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रहस्य-रोमांच >> शाकाहारी खंजर

शाकाहारी खंजर

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6645
आईएसबीएन :0000000

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तहलका मचा देने वाला उपन्यास...

Shakahari Khanjar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक बार किसी ने मुझसे पूछा था कि आपको हर बार अपने उपन्यास के लिए ‘टंच’ टॉपिक कहां से मिल जाते हैं। यह सवाल शायद इसलिए उठा था क्योंकि आप जानते ही हैं कि मेरे उपन्यास के टॉपिक लीक से हटकर और एकदम नए होते हैं। इस बाबत कहना चाहूंगा, टॉपिक चाहे उपन्यास का हो या फिल्म का, हमारे आस-पास घटनाओं के रूप में बिखरे पड़े होते हैं, जरूरत होती है उन्हें समझने और संवारने की। मैं यही करता हूं। मैं अपनी सटीक निगाह टिकाए रखता हूं अपने आस-पास, वहीं से मिलता है मुझे टॉपिक। हां, एक बात और। आपके जो ढेरों पत्र मुझे मिलते हैं, कई दफा उनमें से कोई पाठक भी मुझे अपनी तरफ से विषय सुझा देता है। मैं आपके पत्रों को गौर से पढ़ता हूं। खास पत्रों पर मनन भी करता हूँ। किसी पाठक को मेरे किसी उपन्यास में अपने आइडिये की झलक भी मिली हो सकती है। आप जानते हैं कि-वेद मौलिक लिखता है और उसकी स्टाइल हर उपन्यास की खास अंदाज वाली होती है। तब ही तो आप मेरे उपन्यासों को डूबकर पढ़ते हैं और आप खुद को उपन्यास के पात्रों के आस-पास पाते हैं। शाकाहारी खंजर के बारे मे कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा ! पहली बात-आप जानते हैं मैं अपने उपन्यासों में आमतौर पर ‘सैक्स’ को स्थान नहीं देता परन्तु इस उपन्यास के कथानक का ताना-बाना कुछ ऐसा बना है कि कुछ ‘बोल्ड सीन’ लिखने पड़े। उसे मैं ‘सैक्स’ तो नहीं कहूंगा परन्तु इतना जरूर कहूंगा कुछ सीन मुझे अपनी आदत के विपरीत लिखने पड़े हैं। यह सोचकर कि-वह लेखक ही क्या जो कहानी को उसके मूड के मुताबिक न लिख सके। आप पढ़े और जाचें कि वे सीन आवश्यक थे या नहीं और मैं कथानक के साथ न्याय कर सका अथवा नहीं ? दूसरी बात-यह उपन्यास मेरे अब तक लिखे गये अन्य उपन्यासों से अलग इसलिए है क्योंकि थ्रिल के अलावा इसमें ‘सेन्टीमेन्ट्स’ की भी बहुतायत है ! एक ऐसे किरदार की बड़ी ही मार्मिक कहानी है ये जिसे ‘अपनों’ से प्यार,विश्वास, सहानुभूति और अपनत्व की सख्त जरूरत थी लेकिन मिला धोखा, घृणा अविश्वास और तिरस्कार। बुरी तरह तिलमिला उठा वह। उसकी तिलमिलाहट को आप इतने नजदीक से महसूस करेंगे जैसे आपकी अपनी तिलमिलाहट हो। मुझे पूरा विश्वास है उस तिलमिलाहट में जो कदम वह किरदार उठाता है उसे पढ़कर न सिर्फ आप रोमांचित हो उठेंगे बल्कि आपका पूरा-पूरा समर्थन भी हासिल होगा उसे। उपन्यास पढ़ने के बाद इस सम्बन्ध में अपनी निष्पक्षराय से मुझे अवश्य अवगत करायें। यहां मैं आपको बताना चाहूंगा कि ‘कातिल हो तो ऐसा’ तथा ‘शाकाहारी खंजर’ का अंतिम पार्ट ‘मदारी’ अवश्य पढ़े, जो इसी सैट में पुर्नप्रकाशित हो चुका है, तभी आप पूरी कहानी का पूरा लुप्त उठा सकेंगे।

वेद प्रकाश शर्मा

शाकाहारी खंजर


शाकाहारी खंजर में जो कहानी मैं लिखनी चाहता था, उसके मुख्य किरदार का नाम आर. के. राजदान था। एक युवा बिजनेसमैन। उसके छोटे भाई का नाम देवांश था। राजदान आज अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा के बूते पर ‘राजदान ऐसोसियेट्स’ नामक कंस्ट्रक्शन कम्पनी का मालिक था। देवांश से वह बेइंतिहा प्यार करता था। राजदान की पत्नी का नाम था-दिव्या।

देवांश अगर राजदान की आंखों का तारा था तो दिव्या थी उन आंखों की ज्योंति। देवर-भाभी के रूप में देवांश और दिव्या भी एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। उपरोक्त किरदारों की कहानी जब मैंने लिखनी शुरू की तो फैलते-फैलते इतनी लम्बी हो गई कि वह ‘स्पॉट’ ही नहीं आया जहां इस कथानक को उस ‘मोड़’ पर पहुंच जाना था जहां इसका नाम ‘शाकाहारी खंजर’ रखा जाना चाहिए था, और उतने पेज लिखे जा चुके थे जितने में एक उपन्यास ‘कम्पलीट’ माना जाता है। मजबूरीवश मुझे कलम रोक देनी पड़ी।

वहां तक के कथानक को एक नया नाम दिया !
‘कातिल हो तो ऐसा।’
कातिल हो तो ऐसा के प्रथम दृश्य में आर, के. राजदान करीब बीस दिन बाद कनाडा से भारत लौट रहा था। दिव्या और देवांश ‘राजदान एसोसिएट्स’ के चुनिंदा स्ट़ॉफ के साथ उसे रिसीव करने आये थे। वे सब विजिटर्स लॉबी में थे जबकि एयरपोर्ट के बाहर, कार पार्किग में खिल रहा था एक गुल। राजदान के ड्राइवर का नाम-केशोराज बन्दूकवाला था। उस वक्त वह अपने मालिक की सिल्वर कलर की चमचमाती मर्सडीज पर कूल्हा टिकाये सिगरेट में कश लगा रहा था। जब एक अत्यन्त खूबसूरत और सैक्सी लड़की ने उसे अपनी नग्नता के लपेटे में लपेटा। इतने झीने कपड़े पहन रखे थे उसने की पट्ठी का सब कुछ नुमाया हो रहा था। छक्के तो केशोराज बन्दूकवाला के उसे देखते ही छूट गये थे परन्तु उस वक्त तो होश ही फाख्ता हो गये जब बन्दूकवाला के अत्यन्त नजदीक पहुंचकर उसने अपनी छातियां तान दी। अपने वक्षस्थल की तरफ इशारा करके कहा-देख क्या रहा है ? भींच इन्हें।

कौन मर्द का बच्चा होगा जो ऐसी अवस्था में होशों-हवास न गंवा बैठेगा ! वही हुआ बन्दूकवाला के साथ। जैसे ही उसने वह करना चाहा जो खुद लड़की ने कहा था, वैसे ही लड़की ने शोर मचा दिया, ‘देखो, ये गुण्डा सरेआम एक लड़की की इज्जत पर हाथ डाल रहा है।’’
फिर क्या था ?
चारों तरफ से लोग बन्दूकवाला पर झपट पड़े। ऐसी मार पड़ी कि छकड़ी भूल गया। जिसने उसकी करतूत के बारे में सुना वही अपने हाथों की खुजली मिटाने में जुट गया। एक पुलिस वाले को उधर आता देखते ही पारदर्शी कपड़ों वाली लड़की मर्सडीज के दूसरी तरफ सरकी। उसी वक्त-शक्ल से ही गुण्डा नजर आने वाला एक लड़का मर्सडीज का दरवाजा खोलकर बाहर निकला। वह लड़की का साथी था। आंखों ही आंखों में दोनों की बातें हुई। पता लगा-लड़की ने बन्दूकवाला को इसलिए खुद में उलझाया था ताकि उसका साथी आराम से मर्सडीज में टाइम बम फिट कर सके। बन्दूकवाला ठुकता रहा, वे दोनों अपना काम करके निकल गए।

उधर-दिव्या, देवांश और ‘राजदान एसोसिएट्स’ के स्टाफ ने गर्मजोशी के साथ राजदान का स्वागत किया। देवांश तो बाकायदा पूरा बैण्ड और फूलमालाएं लेकर पहुंचा था वहां। वह चहक रहा था। दिव्या की आंखों में खुशी के आंसू थे, मगर राजदान में उन्हें देखकर वह गर्मजोशी नहीं थी जो होनी चाहिए थी। जाने क्यों, वह उदास-उदास और कुछ हद तक टूटा हुआ लग रहा था। दिव्या और देवांश ने कारण जानना चाहा। राजदान ने कुछ बताया नहीं बल्कि खुद को सामान्य दर्शाने की नाकाम कोशिश करने लगा। अंततः वे एयरपोर्ट से बाहर निकले। पार्किग में पहुंचे। बन्दूकवाला की करतूत के बारे में पता लगा। उस बेचारे की इस बात पर राजदान सहित कोई विश्वास करने को तैयार नहीं था कि जो कुछ उसने किया, वह करने के लिए खुद लड़की ने उपसाया था। बन्दूकवाला को पुलिस के हवाले कर दिया गया। देवांश ने सिल्वर कलर की उस मर्सडीज की ड्राइविंग सीट संभाली जिसमें टाइम बम फिट किया गया था और राजदान दिव्या के साथ पिछली सीट पर बैठा। बाकी लोग देवांश की ‘जेन’ और स्टाफ कार में थे।
काफिला ‘राजदान विला’ की तरफ चल दिया।
रास्ते में राजदान ने दिव्या और देवांश से पूछा कि ‘बबलू’ उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट पर क्यों नहीं पहुंचा ? दोनों का जवाब था- हमें नहीं मालूम। असल में बबलू का नाम बीच में आते ही उनका मूड ऑफ हो गया था। यह कहा जाये तो ज्यादा मुनासिब होगा, बबलू का नाम राजदान की जुबान पर आते ही अक्सर उनका मूड आँफ हो जाया करता था।

बबलू एक गरीब लड़का था। उम्र करीब सोलह साल। उसके पिता टीचर थे। वह राजदान विला के ठीक सामने सड़क के उस पार बनी तीन-मंजिला इमारत में, एक फ्लैट में रहता था। जाने कैसे, राजदान का बबलू में और बबलू का राजदान में प्यार पड़ गया था। बबलू के प्रति राजदान की यह चाहत दिव्या और देवांश को बिल्कूल पसंद नहीं थी। उसके बारे में राजदान से बातें तक करना नहीं चाहते थें वे, अतः टॉपिक चेन्ज करने की गर्ज से कार ड्राइव करते देवांश ने राजदान से उसकी मायूसी और उखड़ेपन का कारण पूछा। जवाब में राजदान भड़क उठा, जबकि यूं भड़क उठना उसके स्वभाव में नहीं था। इससे दिव्या और देवांश को पूरा यकीन हो गया राजदान कनाडा से कोई बड़ी उलझन दिमाग में लेकर आया है। दोनों उस उलझन को बेइंतिहा करते थे परन्तु तत्कालीन माहौल में कुछ पूछने की हिम्मत न जुटा सके। कार में तनावपूर्ण सन्नाटा छा गया था।

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