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कविता संग्रह >> समानांतर

समानांतर

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :217
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6844
आईएसबीएन :978-81-8031-335

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प्रस्तुत पुस्तक में विश्व-काव्य की श्रेष्ठ कृतियों का संकलन किया गया है।

Samanantar - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वे अहिन्दीभाषी जनता में भी बहुत लोकप्रिय थे क्योंकि उनका हिन्दी प्रेम दूसरों की अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा और प्रेम का विरोधी नहीं, बल्कि प्रेरक था।

                                 हजारप्रसाद द्विवेदी

दिनकर जी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है ? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि–यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता-गद्य, पद्य भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए।

                                                               हरिवंश राय ‘बच्चन’

उनकी राष्ट्रीयता चेतना और व्यापकता सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्त्वों पर बल, उनका सात्त्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।

                                                                                      अज्ञेय
हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।

                                                                       रामवृक्ष बेनीपुरी

दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।

                                      नामवर सिंह

समानांतर युगदृष्टा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा अनुदित विश्व-काव्य की श्रेष्ठ कृतियों का संकलन है।
इस पुस्तक में एक तरफ जहाँ हमें-पुर्तगाली, स्पेनिश, अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, अमरीकी, चीनी, पोलिश एवं भारतीय भाषाओं में मलयालम की अछूती भावभूमि और नवीन भंगिमाओं वाली कविताएँ मिलती हैं तो दूसरी तरफ डी०एच० लारेंस की वे कविताएँ भी जो यूरोप और अमरीका में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकीं, लेकिन जिनका राष्ट्रकवि दिनकर जी ने चयन ही नहीं बल्कि सरल भाषा-शैली में हिन्दी में अनुवाद भी किया और जो भारतीय चेतना के आसपास चक्कर काटती हैं।
अनूदित होते हुए भी नितान्त मौलिक होनेवाली कालजयी कविताओं का यह अनूठा संकलन है जो निश्चित ही पाठकों को पसंद आएगा।

सीपी और शंख

भूमिका

एक मजेदार किस्सा है जो सुनने लायक है।
कई वर्ष पहले की बात है, एक बार, शौक में आकर, मैंने कुछ विदेशी कविताओं के अनुवाद कर डाले और, जैसी मेरी आदत है, मूल के जो बिम्ब, विचार या मुहावरे हिन्दी में नहीं खप सकते थे, उन्हें छोड़कर मैंने उन्हीं के जोड़ के नए बिम्ब, विचार या मुहावरे हिन्दी में गढ़ दिए। नतीजा यह हुआ कि अनेक मित्रों ने कहा, ‘सीपी और शंख’ की कविताएँ अनुवाद नहीं, हिन्दी की मौलिक रचनाएँ हैं।

मगर, किस्सा यहीं खत्म नहीं होता। बात यह है कि इधर दो-एक साल से रूस में मेरी कविताओं के रूसी अनुवाद तैयार करने की कुछ थोड़ी कोशिश की जा रही है। मास्को से रूसी भाषा में साहित्य की एक त्रैमासिक पत्रिका निकलती है जिसमें विदेशी भाषाओं के अनुवाद छापे जाते हैं। पिछले साल रूस से एक विदुषी महिला मेरे साहित्य पर शोध करने को भारत पधारी। उन्होंने उक्त त्रैमासिक का वह अंक मुझे दिखाया जिसमें मेरी दस कविताओं के रूसी अनुवाद छपे थे। मैंने श्रीमती स्वेतलाना से कहा कि रूसी अनुवाद का अर्थ आप मुझे समझा दीजिए जिससे मैं समझ सकूँ कि आपके कवियों ने मेरी कौन-कौन कविताएँ अनुवाद के लिए चुनी हैं। स्वेतलाना जी ने सभी कविताओं का अर्थ मुझे समझाया, लेकिन यह देखकर मैं चकित रह गया कि मेरी दस कविताओं में से चार पाँच- वे थीं जो ‘सीपी और शंख’ में संगृहीत हैं।

मैंने श्रीमती स्वेतलाना से कहा कि ‘सीपी और शंख’ तो खुद’ अनूदित रचनाओं का संग्रह है, फिर आप लोगों ने उस संग्रह में से कविताएँ क्यों चुनीं ? वे बोलीं, हम लोग जानते हैं कि ‘सीपी और शंख’ की कविताएँ अनुदित रचनाएँ हैं और कौन कविता किस कवि की कविता पर से बनी है, इसकी सूची भी ‘सीपी और शंख’ से ली हुई कविताओं को मूल अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश या चीनी कविताओं से मिलाकर देखा भी। मगर उनकी राय यह हुई कि ‘सीपी और शंख’ की कविताएँ मूल से केवल प्रेरणा लेकर चली हैं, बाकी वे सब-की-सब, दिनकरजी की अपनी कल्पना से तैयार हुई हैं। इसलिए हम अगर उन्हें मौलिक रचनाएँ मानकर चलें तो इसमें कोई दोष नहीं है। इस तरह, उन्होंने ‘सीपी और शंख’ की भी कई रचनाओं को मौलिक कृतियाँ मानकर रूसी में उनका अनुवाद कर डाला और ये अनुवाद काफी पसंद भी किए गए हैं।
मुझे थोड़ी हँसी तो जरूर आई। मगर, मैंने स्वेतलाना जी से निवेदन किया कि रूसी में मेराकोई संग्रह छपे तो उसमें ‘सीपी और शंख’ की कविताओं के अनुवाद न रखे जाएँ, यही अच्छी होगा।
वर्तमान संग्रह ‘आत्मा की आँखें’ भी मेरी मौलिक कृतियों का संकलन नहीं है। इनमें से प्रत्येक कविता अंग्रेजी के कवि स्वर्गीय डी०एच० लारेंस की किसी कविता को देखकर गढ़ी गई है। और यहाँ भी तरीका मैंने वही अख्तियार किया है जिसका प्रयोग ‘सीपी और शंख’ में किया गया था।

इन सभी कविताओं की भाषा बुनियादी हिन्दी है। लारेंस की जिन कविताओं पर से ये कविताओं तैयार हुई हैं, उनकी भाषा भी मुझे बुनियादी अंग्रेजी के सामान दिखाई पड़ी- सरल, मुहावरेदार, चलतू और पुरजोर जिसमें बनावट का नाम भी नहीं है।
कविताओं की भाषा गढ़ने के लिए लारेंस छेनी और हथौड़ी का प्रयोग नहीं करते थे। जैसे जिन्दगी वे उसे मानते थे जो हमारी सभ्यता पोशाक के भीतर बहती है। उसी तरह, भाषा उन्हें वह पसन्द थी जो बोलचाल से उछलकर कलम पर आ बैठती है। बुद्धि को वे बराबर शंका से देखते रहे और कला में पच्चीकारी का काम उन्हें नापसन्द था। उनकी एक सूक्ति मिलती है। Remember, skilled poetry is dead in fifty years। मगर यह तो साहित्यिक विवाद का विषय है। उसमें पड़ने का यहाँ कोई प्रसंग नहीं है।

‘आत्मा की आँखें’ में ज्यादातर ऐसी कविताएँ हैं जो यूरोप और अमेरिका में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकीं। किन्तु मैंने खासकर उन्हीं को इस कारण चुना है कि वे भारतीय चेतना के काफी आस-पास चक्कर काटती हैं।

पटना4 जनवरी, 1964 ई०

रामधारी सिंह दिनकर

झील


मत छुओ इस झील को।
कंकड़ी मारो नहीं,
पत्तियाँ डारो नहीं,
फूल मत बोरो।
और कागज की तरी इसमें नहीं छोड़ो।

खेल में तुमको पुलक-उन्मेष होता है,
लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है।

वातायन


मैं झरोखा हूँ।
कि जिसकी टेक लेकर
विश्व की हर चीज बाहर झाँकती है।

पर, नहीं मुझ पर,
झुका है विश्व तो उस जिन्दगी पर
जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।
 
जो घटित होता है, यहाँ से दूर है।
जो घटित होता, यहाँ से पास है।

कौन है अज्ञात ? किसको जानता हूँ ?

और की क्या बात ?
कवि तो अपना भी नहीं है।

समुद्र का पानी


बहुत दूर पर
अट्टहास कर
सागर हँसता है।
दशन फेन के,
अधर व्योम के।

ऐसे में सुन्दरी ! बेचने तू क्या निकली है,
अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर
सुकुमार वक्ष के फूलों पर ?

सरकार !
और कुछ नहीं,
बेचती हूँ समुद्र का पानी।
तेरे तन की श्यामता नील दर्पण-सी है,
श्यामे ! तूने शोणित में है क्या मिला लिया ?

सरकार !
और कुछ नहीं,
रक्त में है समुद्र का पानी।

माँ ! ये तो खारे आँसू हैं,
ये तुझको मिले कहाँ से ?

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