उसे उसकी वे सब छोटी-से छोटी बातें–कोई नज़र से छुपा हुआ तिल, जन्मचिन्ह, किसी पुराने ज़ख़्म का निशान-भी पता होंगी, जो उस व्यक्ति को अनुठा बना देती हैं। ये खोजें तभी हो पाती हैं जबकि खोज गहनता से और पूरी तरह की जाएं। अक्सर स्त्रियों को परखा जाना पसंद नहीं होता। याद करें ब्रिजेट जोन्स की दूसरी फ़िल्म का वह दृश्य, जिसमें वह अपना ‘थुलथुल बदन’ छुपाने के लिए लिहाफ़ में दुबक जाती है।

(स्पर्श विश्वास है। सिर्फ़ वही जो आपको चाहते हैं और जिन्हें आप चाहते हैं। प्यार से हाथ बढ़ा कर बिना कहे जज़्बात व्यक्त कर सकते हैं। स्पर्श को स्वीकार करें और उसका जवाब दें।)

पुरुषों को पूर्णत्व से कोई ख़ास मतलब नहीं होता। आमतौर पर, पुरुष अपने शरीर और शारीरिक क्रियाओं को ले कर कहीं अधिक सहज रहते हैं। स्त्रियां छुपाती हैं। पुरुष अकड़ कर चलते हैं। बेहद आकर्षक फ़िगर वाली महिलाएं भी अक्सर मानती हैं कि उन्हें अपने बदन का कोई एक हिस्सा नापसंद है, इस हद तक कि वे उस ‘दोष’ को छुपाने के लिए दब-ढक कर रहती हैं, या नग्न दिखने से मना कर देती हैं, जब तक कि बत्तियां न बुझा दी जाएं। जबकि बेहद बेढंगे, बालों भरी पीठ, गंदे मस्सों, लटकी तोंद और लंबी टांगों वाले पुरुषों को नंगे पड़े रहने में कोई परेशानी नहीं होती, यहां तक कि भीड़ भरे बीचों पर भी वे ख़ुद से अनजान अपना प्रदर्शन करते रहते हैं।

मेरी एक बहुत प्यारी मित्र ने ख़ुशी से उमगते हुए मुझे बताया कि आख़िरकार वह अपनी जांघों को लेकर सहज हो गई है ! ये तब हुआ जब उसके पति ने उसकी असुरक्षा को भांप कर उसकी ये नापसंदगी दूर करने में यह कह कर मदद की कि उसे उसके शरीर का वह भाग विशेषकर बहुत सैक्सी लगता है। उस पुरुष ने झूठ भी नहीं कहा था–उसे वाक़ई ऐसा लगता था। उसने यह ज़ाहिर कर दिया। इतने ख़ुश वे कभी नहीं रहे थे।

यहां ‘स्पर्श थेरेपी’ पर एक नज़र डाली जा रही है। ये कैसे काम करती है...कैसे ये कारगर होती है।
प्यार भरा स्पर्श तीखे शब्दों को भी बेअसर कर सकता है।
हर स्पर्श कामुक नहीं होता। बिना कुछ कहे बांहों में थामने से बढ़ कर कोई मनौवल नहीं है।

घर पर आराम करते हुए या टीवी देखते हुए हाथ थामना सबसे ज़्यादा असरकारी है। इस सादा सी क्रिया के ज़रिए बहुत कुछ कहा जा सकता है। हल्के से गुथी उंगलियां कहती हैं, ‘हम दोस्त हैं–तुम मुझे पसंद हो, ‘या’ ‘तुम्हारे साथ होना, इन पलों को बांटना अच्छा लग रहा है,‘ या’ ‘हम क़िस्मतवाले हैं ना कि हमें एक-दूसरे का साथ मिला है ?’’

स्पर्श कोई भी रूख़ ले सकता है। अगर यह सैक्स की ओर ले जाए, तो इसे समझना बहुत आसान है। अगर यह गुनगुना, तसल्ली भरा आलिंगन भर है, तो ये भी स्पष्ट होता है। यह आवश्यक है कि आपका साथी आपके स्पर्श के सही अर्थ को समझे। मैं ऐसे दंपतियों को जानती हूं जो आलिंगन के ‘मायनों’ को ले कर झगड़ा करने में लग जाते हैं।

स्पर्श करते रहना ज़रूरी है। इसके लिए कुछ प्रयत्न करना पड़ सकता है, क्योंकि स्पर्श करना हमारे लिए स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है। हमें पहले अपनी भीतर की झिझक तोड़नी होगी, जो हमें शारीरिक स्पर्श करने से रोकती है। इसके बाद हमें स्पर्श थेरेपी की पूरी बारीक़ियां जाननी होंगी।

जब आपका जीवनसाथी आपके ऊपर झुक कर अपना प्रेम व्यक्त करे, बाल सहलाए, हल्के से गाल मसल दे, बांह या गर्दन थपथपा दे या मेज़ के नीचे आपके अंगूठे से ठिठोली करे, तो परे ना हटें।
उंगलियों के पोरों में आपकी कल्पना से कहीं ज़्यादा संवेदनशील रंगे होती हैं। इनका भरपूर इस्तेमार करें। स्पर्श में रुचि रखने वाला व्यक्ति अपने संबंधों में शारीरिक संपर्क से बचने वाले व्यक्ति की अपेक्षा कहीं गहरी प्रगाढ़ता हासिल कर लेता है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book