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कवि और कविता

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6835
आईएसबीएन :978-81-8031-324

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प्रस्तुत पुस्तक में छब्बीस विचारोत्तेजक निबन्धों का पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय संकलन है।

Kavi Aur Kavita - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कवि और कविता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के छब्बीस विचारोत्तेजक निबन्धों का पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय संकलन है।
इस संग्रह में-मैथिल कोकिल विद्यापति, विद्यापति और ब्रजबुलि, कबीर साहब से भेंट, गुप्तजी : कवि के रूप में, महादेवीजी की वेदना, कविवर मधुर, रवीन्द्र-जयन्ती के दिन, कला के अर्धनारीश्वर, महर्षि अरविन्द की साहित्य-साधना, रजत और आलोक की कविता, मराठी के कवि केशवसुत और समकालीन हिन्दी कविता, शेक्सपियर, इलियट का हिन्दी अनुवाद-जैसे शाश्वत विषयों के अतिरिक्त-कविता में परिवेश और मूल्य, कविता, राजनीति और विज्ञान, युद्ध और कविता, कविता का भविष्य, महाकाव्य की वेला, हिन्दी-साहित्य में निर्गुण धारा, निर्गुण पन्थ की सामाजिक पृष्ठभूमि, सगुणोपासना, हिन्दी कविता में एकता का प्रवाह, सर्वभाषा कवि-सम्मेलन, नत्र कविता के उत्थान की रेखाएँ, चार काव्य-संग्रह डोगरी की कविताएँ-जैसे ज्वलंत प्रश्नों पर राष्ट्रकवि दिनकर का मौलिक चिन्तन आज भी उतना ही सार्थक और उपादेय है।
सरल-सुबोध भाषा-शैली तथा नए कलेवर में सजाई सँवारी गई कविवर-विचारक दिनकर की यह एक अनुपम कृति है।

मैथिल कोकिल विद्यापति

हिन्दी के बृहत्रयी कवि कौन हैं ? तुलसी, सूर और विद्यापति अथवा तुलसी, सूर और कबीर ? निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता, यद्यपि मेरा निजी मत है कि बृहत्रयी की पंक्ति में तीसरे स्थान का अधिकार विद्यापति को ही होना चाहिए।
विद्यापति का जन्मवर्ष अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका है। जो सामग्रियाँ उपलब्ध हैं, उनके आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि उनका जन्म 1350 ई० के आसपास हुआ होगा। और, सम्भवत: कबीर के वे लगभग पचास वर्ष पूर्ववर्ती रहे होंगे। हाँ, यह निश्चित है कि उनका जन्म बिहार प्रान्त के मिथिला नामक जनपद में हुआ था।
वे ऐसे समय में हुए जब चिन्तन की भाषा संस्कृत और साहित्य की भाषा अपभ्रंश थी। विद्यापति ने भी अपभ्रंश में अपनी ‘कीर्तिलता’ नामक पुस्तक की रचना की जिसकी भाषा को उन्होंने अवहट्ट कहा है और जिस भाषा के अनुसार उन्होंने अपना नाम विद्यापति नहीं बताकर, बिज्जाबइ बताया है।
बालचन्द बिज्जावइ भाषा दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा।

अर्थात् बाल चन्द्रमा और विद्यापति की भाषा, ये दुर्जनों के हँसने से कलंकित नहीं हो सकते।
कीर्तिलता विद्यापति की आरम्भिक रचना है जिसे उन्होंने, कदाचित्, सोलह वर्ष की उम्र में लिखा था। प्रौढ़ होने पर उन्होंने अपभ्रंश को छोड़ दिया तथा कविताएँ वे मैथिली में तथा शास्त्रीय निबन्ध संस्कृत में लिखने लगे। इस प्रकार विद्यापति का लिखा हुआ साहित्य परिमाण में भी बहुत है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में विद्यापति वीरगाथा-काल के कवि माने जाते हैं यद्यपि युद्ध का कुछ थोड़ा वर्णन उनकी कीर्तिलता में ही मिलता है और कीर्तिलता विद्यापति की प्रतिनिधि रचना तो मानी ही नहीं जा सकती। उनकी असली प्रतिभा तो उनके पदों में निखरी है और विद्यापति के पद किसी प्रकार चन्दबरदाई एवं आल्हखंड के रचयिताओं की कविताओं में मिश्रित नहीं किए जा सकते। लोग विद्यापति को भक्ति-काल के कवियों में गिनने से भी हिचकते हैं, क्योंकि विद्यापति का प्रधान स्वर आनन्द का स्वर है, दैहिक आनन्द का स्वर है एवं राधा-कृष्ण के नाम उन्होंने नायक-नायिका के रूप में ही लिए हैं। उनका नाम रीतिकाल के भीतर भी खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि, यद्यपि, उनके पद पर स्पष्ट गवाही देते हैं कि उन्हें रीतियों का भरपूर ज्ञान था, फिर भी रीति, रस या अलंकारों के उदाहरण उपस्थित करने के लिए उन्होंने पदों की रचना नहीं की थी। इस प्रकार विद्यापति किसी भी वर्ग में समा नहीं सकते। उनसे सत्कार के लिए ऐसा सिंहासन चाहिए जिस पर केवल वहीं बैठ सकते हैं। वे केवल कवि थे और कविता में सौन्दर्य और आनन्द को छोड़कर वे और किसी बात को स्थान नहीं देते थे। कविताएँ रचते समय उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता था कि वे उद्भट् विद्वान भी है। उन्होंने जो कुछ लिखा, सहज, सुन्दर और आनन्दमय भाव से लिखा, सौन्दर्य से छककर लिखा, मस्ती के तूफान में लिखा। कविताएँ उनका आत्म-निवेदन नहीं, आत्माभिव्यक्ति हैं। मानव-शरीर की सुन्दरता एवं नर-नारी के प्रणय-व्यापार पर उनकी इतनी श्रद्धा है कि इनका वर्णन करने में उन्हें कहीं भी हिचकिचाहट नहीं होती।

श्रृंगारिक कवि तो हमारे साहित्य में एक से बढ़कर एक हुए हैं, किन्तु, श्रृंगार की जो सहजता विद्यापति में है वह अन्यत्र नहीं दिखाई देती। प्राचीन कवियों से आधुनिक पाठकों की एक शिकायत यह रहती है कि श्रृंगार-वर्णन करते हुए ये कवि अपनी वासना अथवा अपनी उमंग को सीधे न कहकर किसी राजा अथवा लोकोत्तर नायक के मुख से व्यक्त करते हैं। ऐसा होने से प्रेमानुभूति की स्वाभाविकता कुछ मद्विम पड़ जाती है। किन्तु विद्यापति इसके अपवाद हैं। नारी को देखकर नर और नर को देखकर नारी में जो सहज स्वाभाविक आकर्षण जागता है उसका रहस्य सबको ज्ञात है। किन्तु विद्यापति ने इस अनुभूति को जिस निच्छलता से व्यक्त किया है, वह सफाई, वह सच्चाई और वह निश्छलता और कहीं नहीं मिलती :

ततहि धाओल दुहुं लोचन के
जतए गेलि वर नारि,
आशा लुबुध न तेजइ रे
कृपनक पाछु भिखारि।

अर्थात् जहाँ-जहाँ वह श्रेष्ठ सुन्दरी जाती है, मेरे दोनों लोचन वहीं-वहीं दौड़ रहे हैं, मानों आशा के लोभ में पड़ा हुआ भिखारी कारण का पीछा न छोड़ रहा हो। यह प्राकृतिक पुरुष का निश्चल उद्गार है और इसका प्रभाव इसीलिए पड़ता है कि यह निश्चलता से कहा गया है, बिना हिचक के कहा गया है, कृष्ण या आश्रयदाता राजा की ओर से नहीं, सीधे कवि की ओर से कहा गया है।
विद्यापति की कविता उनके जीवन-काल में इतनी प्रसिद्ध हो गई थी कि लोग उन्हें कविशेखर, अभिनव जयदेव और मैथिल कोकिल के नाम से पुकारने लगे थे। और आज भी तुलसीदास के बाद वे, शायद, एकमात्र कवि हैं, जिनके अधिक-से-अधिक पद जन-जीवन में घुले हुए हैं, जिनकी कविताएँ पंडितों से अधिक अपढ़ जनता को याद हैं तथा जिनके पदों का गान मिथिला की गृहलक्ष्मियों का प्रधान आनन्द है।

किन्तु ये बातें कैसे हुईं ? विद्यापति ने क्या किया कि उनकी कविताएँ जनता में इस बार जोर से फैल गईं ? कारण अनेक होंगे, किन्तु सबसे बड़ा कारण यह है कि कवि विद्यापति पर पंडित विद्यापति का आतंक नहीं था। विद्यापति का कवि-हृदय मिथिला के जन-हृदय से एकाकार था। साहित्य की दृष्टि से तो विद्यापति के पद अतुलनीय हैं ही, उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे लोक-साहित्य की भी अतुल कृतियाँ हैं। विद्यापति के भाव मन से नहीं जीवन से आते थे। उन्होंने ताल और भोजपत्रों पर लिखी पोथियाँ ही नहीं पढ़ी थीं, प्रत्युत सबसे अधिक वे उन पोथियों के प्रेमी थे जो खेत-खलिहान, कुंज-वीथी, पनघट और जनता के घर-आँगन में खुली हुई हैं।

विद्यापति के पदों में प्रसारित देश ग्राम-देश है, उनके गीतों में चित्रित सुन्दरियाँ ग्रामीण सुन्दरियाँ हैं जिन्होंने अलंकार और प्रसाधन की सुविधा नहीं, जिनके सारे अलंकार उनके हाव-भाव हैं, जिनके बोल सभ्यता के सधे हुए कृत्रिम बोल नहीं, हृदय की निष्कपटता से निकले हुए सहज उद्गार हैं और किसी भी बनावट के बिना दमकनेवाला यह सौन्दर्य कितना सीधा-सादा, मगर कितना आकर्षक और पवित्र है :

सहजहिं आनन सुन्दर रे
भौंह सुरेखलि आँखि,
पंकज मधु पिबि मधुकर रे
उरए पसारल पाँखि।

उसका मुखमंडल बिना किसी प्रसाधन के ही सुन्दर है। उसकी भौं सुरम्य काली रेखा-सी प्रतीत होती है, मानो कमल का मधु पीकर मधुकरों की पाँती उड़ी जा रही हो। और यह सरल ग्राम-युवती अपने पति के विदेश-गमन के समय जो कुछ कहती है वह भी ग्राम-युवती का ही सरल भाव है, उसमें नागरिक चातुरी या परदा नहीं है। नायिका जिस बात से डरती है, उसे ही वह सहज भाव से कह देती है :

माधव, तोहें जनु जाह विदेस।
हमरो रंग रभस लए जएवह लएवह कोन सन्देस।
वनहिं गमन करू होएत दोसरे मति बिसरि जाएव पति मोरा।
हीरा-मानिक एको नहि माँगब फेरि माँगब पहु तोरा।

हे माधव ! तुम विदेश मत जाओ। विदेश जाने से मेरा आमोद-प्रमोद तुम अपने साथ ले जाओगे, लेकिन बदले में ऐसी कौन-सी चीज लाओगे जो मेरे रंग-रभस के बराबर हो ? घर से बाहर होते ही तुम्हारी मति बदल जाएगी और तुम मुझे भूल जाओगे। इसी से कहती हूँ कि मुझे हीरा-मोती नहीं चाहिए। मैं तो बार-बार तुम्हें ही माँगती हूँ।

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