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यार जुलाहे

गुलजार

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6806
आईएसबीएन :9788181439741

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यार जुलाहे गुलजार की नज़्मों की पूरी पड़ताल है....

Yaar Julahe - a hindi book by Gulzar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार का तआरूफ़, ही यही है कि वे अपनी शायरी और नज़्मों को थोड़ा हिचकते हुए हिन्दी में ‘संग्रह-निकालना’ कहते हैं। मसला यह कि उर्दू और हिन्दी के दोआबे में हिन्दुस्तानी अल्फाज़ में पकने वाली उनकी कविता की फ़सल दरअसल हिन्दी में उतना ही ‘संग्रह’ है, जितना कि वह उर्दू में नज्मों की किताब।’ ऐसे में उनकी कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है। इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं। गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है।

अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार के यहाँ, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं। इस अभिव्यक्ति में जहाँ एक ओर हमें कवि के अन्तर्गत रंगत लिये हुए लगभग निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। एक प्रकार का वीतरागी भाव या जीवन के गहनतम स्तर तक पहुँचा हुआ ऐसा अवसादी, मन जो प्रचलित अर्थों में अपना आशय विराग द्वारा व्यक्त करता है। उदासी की यही भावना और उसमें सूक्ष्मतम स्तर तक उतरा हुआ अवसाद-भरा जीवन का निर्मम सत्य, इन नज़्मों की सबसे बड़ी ताक़त बन कर हमारे सामने आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, ‘रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है। ज़ाहिर है, इस तरह की कविता में दुख और उदासी उसी तरह से अपना आश्रय पाते हैं, जिस तरह निर्गुण पदों और सूफ़ियाना कलामों में प्रेम और आत्मीयता के क्षण, पीड़ा का रूप धर कर अपनी परिभाषा गढ़ते हैं।

 

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये

 

फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आँखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर एक बार
नाम ले कर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लें


 ‘यार जुलाहे,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है। इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं। यह संग्रह या इसे इस तरह कहें कि हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान जब आपकी ख़िदमत में पेश है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है।

गुलज़ार की कविता की यह उपलब्धि हमारे लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वे शायर के लिबास में एक फ़िल्मकार हैं और एक संजीदा फ़िल्म निर्देशक के रूप में उनकी शिनाख़्त एक मँजे हुए गम्भीर कहानीकार के रूप में भी होती है। कहने का मतलब यह है कि उनके जैसे, फ़नकार को अपनी कलाभिव्यक्ति के लिए ढेरों रचनात्मक माध्यमों को चुनना पड़ा है। एक फ़िल्म बनाते हुए वे आसानी से किसी ग़ज़ल की मनोभूमि में टहलते हुए पाये जा सकते हैं या फिर एक कहानी लिखते वक्त उनके जेहन में आसानी से किसी नयी फिल्म की पटकथा आकार ले रही होती है। इस तरह की परस्पर एक-दूसरे को समृद्ध करने वाली रचनात्मक परिस्थितियों में रहते हुए गुलज़ार अपने विचारों, सरोकारों और चिन्ताओं का रेन्ज इस कदर बना लेते हैं कि फिर उनके लिए अभिव्यक्ति का कोई एक ही माध्यम काफ़ी नहीं रह जाता। गालिब का यह शेर उन की शायरी के सिलसिले में पूरी तरह सार्थक जान पड़ता है-


बक़दरे शौक़ नहीं ज़र्फ़ तन्सुनाए ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए


‘यार जुलाहे’, उनकी इसी अनूठी रचनात्मकता और अपने ढंग से ईजाद की गई उर्दू और हिन्दी के मिश्रण से बनी उनकी शायरी या कविताई का सुन्दर नमूना है। इस संग्रह की पृष्ठभूमि ही गुलज़ार के शायर व्यक्तित्व को केन्द्र में रख कर बुनी गयी है। ख़ासकर, उनकी कविता और जन्मों में मिलने वाले उन तमाम तरह के बिम्बों, (इमेजे़ज) और दृश्यावलियों (लैंडस्केप्स) के सन्दर्भ में, जो हिन्दी में एक अलग किस्म का गुलज़ाराना टाइप बनाता है। इन नज़्मों, कविताओं, गीतों और शेरों की अन्तर्ध्वनि को यदि इत्मीनान से टटोला जाये तो एक बात बहुत प्रमुखता से सामने आती है कि ज्यादातर जगहों पर यह शायर अपनी बात कहने के लिए एक दृश्य बुनता है या कि कुछ बहुत ही आत्मीय संस्मरणों को एक दुर्लभ बिम्ब में रूपायित करता है। यह बिम्ब कुछ भी हो सकता है।

प्राकृतिक या साहित्य सम्बन्धी, आध्यात्मिक या रूमानी। ये सारे इमेज़ेज़, जो कविता में कई-कई बार अपनी पुनरुक्ति करते हैं, गुलज़ार की कलम का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। ज़ाहिर है इस तरह का कौशल हम उसी शायर से पा सके हैं, जिसने बेहद संजीदगी से कुछ महत्वपूर्ण और कालजयी कहानियों पर सार्थक फिल्में बनायी हैं। गुलज़ार का कवि व्यक्तित्व उनके फिल्म सम्बन्धी किरदार का भले ही मुखापेक्षी न रहा हो मगर इतना ज़रूर है कि फ़िल्म मीडिया में बरसों से काम करते हुए उसकी ढेरों रंगतों का अनायास ही प्रभाव उन कुछ कविताओं में आसानी से आ गया है, जिसमें हम किसी दृश्य या इमोशन की अभिव्यक्ति को किसी नये बिम्ब के माध्यम से पाते हैं। यह तरीका और इस तरह की नज्में ही उनकी सबसे बड़ी पूँजी हैं, जिनसे हिन्दी को एक बिलकुल नये किस्म का काव्य संस्कार मिलता है। एक यथार्थवादी किस्म का स्पर्श, जो कविता को फ़िल्मी गीतों से काफ़ी ऊपर ले जाता है और उनके लिखे हुए फ़िल्मी गीतों को बड़े सुन्दर ढंग से कविता के पड़ोस में ले आता है।

इस संग्रह की अधिकांश कविताओं पर नज़र डालते हुए मैं यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण बातों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। इस तथ्य की स्थापना के लिए भी कि गुलज़ार जैसे बेहतर क़िस्सागो, शायर, पटकथाकार, संवाद लेखक, साथ ही फ़िल्म निर्देशक के लिए, उन्हीं की रचनाओं में से निकाल कर एक नया संकलन बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? दरअसल हम जब भी किसी व्यक्ति को उसकी सम्पूर्णता में देखते हैं, तो प्रायः उसकी प्रचलित और बहुप्रशंसित छवि में कैद करके ही उसका आकलन करते हैं। मसलन, हमारे अपने ही देश में ढेरों ऐसे मूर्धन्य हुए हैं, जिन्होंने कई माध्यमों में श्रेष्ठ काम करते हुए भी किसी एक विधा में अपने को ज्यादा प्रतिष्ठित पाया है। उदाहरण के लिए यदि हम जवाहरलाल नेहरू की बात करें, तो आसानी से उनके व्यक्तित्व के कई प्रसंग हमें याद आतें हैं, मगर एक बेहतर विचारक और रचनाकार होने के बावजूद उनकी सारी प्रतिष्ठा एक बड़े राजनेता के रूप में ही आँकी जाती हुई हमें हासिल होती है। इस तरह के ढेरों उदाहरण हैं, जिन्हें हम आसानी से याद कर सकते हैं- ख़ासकर नृत्यांगना रूक्मणी देवी अरुण्डेल, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ, ठाकुर, शुभ्भु मित्र, ख़्वाजा अहमद अब्बास और सत्यजित राय आदि। गुलज़ार भी इसी परम्परा की एक कड़ी ठहरते हैं। एक गम्भीर कहानीकार और कवि-गीतकार की पुख़्ता पहचान के बावजूद उनके सौभाग्य के खाते में सबसे ज्यादा तालियाँ फ़िल्मकार के रूप में दर्ज हुई हैं।

इस उपक्रम में जब हमेशा उनको एक बेहतरीन फ़िल्म निर्देशक, संवाद और पटकथा लेखक, गीतकार माना गया, तब अनजाने ही उनके द्वारा व्यक्त हुई कुछ बेहतर अभिव्यक्तियाँ उस स्तर की चर्चा न पा सकीं, जो सिनेमा में भी एक लम्बी और समृद्ध परम्परा रही है, जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे लोग हुए, जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया। गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है और उसकी कला विमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी और अन्य ऐसे दिग्गज फ़िल्मकारों के साये तले विकसित हुई है।

‘यार जुलाहे’ के सन्दर्भ काबिले-ग़ौर तथ्य यह है कि गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है।

उनके जीवन में यह तथ्य खासा महत्व रखता है कि उनका बचपन दीना में बीता है। दीना वह इलाका है, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में जा चुका है। इसी के साथ हमें उनके जीवन की एक महत्त्पूर्ण निशानदही के रूप में यह तथ्य भी जानना होगा कि गुलज़ार और उनके परिवार ने विभाजन की पीड़ा को बहुत अन्तरंगता से भोगा है। दीना और पाकिस्तान, उस समय के संस्मरण और आत्मीय ब्योरे, विभाजन का दंश और अपनों से बिछुड़ने की ख़रोंचें, साथ ही दिल्ली आ कर बाक़ी बीता हुआ बचपन और रिफ़्यूजी कैम्पों की रातें- इन सबसे मिल-जुल कर जो इतिहास, पीड़ा, सन्नास और कहानियाँ बनी हैं, वही बाद में बड़ी शिद्दत से गुलज़ार की रौशनाई में आ कर घुली होंगी।
विभाजन का मेटाफ़र, गुलज़ार की नज्मों में एक अजीब किस्म की तड़प, दर्द और बेगानापन भरता है। आप उनकी अधिकांश बचपन के संस्मरणों की कविताएँ पढ़े, तो अनायास ही वह खुशनुमा दीना उभर आता है, जो इस शायर की रूह में घुला हुआ है।

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