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नीति कथाएँ

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6930
आईएसबीएन :978-81-310-0808

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नीति कथाएं नैतिक मूल्यों की जानकारी देकर निरंतर प्रयास के लिए प्रेरित करती हैं...

Neeti Kathayein - A Hindi Book - by Swami Avdheshanand Giri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पानी की निचली सतह की ओर बहने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। यही बात मनुष्य के साथ भी है। उसे ऊपर उठाने के लिए काफी प्रयास करना पड़ता है। इस प्रयास में निरंतरता का होना भी आवश्यक है। नीति कथाएं नैतिक मूल्यों की जानकारी देकर निरंतर प्रयास के लिए प्रेरित करती हैं। नीति शास्त्र सिद्धांतों की विवेचना करता है, इसलिए प्राय: वह सामान्य मनस् की पकड़ से दूर हो जाता है। पंचतंत्रकार श्री विष्णु शर्मा ने वर्षों पहले जान लिया था कि बालकों और बालकों और बाल बुद्धि के लोगों को नीति का रहस्य समझाने के लिए कथा साहित्य की आवश्यकता है। उनका यह प्रयोग सफल रहा है। इस पुस्तक से भी हमें ऐसी ही अपेक्षा है।

1

प्रकृति का नियम

इस दुनिया को चलाने वाला कोई न कोई मालिक जरूर है। यूं भी समझा जा सकता है कि वह प्रकृति के रूप में उपस्थित है। उसके नियमों के साथ छेडछाड़ करना गुनाह है और साथ चलने के मायने हैं इबादत। इस्लाम के सीरतुस्सालेहीन में एक कहानी का जिक्र है। एक बूढ़ी औरत को चरखा चलाते देखकर एक पढ़े-लिखे युवक ने उससे पूछा कि जिंदगीभर चरखा ही चलाया है या उस परवरदिगार की कोई पहचान भी की है ?
बुढ़िया ने जवाब दिया, ‘‘बेटा, सब कुछ तो इस चरखे में ही देख लिया है।’’ पढ़ा-लिखा आदमी चौंका और उसने पूछा, ‘‘कैसे ?’’ बूढ़ी औरत ने जवाब दिया, ‘‘जब मैं इस चरखे को चलाती हूँ तब यह चलता है। जब मैं इसे छोड़ देती हूँ तो बंद हो जाता है। चलाए बिना नहीं चलता। इस दुनिया में जमीन, आसमान, चांद, सूरज। ये जो बड़े-बड़े चरखे हैं, इनको भी चलाने के लिए कोई एक होना चाहिए।’’

जब तक वो चला रहा है, यह चल रहे हैं। मिसाल के तौर पर जब मैं इसे चलाती हूं तो यह मेरे हिसाब से चलता रहता है। यदि मेरे सामने कोई बैठ जाए  और इस चरखे को चलाने लगे तो यह चरखा ठीक से चलेगा जब सामने वाला मेरी चाल के मुताबिक इसको चलाए। यदि वो मेरे चलाने के विपरीत चलाएगा तो यह चलेगा नहीं टूट जाएगा। बस, यही उसूल उस ऊपर वाले की दुनिया का है। उसने जिस ढंग से यह प्रकृति बनाई है, हमें नियमों का पालन करना चाहिए और यदि हम दूसरी तरफ चलने वाले बनकर उल्टा चलाएंगे यानी प्रकृति के नियमों को तोड़ेंगे, उस परवरदिगार के उसूलों के नहीं मानेंगे तो नुकसान उठाएंगे। इसी का नाम इबादत है। बूढ़ी औरत की बात उस आदमी की समझ में आ गई। पर्यावरण का संकट, आदमी की सेहत की परेशानी उल्टी चाल से ही पैदा होती है।

2

धर्म और अधर्म

राम के बाणों से घायल लंकापति रावण मौत के कगार पर था। उसके सगे-संबंधी उसके पास खड़े थे। तब राम ने लक्ष्मण से कहा, ‘यह ठीक है कि रावण ने अधर्म का काम किया था, जिसका सजा उसे मिली। लेकिन वह शास्त्रों और राजनीति का महान ज्ञाता है। तुम उसके पास जाकर उससे राजनीति के गुर सीख लो।’ लक्ष्मण बोले, ‘भइया, क्या आप यह सोचते हैं कि इस समय, जब वह घायल होकर मृत्यु शय्या पर पड़ा कराह रहा है, मुझे राजनीति का उपदेश देगा।’ श्रीराम ने कहा, ‘हां लक्ष्मण, रावण जैसा सत्यवादी कोई नहीं था। अहंकार ने ही उसको आज इस दशा में पहुंचाया है। अब उसका अहंकार दूर हो गया। अब वह तुम्हें अपना शत्रु नहीं मित्र समझेगा।’ लक्ष्मण राम की आज्ञा का पालन करते हुए रावण के पास गए और उसके सिरहाने के पास खड़े होकर बोले, ‘लंकाधिपति, मैं श्रीराम का छोटा भाई लक्ष्मण राजनीति का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आपके पास आया हूँ।’
रावण ने लक्ष्मण को एक क्षण देखा, फिर आँखें बंद कर लीं। कुछ देर खड़े रहने के बाद लक्ष्मण लौट आए और राम से कह, ‘मैंने कहा था कि इस समय रावण कुछ नहीं बताएगा। उसने मुझे देखते ही आंखें बंद कर लीं।’ राम ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘तुम यह बताओं कि तुम उसके पास किस ओर खड़े थे ?’ लक्ष्मण ने कहा, ‘मैं उसके सिरहाने की ओर खड़ा था।’ राम ने कहा, ‘रावण लंकाधिपति है। फिर जिससे ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसके चरणों की तरफ खड़े होकर प्रणाम करके अपनी बात कहनी चाहिए।’ लक्ष्मण फिर गए और उन्होंने रावण के चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया, फिर उपदेश की याचना की। इस बार रावण ने मुस्कुराते हुए लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और कहा, ‘धर्म का कार्य करने में एक क्षण की भी देरी नहीं करनी चाहिए और अधर्म का कार्य करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए।’ लक्ष्मण ने आज तक जो नहीं सीखा था, उसे सीख लिया।

3

स्वागत करो मृत्यु का

सजग होकर अपने जीवन को देखना एक कला है। इस प्रतिक्रिया में अपने आप समाधि लग जाती है। एक ऐसी समाधि जिसमें आदमी को स्वयं का बोध हो जाता है और संसार की फालतू बातें छूट जाती हैं। संसार का जो अनर्गल है वह हमें बहुत भारी बना देता है। जब हम दूर खड़े होकर तटस्थ भाव से अपने ही जीवन को देखने लगते हैं तो सब कुछ बहुत हल्का हो जाता है।

सुकरात के जीवन की एक कथा है। जब उनका अंतिम समय आया, शिष्य रोने लगे। तब सुकरात ने कहा, ‘‘रोना बंद करें। मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। लेकिन मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं कि मैं अपनी इस मृत्यु को होशपूर्वक देखूं। अब सब कुछ छूट रहा है। जितना छूटेगा उतना ही स्वयं बच जाएगा। जगत का बोध समाप्त होगा और स्वयं का बोध जागने लगेगा। सुकरात ने कहा कि मैं आज मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा, सिर्फ यह देख रहा हूँ कि मरना होता क्या है ? यह मौका मुझे आज मिला है, इसलिए आप लोग रोते हुए मेरी समाधि में व्यवधान पैदा न करें, और सचमुच तो बचते चले गए मौत होती चली गई। वे संदेश दे गए मृत्यु प्रतिदिन निकट आ रही है और जिंदगी प्रतिदिन घट रही है। इसलिए मृत्यु का भय न करें, उसके स्वागत की तैयारी की जाए।’’

सूखा नारियल अपनी खोल के भीतर पक जाता है। खोलने पर वह पूरा बाहर आता है। किंतु जो गीला नारियल होता है उसक फोड़ने पर वह अपनी खोल से चिपका रहता है। कई बार तो उसको निकालने के लिए उसके टुकड़े हो जाते हैं। ऐसा ही शरीर और आत्मा के साथ हैं। स्वयं शरीर से अलग हो जाने का अर्थ है पका हुआ होना, अपने आत्मभाव में पहुंच जाना और शरीर से चिपकते हुए मृत्यु वरण का अर्थ है गीलें खोल की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर पिलपिले होना। इसलिए शांति से जीवन में इस बोध को लाना बड़ा उपयोगी होता है।

4

मेहनत की कमाई ही श्रेष्ठ है

दान में सेवा भाव हो, तो वह अहंकार को बढ़ाता ही है। एक बार हातिमताई अपने मित्रों के साथ जा रहे थे। अचानक उन्हें एक भिखारी दिखाई दिया। हातिमताई उसके पास गए और उसे कुछ दान दिया। थोड़ा आगे जाकर हातिमताई ने अपने मित्र से पूछा, ‘‘मैं बहुत ही दानी हूँ। मेरी दानशीलता से मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं बहुत ही महान हूँ। तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो ?’’

मित्र ने जवाब दिया, ‘‘हातिम, ऐसा ही एक बार मुझे भी लगा था। अपनी महानता को प्रदर्शित करने के लिए मैंने एक विशाल भोज का आयोजन किया। उसमें मैंने अपने नगर के सारे व्यक्तियों को आमंत्रित किया। मुझे लगता था कि जब सारा नगर ही मेरे द्वारा दिए गए भोज पर आएगा, तब स्वत: ही मेरी महानता सिद्ध हो जाएगी। भोज के समय मैं अपने महल की छत पर खड़ा था। वहां से मैंने देखा था कि एक व्यक्ति उस समय अपनी कुल्हाड़ी से पेड़ काट रहा था। मुझे लगा कि शायद मेरे यहां भोज है। यह बात उस व्यक्ति को मालूम नहीं है। इसलिए मैंने अपने नौकर को उस व्यक्ति के पास भेजा। कुछ समय बाद मेरा नौकर मेरे पास आया और उसने कहा कि वह व्यक्ति मेरे यहां के भोज में नहीं आ सकता।’’
यह बात मुझे अजीब-सी लगी। मैं खुद उसके पास गया और उसे भोज में आने के लिए कहा। उस व्यक्ति का जवाब था, ‘‘मैं तो अपनी मेहनत की रोटी खाता हूँ। दूसरों के दान, कृपा, भलाई का बोझ ढोना मुझे पसंद नहीं है। बस हातिम, उस दिन के बाद मैंने अपने को कभी महान नहीं कहा। हातिमताई ने यह सुनकर कहा, ‘‘मैं भी उस लकड़हारे को सचमुच समझता हूँ। दान देकर खुद को महान समझने की बजाय मेहनत की कमाई खाने वाला ही अधिक महान है।’’


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