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गजलें और शायरी >> दीवान ए मीर

दीवान ए मीर

अली सरदार जाफरी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6889
आईएसबीएन :9788126702602

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मीर की शायरी भारतीय कविता, खासकर हिन्दी-उर्दू की साझी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा सबूत है........

Diwan-e-Meer A Hindi Book by Ali Sardar jaffari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मीर तक़ी मीर भारतीय कविता के उन बड़े नामों में से हैं, जिन्होंने लोगों के दिलो-दिमाग़ में स्थान बनाया हुआ है। अपनी शायरी को दर्द और गम का मज़मूआ बताते हुए मीर ने यह भी कहा है कि मेरी शायरी खास लोगों की पसन्द की जरूर हैं, लेकिन ‘मुझे गुफ्तगू अवाम से है।, और अवाम से उनकी यह गुफ्तगू इश्क की हद तक है। इसलिए उनकी इश्किया शायरी भी उर्दू शायरी के परम्परागत चौखटे में नहीं अँट पाती। इन्सानों से प्यार करके ही वे खुदा तक पहुँचने की बात करते हैं, जिससे इस राह में मुल्ला-पण्डियों की भी कोई भूमिका नज़र नहीं आती। यही नहीं, मीर की अनेक ग़ज़लों में उनके समय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों तथा व्यक्ति और समाज की आपसी टकराहटों को भी साफ तौर पर रेखाकिंत किया जा सकता है, जो उन्हें आज और भी अधिक प्रासंगिक बनाती हैं।

दरअस्ल मीर की शायरी भारतीय कविता, खास कर हिन्दी-उर्दू की साझी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा सबूत है, जो उनकी रचनाओ के लोकोन्मुख कथ्य और आम-फहम गंगा-भापायी अंदाज में अपनी पूरी कलात्मक ऊँचाई के साथ मौजूद है।

मीर की शाइरी जितनी सादी और मनमोहक है उतनी ही टेढ़ी-बाँकी तिर्छी-तीखी भी है। उसमें जितनी कोमलता और घुलावट है उतनी ही कटुता और कड़ापन भी है। उदाहरण के लिए यह शेर बहुत प्रसिद्ध है-

 

हम फ़कीरों से बे अदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया

 

लेकिन स्वभाव की एक दूसरी ही कैफ़ियत इस शेर में मिलती हैं-

 

अपना शेवा कजी नहीं यूँ तो
यार जी टेढ़े बाँके हम भी हैं

 

अगर एक ओर मीर साहब यह कहते हैं-
दूर बैठा ग़ुबार-ए-मीर उस से
‘अश्क़ि बिन यह अदब नहीं आता
तो दूसरी तरफ़ इस बेअदबी की भी हिम्मत रखते हैं-

 

हाथ दामन में तिरे मारते झुँझला के न हम
अपने जामे में अगर आज गरीबाँ होता

 

मीर के उच्चकोटि के शेर केवल यही नहीं हैं-

 

उल्टी हो गयी सब तदबीरे, कुछ न दवा ने काम किया
देखा उस बीमारि-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हम को ‘अबस बदनाम किया

 

बल्कि इन शेरों की गणना भी उच्चकोटि के शेरों में होती हैं-

 

हम ख़ाक में मिले तो मिले, लेकिन अय सिपहर
उस शोख को भी राह प लाना ज़रूर था

 

कटु और मधुर, नर्म और गर्म, इस सम्मिश्रण में मीर के व्यक्तित्व का सारा जादू है। और यह व्यक्तित्व अपने काल के साथ घुल-मिलकर एक हो गया है। और यही कारण है कि इस शा‘अरि में दिल और दिल्ली पर्यायवाची शब्द बन गये हैं।
कभी-कभी यह विचार आता है (और यह विचार ही है) कि मीर ने हाफ़िज़ और ग़ालिब की तरह अपने समय के शिकंजों को तोड़ने में सफलता प्राप्त नहीं की और काल तथा इतिहास के बनाये हुए भयानक क़ैदखडाने की सारी आहनी सिलाखें (लौह शलाकाएँ) मीर के शरीर और प्राणों मे घुस गयीं। मीर के हिन्दुस्तान की तरह हाजिफ़ का ईरान भी गृहयुद्धों का शिकार था और उस अर्ध-जीविन शरीर को तैमूर की फौजी ने अपने घोड़ों की टापों से रौंद डाला और गालिब की दिल्ली सन् 1857 ई० के ग़दर की भेंट चढ़ गयी।

ये दोनों फ़ितने (उपद्रव किसी भी प्रकार मीरकालीन नादिरशाही और अहमदशाही फ़ितरों के कम नहीं थे। फिर भी एक के यहाँ हँसी-खुशी है और दूसरे के यहाँ विद्रोह और अंहकार। इसके प्रतिकूल मीर के यहाँ उस हँसी-खुशी और ताजगी तथा तृप्ति का अभाव है। उनकी शा’ अरिरी ग़म का एक अथाह सागर है, जिसमें आहों की कुछ मौजें हैं और एहतिजाज (विरोध) के कुछ तूफान। हँसकर व्यंग करना उनके लिए कठिन है झुँझालकर गाली देना सरल (सौदा के बाद सबसे ज्यादा गालियाँ मीर का काव्य में मिलेंगी। इसीलिए किसी ने कहा था कि मीर का उच्चकोटि का काव्य बहुत उच्चकोटि का है और निम्नकोटि का बहुत ही निम्नकोटि का ।) मीर के यहाँ प्रेंम संसार की सृष्टि का कारण होने के बावजूद जान-लेवा है।

 अभिरुचि की अधिकता कण को रेगिस्तान और बूंद को सागर बनाने के बजाय रोनेऔर मरने पर आमादा करती है। आवारगी स्वन्त्रता की भावना नहीं है बल्कि परीशान हाली और परीशान रोजगारी है इसमें तड़प नहीं है, उदासीनता और लाचारी है। इसीलिए मीर ने आवारगी की समीर से नहीं, बगूलों से उपमा दी हैं। मीर माशूक (प्रेमिका) से खेल नहीं सकते। वह या तो शिकायत करते हैं या आराधना। उनकी तबीयत बासोख़्य (उर्दू शाइरी की एक किस्म प्रेमिका को ताने दिये जाते हैं।) कि तरफ़ झुक जाती है। मिलन और आर्लिगन का अवसर जरा कम ही आता है। प्रतीक्षा का दर्द बड़ी हद तक आनन्द से अपरिचित है। वह दर्द-ही-दर्द है। नृत्य और संगीत के शब्द तो दूर इस कल्पना की परछाई भी मीर की ग़ज़लों पर नहीं पड़ती। वह कहीं-कहीं ज़मज़मा परदाज़ी (चिड़ियों की-सी चहचहाहट) का जिक्र जरूर करते हैं मगर इस सावधानी के साथ कि वह गिरफ्तारी (बन्धन) की खुशखबरी है।

लेकिन यह दुख व्यक्तिगत दुख नहीं, सारे संसार का दुख है। यह अपने दिल की आन्तरिक फिजा में सीमित एक व्यक्ति की पराजय नहीं है बल्कि एक पूरी दुनिया, एक पूरे युग की पराजय है जिसको उस व्यक्ति ने अपने अन्दर समेट लिया है। मीर एक हारे हुए प्रेमी जरूर हैं लेकिन यह इन्सान की नहीं खुदा की हार मालूम होती हैं, इसीलिए बेबसी और लाचारी के साथ-साथ उसमें एक विचित्र महानता है और इन्सान की खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करनेका साहस। यह एक कर्बला है, जिसमें हुसैन का क़त्ल, यज़ीद की मृत्यु की सूचना देता है। ट्रेजेडी के हीरों की शारीरिक पराजय वदी के मुकाबले में नेकी की रूहानी विजय होती है। दुनिया की महान कला, जय-पराजय, सुख-दुख की प्रतिकुल अवस्थाओं को इसी प्रकार मिलाकर दो रंगों से हजार रंग पैदा करती है मीर के बाद ऐसा शानदार गम किसी दूसरे शाइर को नसीब नहीं हुआ।
वह एक बामक़सद और बाशऊर (जाग्रत) शाइर हैं। उनका ग़ज़ल गायन केवल महफिल की गर्मी के लिए नहीं है। उसका स्थान उनकी दृष्टि में बहुत ऊँचा है। उन्होंने कुछ धनवादों और बादशाहों की मुसाहबत और नौकरी अवश्य की और कभी-कभी क़सीदी (स्तुति-गान) और मस्नवियों से उनको खुश भी किया लेकिन अपनी गजल पर कलंक नहीं लगने दिया। उनकी ग़ज़लों मे एक शेर भी किसी ‘तजम्मुल हुसैन खाँ’ (ग़ालिब का प्रशस्त) या किसी ‘‘हाजी क़िवाम’(हाफ़िज का प्रशस्त) की दिल-जोई के लिए नहीं हैं।


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