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स्मरणांजलि

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :275
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6841
आईएसबीएन :978-81-8031-330

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प्रस्तुत पुस्तक में निबन्ध और यात्रा-संस्मरण का अनूठा संकलन किया गया है।

Smarnanjali - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युगदृष्टा रामधारी सिंह दिनकर अपने समकालीनों की चर्चा करना बहुत नाजुक काम मानते थे, लेकिन समकालीनों पर लिखने पर उनको सुखद अनुभूति भी होती थी।
स्मरणांजलि दिनकर जी के मित्रों और समकालीन महापुरुषों, जिन्होंने उनके हृदय पर अमिट छाप छोड़ी, के विषय में निबन्धों और यात्रा-संस्मरणों की अनूठी कृति है।
इस पुस्तक में देश के प्रख्यात विद्वानों-साहित्यकारों और राजनेताओं के अन्तरंग जीवन की झाँकियाँ हैं तथा उनके अनजाने रूप, देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले प्रसंगों और उन मानवीय गुणों का भी इसमें उद्घाटन हुआ है जिन्होंने इन विभूतियों को सबका श्रद्धास्पद बना दिया।
यह पुस्तक जहाँ एक तरफ-राजर्षि टंडन, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, स्वर्गीय राजेन्द्र बाबू, काका साहब कालेलकर, डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री, स्वर्गीय लोहिया साहब, स्वर्गीय डॉ० जाकिर हुसेन, स्वर्गीय डॉ० श्रीकृष्ण सिंह, पुण्यश्लोक जायसवाल, श्री राहुल सांकृत्यायन, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी, आचार्य रघुवीर, पंडित किशोरीदास बाजपेयी, आचार्य शिवपूजन सहाय, स्वर्गीय बेनीपुरी, डॉ लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’, पंडित बंशीधर विद्यालंकार, स्वर्गीय नलिन, स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, पंडित सुमित्रानन्दन पन्त, श्रीमती महादेवी वर्मा, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन, हरिवंश राय बच्चन-इन विभूतियों के परिचय देती है वहीं राष्ट्रकवि दिनकर जी की यूरोप-यात्रा, जर्मन-यात्रा, चीन यात्रा, म़ारिशस यात्रा का रोचक वर्णन करती है।
संस्मरणात्मक निबन्धों और महत्त्वपूर्ण यात्रा-वृत्तान्तों से सुसज्जति, सरस भाषा-शैली में लिखित यह पुस्तक अमूल्य है।

भूमिका

अपमे समकालीनों की चर्चा करना बहुत ही नाजुक काम है, मगर यह चर्चा लेखक के लिए सुखद भी होती है। स्वर्गीय डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल को अपना समकालीन मानने में कुछ संकोच होता है, मगर बात तो सच है कि कुछ दिनों के लिए वे हमारे भी समकालीन थे। इसी प्रकार डॉ० राजेन्द्र प्रसाद और राहुल सांकृत्यायन तथा टंडन जी भी हमारे समकालीन थे।
मित्रों और समकालीन महापुरुषों ने मेरे हृदय पर जो छाप डाली मैंने उसी का विवरण लिखा है। अधिकांश संस्मरणों में अन्तरंगता की झलक मिलेगी, मगर कुछ में थोड़ी विवेचना भी आ गई है।
अगर पाठकों को ये संस्करण पसन्द आए, तो समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक है।

नई दिल्ली
जुलाई, सन् 1969 ई०

-रामधारी सिंह दिनकर

राजर्षि टंडन जी

सरकार द्वारा दी गई उपाधियों की उपेक्षा जनता द्वारा दी गई उपाधियाँ अधिक उजागर और सटीक होती हैं। तिलक जी को जनता ने लोकमान्य की उपाधि दी थी। भाई परमानन्द जी को गांधी जी देवतास्वरूप लिखते थे। राजेन्द्र बाबू को उन्होंने देशरत्न कहा था। चित्तरंजनदास, गाँधीजी की दृष्टि में, देशबन्धु थे। इसी प्रकार सन् 1950 ई० के बाद जनता ने बाबू पुरुषोत्तमदास जी टंडन को राजर्षि की उपाधि से विभूषित किया था और यह पदवी उनके नाम के साथ बड़ी ही स्वाभाविकता के साथ चिपक गई थी। टंडन जी बाद को चलकर भारतरत्न भी बनाए गए, किन्तु राजर्षि उनका जितना सटीक विशेषण था, उतनी सटीकता भारतरत्न को प्राप्त नहीं हो सकी।

जनता ने टंडन जी को ब्रह्मर्षि नहीं कहा, इसका कारण मैं यह समझता हूँ कि वे ब्राह्मण-वंश के नहीं थे। अन्यथा वे ब्रह्मर्षि कहलाने के भी योग्य थे। वे राजनीति के आदमी जरूर थे, मगर राजनीति के लौकिक पक्ष से उनका सरोकार बहुत कम था। राजनीति को उन्होंने किसी ऊँचे ध्येय के साधन के रूप में ग्रहण किया था। उन्होंने बाल-बच्चे पैदा किए, मगर वे बाल-बच्चों के हुए नहीं। वे गृहस्थ के वेष में रहे, मगर हर आदमी उन्हें संन्यासी समझता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के कार्य में उन्होंने गांधी जी का भरपूर साथ दिया; लेकिन बचाने की सबसे कीमती चीज उन्हें भारत की संस्कृति ही दिखाई पड़ी। संस्कृति के मामले में से कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। भारत में बसने वाले सभी धर्मानुयायियों को वे संस्कृति से भारतीय बनाना चाहते थे। मुसलमानों से उन्हें घृणा नहीं थी। वे चाहते थे कि मुसलमान, धर्म से, मुसलमान रहें और हिन्दू उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध करें, किन्तु दोनों की संस्कृति एक यानी भारतीय होनी चाहिए।

टंडन जी चमड़े के जूते पहनते थे। उनके कपड़े अत्यन्त थोड़े और सस्ते दोनों में होते थे। अपने शरीर पर उनका लगभग कुछ भी खर्च नहीं था। उनकी आँखों में आत्मविश्वास के साथ दया, क्षमा और करुणा की ज्योति भरी होती थी। वे आत्मनिग्रह के पक्षपाती थे और लोगों को अपनी जरूरतें कम करने का उपदेश देते थे। लेकिन अपने अतिथियों पर वे संयम नहीं लादते थे। वे शाकाहरी थे और अपने अतिथियों को भी शाकाहार ही खिलाते थे, किन्तु अतिथियों के लिए भोजन वे सुस्वादु बनवाते थे। वे प्रेम की प्रतिभा थे। जब वे स्पीकर थे, उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था, ‘‘लखनऊ आओ, तो मेरे ही पास ठहरा करो। अभी मेरे पास गाड़ी है। तुम लोग उसका उपयोग करोगे।’’

साहित्य कों से मिलकर उन्हें अपार हर्ष होता था। हिन्दी के सभी प्रकार के कार्यकर्ताओं को वे अपने ही परिवार का सदस्य समझते थे। कट्टर संस्कृतिवादी होने के कारण इधर आकर वे मुसलमानों के विरोध समझे जाते थे, किन्तु उनके इलाहाबाद के ऐसे अनेक मुस्लिम मित्र थे, जो लखनऊ जाने पर टंडन जी के ही पास ठहरते थे। किस्सा मशहूर है कि जब टंडन जी स्पीकर थे, विधानसभा के किसी मुस्लिम सदस्य ने, व्याजान्तर से, यह कह दिया कि स्पीकर में मेरा विश्वास नहीं है। टंडनजी तुरन्त यह कहकर कुर्सी से उठ गए कि ‘‘अगर पाँच सदस्य सोच-समझकर यह कह दें कि उनका विश्वास स्पीकर में नहीं है, तो आज ही मैं स्पीकर के प्रति अपना विश्वास प्रकट किया। तब कहीं जाकर टंडन जी वापस आकर कुर्सी पर बैठे।
जिस साल हजारी प्रसाद द्विवेद्वी को लखनऊ विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट दिया, उस साल दीक्षान्त-समारोह के अवसर पर होने वाले कवि-सम्मेलन में भाग लेने को मैं भी गया था। मैं टंडन जी के पास नहीं ठहरकर कहीं अन्यत्र ठहरा था, किन्तु रात में मैं उन्हीं के साथ भोजन करने वाला था। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि टंडन जी के घर पहुँचते-पहुँचते मुझे काफी देर हो गई। यह देखकर मैं शर्म से गड़ गया कि लोग मेरी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे; किन्तु इससे भी बड़ी शर्म की बात एक और हो गई। टंडन जी का कमरा मित्रों से भरा हुआ था। मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के पास जा बैठा और बातचीत में भाग लेने लगा। न जाने मैं चालू प्रसंग में बोल रहा था या मैंने कोई नया तराना छेड़ दिया था, मैंने कहा, ‘‘बाबू जी, मुसलमान तो संस्कृत का सही उच्चारण कर ही नहीं सकते। अभी मौलाना आजाद पढ़ने आए थे और वाल्मीकि तथा कालिदास का हवाला देते हुए उन्होंने बड़ा ही विद्वतार्पूण भाषण दिया, मगर वे बदस्तूर संस्कृत को ‘संसकिरत’ और ब्राह्मण को ‘बिरहमन’ कहते रहे। आज तक मुझे एक भी मुसलमान नहीं मिला, जो संस्कृत को संस्कृत और ब्राह्मण को ब्राह्मण कह सके।’’

हस्ब-मालूम मैं अपनी बात जरा जोर से बोल गया था। मैं क्या जानता था कि गोष्ठी में एक मुसलमान सज्जन भी विद्यमान हैं ! मेरी इस बेवकूफी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हजारीप्रसाद जी हड़बड़ाकर बोल उठे, ‘‘अरे, एक मुसलमान तो यहीं सामने बैठे हैं जो उपनिषदों के विद्वान हैं।’’ यह बात सुनते ही मैं हत्प्रभ हो गया, फिर भी अपनी लाज छिपाने की कोशिश करता हुआ मैंने कहा, तो ‘‘यही संस्कृत और ब्राह्मण का सही-सही उच्चारण कर दें। जो मुसलमान सज्जन पास बैठे थे, उन्होंने संस्कृत और ब्राह्मण शब्दों का ही सही उच्चारण नहीं किया, बल्कि संस्कृत श्लोकों की वृष्टि से मुझे तोप दिया।

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