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सोया हुआ शहर

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6943
आईएसबीएन :978-81-216-1291

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आचार्य चतुरसेन की कहानियों का संग्रह...

Soya Hua Shahar - A Hindi Book - by Aacharya Chatursen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कथा-माला के बारे में

आचार्य चतुरसेन की सम्पूर्ण कहानियों की श्रृंखला की पहली कड़ी है ‘बाहर-भीतर’ फिर आई ‘दुखवा मैं कासे कहूं’, इसके बाद ‘धरती और आसमान’ तीसरी कड़ी बन गई। इसमें 31 कहानियां दी गई हैं। अब ‘‘सोया हुआ शहर’’ इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में आपके सामने है इस चौथे भाग में 31 कहानियां संकलित हैं।
अद्वितीय कहानियों और उपन्यासों के महान कथा-शिल्पी आचार्य चतुरसेन ने लगभग 450 कहानियां लिखी। इस पर योग्य सम्पादकीय टीम ने कार्य किया। इस तरह साकार रूप दिया गया। अब ये सभी कहानियां आपको केवल 5 भागों में एक ही जगह उपलब्ध होंगी, ताकि आचार्य चतुर्सेन के सम्पूर्ण कथा-सागर को एक ही बार में समग्र रूप में पढ़ने का बेहतर मौका मिल सके आप एक ख़ास क़िस्म का आनन्द प्राप्त कर सकें। इसमें यह तथ्य भी महत्त्व रखता है कि हिन्दी कहानी के अध्येता और शोधकर्ता भी इस महती योजना से लाभ उठा सकते हैं।

इस श्रृंखला की विशेषता यह है कि इसके पहले भाग में ‘कहानीकार का वक्तव्य’ दिया गया है तथा प्रत्येक कहानी के शीर्ष पर कहानी के बारे में टिप्पणी दी गई है। इससे कहानी का सार या पृष्ठभूमि पाठक के दिमाग में पहले से ही बैठ जाती है। उस पर सभी कहानियां प्रामाणिक मूल पाठ हैं और ये किसी भी शंका को तिरोहित करते हैं, ऐसा इनके बारे में कथा-साहित्य के विशेषज्ञों का मत है।
तो आइए, अभी से पढ़ना शुरू करते हैं आगे की तमाम कहानियां और फिर पढ़ते जाएं श्रृंखला के आगे के भाग और इस तरह गुज़र जाएं आचार्य चतुरसेन की 450 कहानियों के रचना-संसार से।

                        -सम्पादक की क़लम से

सोया हुआ शहर


इस कहानी में फतेहपुर सीकरी के खंडहरों में बिखरी हुई असाधारण मुग़ल-वासना को चित्रित किया गया है। पढ़ते-पढ़ते पाठक विवश उसी युग में पहुँच जाता है। इसमें अपने समय के सबसे बड़े बादशाह शाहजहां और उनकी प्यारी बेगम मुमताज महल का नवविकसित कोमल प्रेम वर्णित है।
आगरा के विश्वविख्यात ताज को देखने के बाद, जो लोग भाग्यहीन शाहजहां के अन्तिम बेबसी के दिनों पर करुणा का भाव भरकर घर लौटते हैं, उनकी आगरा-यात्रा अधूरी ही रहती है। दूर और निकट के यात्रियों का प्रायः यही रंग-ढंग देखने में आया है कि ताज देखा, सिकन्दरा का चक्कर लगाया और आगरा की प्रसिद्ध दालमोठ और पेठे की छोटी-सी पोटली पल्ले बांधी और समझ लिया कि आगरा की तफरीह पूरी हो गई।

उनमें से बहुत-से यात्रियों को यह नहीं मालूम है कि आगरा के पार्श्व में एक सोया हुआ शहर भी है, जिसका प्रत्येक निवासी सो रहा है—प्रत्येक भवन, प्रत्येक महल, प्रत्येक पत्थर सो रहा है। अनन्त-अटूट नींद में, ऐश्वर्य और विलास से सहस्रों थककर या ऊबकर—जहां जागरित पीर शेख सलीम की उज्जवल समाधि है और बादशाह अकबर की भांति जिस समाधि पर आज भी नर-नारी पुत्र की भीख मांगने जाते हैं। जहां जीती-जागती सुन्दरियों को गोट बनाकर शतरंज खेली जाती थी। जहां एक खम्भे के आधार पर टिके हुए भवन में बैठकर सम्राट अकबर तत्कालीन विद्वानों के साथ मनुष्यों के धर्म-भाव की एकता पर गम्भीर विचार किया करता था। जहां जोधाबाई ने मुग़ल हरम में राधामाधव की मूर्ति स्थापित की थी, जहां विश्वविख्यात बीरबल, खानखाना रहीम, विद्वान फ़ौजी–बन्धु और कट्टर मुल्ला अब्दुल कादिर उस बड़े मुग़ल के चरणों में बैठकर भारत के साम्राज्य की तलवार और क़लम से व्यवस्था करते थे; और जहां तानसेन और बैजू बावरा ने अपनी तान से वायुमंडल को पुलकित किया था।

इस समय हम उसी महानगरी की चर्चा करते हैं। उसका नाम फतेहपुर सीकरी है। आगरा तब एक छोटा-सा गांव जमुना–तट पर था। वहां न ताज था, न सिकन्दरा, न किनारी बाज़ार था, न भव्य क़िला। जब दोपहर की तेज़ धूप में तपी धूल के बवंडर को लेकर सायं-सायं आवाज़ करते उठती थीं, तब आगरा की फूंस की झोंपड़ियां हिल उठती थीं। उस समय फतेहुपुर सीकरी में एक से एक बढ़कर प्रासाद निर्माण हो रहे थे और बड़ी-बड़ी विभूतियां वहां एकत्र हो रही थीं। वहां प्रबल मुगल—साम्राज्य का निर्माण हो रहा था।
परन्तु हमारा वर्णन तो और आगे चलता है। सम्राट अकबर ही ने अपनी उस राजधानी को अधूरी छोड़कर आगरा को राजधानी बना लिया था। और जब सम्राट अकबर अपने राज्य का विस्तार कर स्वर्गस्थ हुए तथा उनके पुत्र जहांगीर ने मुगल तख़्त को सुशोभित किया, तब यह बेचारा भाग्यहीन शहर एक दलित-मलि विधवा की भांति अपनी सम्पूर्ण श्री खो चुका था और इतनी ही देर में वे महल और प्रासाद खंडहर और सूने हो चले थे।
बादशाह जहांगीर अपनी आयु के बचास साल व्यतीत कर चुके थे। मुग़ल साम्राज्य का संगठन पूरा हो चुका था। काबुल, कन्धार, ईरान, तूरान, हब्श और कुस्तुन्तुनिया तक उसकी धाक जम गई थी। इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों के राजदूत भांति-भांति के नज़राने लेकर जहांगीर के दरबार में चौखट चूमते थे।

बादशाह बहुधा लाहौर के दौलतख़ाने में रहते थे। आगरा भी उनका प्रिय निवास था। वास्तव में आगरा मु़ग़ल-साम्राज्य की राजधानी थी। राजधानी जहां विविध आश्चर्य और राजनीतिक घटनाओं का केन्द्र थी, वहां वह अनेक षड्यन्त्रों का घर भी थी। बहुत-सी ख़ून-ख़राबियां, बहुत-सी अनीतिमूलक कार्यवाहियां वहां आए दिन होती रहती थीं।
जहांगीर एक नर्मदिल प्रेमी और लापरवाह बादशाह थे। अफ़ीम और शराब दोनों का सेवन करते थे। उनकी मिज़ाज प्रेमीजनों की भांति कुछ सनकी था। असल बात तो यह थी कि वे नाम के बादशाह थे। असल बादशाह तो नूरजहां मलिका थी, जिसने अपने रूप, यौवन, चतुराई, ख़ुशमिज़ाजी और बुद्धि-वैभव से बादशाह और बादशाह के साम्राज्य पर भी अपना अधिकार कर रखा था। मुग़ल-साम्राज्य का कोई दरबारी अमीर नूरजहां की कृपा-दृष्टि पाए बिना सल्तनत में अपनी प्रतिष्ठा क़ायम नहीं रख सकता था। बादशाह के पुत्र भी इसका अपवाद न थे। इस कारण मुग़ल राजधानी षड्यन्त्र का एक गर्मागर्म केन्द्र बन गई थी। ये षड़यन्त्र बादशाह के भी विरुद्ध होते थे और बेगम नूरजहां के भी विरुद्ध।
अफ़वाह गर्म थी कि फतेहपुर सीकरी इन षड्यन्त्रकारियों का एक ज़बरदस्त अड्डा बना हुआ है। उस अड्डे को भंग करके साम्राज्य में अमन और व्यवस्था क़ायम करने के लिए बादशाह ने अपने अनेक कर्मचारियों को भेजा, परन्तु उन्हें कुछ भी सफलता नहीं मिली।

आगरा में इस बात का बड़ा आतंक फैला हुआ था कि आए दिन एक न एक राजकर्मचारी किसी असाधारण गुप्त रीति से पकड़कर ग़ायब कर दिया जाता है और कुछ दिन बाद उसकी लाश आगरा की शहर-पनाह के फाटक पर मिलती है, और एक इश्तहार में उसके जुर्म लिखकर टांग दिए जाते हैं।
यह भी बड़े ज़ोरों से अफ़वाह थी कि ऐसी आज्ञाएं फतेहपुर सीकरी से एक ज़बरदस्त गुप्त संगठन से प्रचारित होती हैं। और वह संगठन जिसे प्राण दंड देता है उसकी रक्षा न बेगम नूरजहां कर सकती है और न सम्राट जहांगीर। इस आतंक का अन्त करने स्वयं बादशाह लाहौर के दौलतखाने से आगरा तशरीफ़ लाए थे। और अपने प्रमुख दरबारियों और राजकर्मचारियों की असफलता से खीझकर इस बार उन्होंने ख़ुद शाहजादा खुर्रम को एक अच्छी सेना देकर फतेहपुर सीकरी भेजा था।
‘तो जानेमन, अब तुम यहीं आ गए ? अब कहीं जाओगे तो नहीं ?
‘नहीं दिलवर, कभी नहीं, अब हम चाहें जब मिल सकेंगे।’
‘चाहे जब कैसे प्यारे ? अब्बा मुझे घर से बाहर आने देंगे तब तो ?’
‘अब्बा क्या तुम्हें रोकते हैं ताज ?’

‘तुम नहीं जानते, कल वह शैतान खुर्रम यहां फौज़ लेकर आया है। बादशाह ने आगरा से उसे भेजा है, अब्बा की निगरानी करने को।’
‘तो आने दो उस शैतानी को, प्यारी ! वह हमारा क्या बिगाड़ लेगा !’
क्यों नहीं, क्या तुमने नहीं सुना—उसकी नज़र बहुत खराब है !’
‘सच ! तुमसे किसने कहा ?’
‘कहता कौन, क्या मैं नहीं जानती कि ये आगरा के ज़र्क़-बर्क शाहज़ादे के पाजी होते हैं।’
‘तो क्या हर्ज है ! नज़र बैठ जाए शाहज़ादे की। हिन्दुस्तान की मलिका बनोगी, इस ग़रीब की ज़ोरू बनकर क्या मिलेगा ?’
‘तुम तो मिलोगे, जो तमाम जहान कि मिल्कियत से ज्यादा हो।’

‘मगर कहां मकई की मोटी रोटियां, टूटी खाट, पुराना छप्पर और कहां रंग-महल, हीरा, मोती, नाच, रंग।’
‘ओह यूसुफ, तुम बड़ा जुल्म करते हो ! मैं ख़ुशी से वह रोटियां खाऊँगी और पका-पकाकर तुम्हें खिलाऊंगी। मैं उसकी आदी हूं। तुम औरत का दिल नहीं जानते, इसी से हीरा-मोती का लालच दिखाते हो।’
‘तो इसमें आँखें क्यों भर लाईं प्यारी ताज, मैं तो हंसी कर रहा था।’
‘तुम्हारी हंसी में मेरी जान जाएगी।’
‘नहीं नहीं, जानेमन ऐसा न कहो।’
‘तो कहो तुम अब्बा से अब कब मिलोगे ?’
‘बहुत जल्द। अंधेरा हो गया। चलो, मैं पहुंचा आऊं।’
‘पर कोई देख लेगा !’
‘देखने वाले की आंखें फूट जाएं।’

दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े। युवती अठारह साल की एक बाला थी। उसका हीरे के समान उज्ज्वल शरीर साधारण वस्त्रों में ढक रहा था और युवक एक देहाती ज़मींदार-सा मालूम पड़ता था। दोनों ने प्यार की नज़रों से एक दूसरे को देखा। युवक धीरे-धीरे बस्ती की ओर चला, उसके साथ-साथ अपने सौरभ और चपल गति से आनन्द बिखेरती हुई युवती भी चली। राह-बाट में अंधेरा छा रहा था।
अंधेरे के सन्नाटे में कुछ आदमी सतर्कता से बातचीत कर रहे थे। उनमें एक भद्र पुरुष था जिसकी लम्बी सफ़ेद दाढ़ी और गहरी काली आंखों से बुद्धिमत्ता तथा गम्भीरता टपक रही थी। दूसरा व्यक्ति शाहज़ादा खुर्रम था जिसकी आयु कोई सत्ताइस वर्ष की थी। दो आदमी हिन्दू राजपूत मालूम होते थे।


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