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चेतना के पंख

स्वामी सत्य वेदांत

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6958
आईएसबीएन :978-81-288-1234

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ओशो की दृष्टि पर आधारित जीवन जीने की कला...

Chetna Ke Pankh A Hindi Book by Swami Satya Vedant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वामी सत्य वेदांत (डॉ. वसंत जोशी)

डॉ. वसंत जोशी गत तीस वर्षों से शिक्षा जगत से जुड़े रहे हैं और उनका कार्य-क्षेत्र भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका रहा है। उन्होंने विश्व भर की यात्राएँ की हैं : जिनका मुख्य उद्देश्य लेक्चर देना, अपने शोध-पत्र प्रस्तुत करना, संगोष्ठियों में भाग लेना तथा ध्यान कार्यशालाओं का संचालन करना रहा है।

अमेरिका में रहते हुए डॉ. जोशी ओशो के क्रांतिकारी साहित्य से परिचित हुए। ओशो के जीवन-दर्शन तथा अंतर्दृष्टि ने उनके हृदय को इतनी गहराई तक स्पर्श किया कि वे 1975 में ओशो के दस दिवसीय ध्यान शिविर में भाग लेने पुणे आए और शिविर के पहले ही दिन ओशो ने उन्हें नव-संन्यास में दीक्षित किया और डॉ. वसंत जोशी को स्वामी सत्य वेदांत के नाम से नया जन्म मिला। तत्पश्चात् ओशो ने स्वामी सत्यवेदांत को ओशो मल्टीवर्सिटी का चांसलर नियुक्त किया।
प्रबुद्धि रहस्यदर्शी दर्शाते हैं : सभी मार्ग केन्द्र से निकलते हैं और केन्द्र पर ही पहुँचाते हैं। उन पर चलना खोज की प्रक्रिया है : परंतु इनके द्वारा बोध को जगाना साधना है।
बोध का जगाना क्या अर्थ रखता है ? मुख्यतः
. इस बात का होश कि अभी और यहाँ मैं कहाँ हूँ ?
. ऐसी तीव्र उत्कंठा कि मैं रुपांतरित हो जाऊँ। आंतरिक और बाहरी, सभी संभावनाएँ विकसित हों।
यह जानते हुए भी कि मार्ग अनेक हैं, मैं किस मार्ग को अपनाता हूँ ईमानदारी से, समग्रता से, प्रफुल्लता से।

इस पुस्तक में ओशो द्वारा दिए गए ऐसे ही विविध मार्गदर्शक चिरागों का प्रस्तुतीकरण किया गया है—ध्यानपूर्वक जीने और जीते हुए ध्यानपूर्ण रहने के लिए।

भूमिका

कहा जाता है, एक बार एक युवक बुद्ध के पास आया। वह बुद्ध के ज्ञान और उनके ईश्वरीय अस्तित्व के बारे में आशंकित था। ‘‘क्या तथागत की शिक्षा मौलिक और नई है ?’’ उस व्यक्ति ने पूछा।
बुद्धि के एक सुविख्यात और करीबी शिष्य सारिपुत्र ने अपनी दृष्टि बुद्धि की ओर से हटाई, उस व्यक्ति की ओर देखा और कहा, ‘‘यदि तथागत किसी नए और मौलिक मार्ग का शिक्षण देते तो वह ईश्वरीय नहीं होते।’’
सारिपुत्र की ओर गरिमापूर्ण ढंग से देख, बुद्ध मुस्कुराए और कहा, ‘‘सही कहा, सारिपुत्र, सही कहा।’’

आध्यात्मिक मार्ग का पथिक होने के कारण मैंने जाना कि सूचना तो नई या पुरानी हो सकती है पर सत्य कोई सूचना नहीं है। यह गौण है कि सत्य का दर्शन किसी को भी हो—चाहे बुद्ध, जीसस, कबीर, रूमी, ओशो, रमण महर्षि, आप या मैं—यह एक अनुभव की भाँति हमारे अंतस में विकसित होकर प्रकट होता है। निश्चित ही यह अनुभव मन की उत्पत्ति नहीं है।
बुद्ध की इस कथा के प्रकाश में, मैं सोचता हूँ, क्या सत्य, प्रेम, करुणा के अनुभव ‘‘नए’’ और ‘‘मौलिक’’ हो सकते हैं ? क्या प्रेम नया या पुराना हो सकता है। क्या करुणा का भाव पुरातन या आधुनिक हो सकता है ? हम कह सकते हैं सत्य दोनों हैं, नया या पुराना या इनमें से कोई भी नहीं। प्रेम और करुणा का भाव नए, अद्भुत और जीवित अनुभव हैं, समय और स्थान के परे। सत्य बस है, प्रेम है, करुणा है—इस ‘‘होने’’ में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। यह परिपक्व होता है, पर परिवर्तित कभी नहीं।

क्योंकि सत्य की खोज, उसका दर्शन और अनुभव सदैव होता रहा है, एक शंकालु मन कह सकता है, ‘‘इसमें नया क्या है ?’’ पर जब बुद्ध को सत्य का दर्शन होता है, तब उनके पूर्व उपलब्ध सत्य का ज्ञान पुराना नहीं पड़ जाता। वस्तुतः यह पुनः नया ही हो जाता है क्योंकि बुद्ध ने इसका एक नए रूप में, नए मार्ग से स्वयं के मार्ग से दर्शन किया है। यह मौलिक होता है क्योंकि इस भांति से यह प्रथम बार बुद्धि के द्वारा उद्घाटित होता है। चूँकि सत्य अनेक बार जाना और अनुभव किया गया है, इसे सूचना समझ लिए जाने की सामान्य भूल होती है।

विज्ञान नया या पुराना होता है। उदाहरणार्थ, जब आइंस्टीन कोई खोज करता है, न्यूटन की खोज पुरानी पड़ जाती है। आइंस्टीन नूतन और ज्यादा सूचना लेकर आता है, उसकी खोज नए तथ्य उद्घाटित करती है जो उसके पूर्व न्यूटन को अज्ञात थे। इस प्रकार हम नए वैज्ञानिक सिद्धान्तों से रू-ब-रू होते हैं, और तब नोबेल पुरस्कार, किसी विचार की नवीनता हेतु प्रदान किया जाता है। जो कुछ पूर्व में साधकों ने पाया, बुद्ध उसी बात को आगे नहीं बढ़ाते। वह सब उनकी खोज से संबंधित हो सकता है, पर उनका मार्ग प्रशस्त करने को आवश्यक नहीं। उनके पूर्व के साधकों की उपलब्धि इतनी व्यक्तिगत है, इतनी अद्वितीय है कि बुद्धि के लिए उनको दुहराने का कोई कारण नहीं, कोई औचित्य नहीं। बुद्ध की खोज नितांत वैयक्तिक है—अति विशेष, सबसे अलग और सबसे नई।

गौतम सिद्धार्थ किस प्रकार बुद्ध हुए, यह उनके आत्म-रूपांतरण की कथा है न कि यह कि किस भांति पूर्व-उपलब्ध सूचनाओं को सुधारा गया, उपयोग किया गया और छोड़ा गया, आदि। उन्होंने कभी भी सामान्य होने से अलग कोई दावा नहीं किया—‘निष्ठावान, प्रमाणिक, किन्तु सामान्य। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक खोज का श्रेय मानवीय प्रयास, मानवीय समझ और बुद्धिमत्ता को दिया। प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध होने की संभावना लिए है, यह उनके लिए कोई मत या सिद्धांत मात्र नहीं था, यह उनका दृढ़ विश्वास था जिसका आधार उनकी अपनी उपलब्धि थी। मानवता के लिए उनका अंतिम संदेश उनकी दो सशक्त उद्घोषणाओं में निहित है : सम्मासति ‘‘स्मरण रखे कि तुम एक बुद्ध हो’’ और, अप्प दीपो भव, ‘‘अपने दीपक स्वयं बनो।’’

बुद्ध-पुरुषों, जैसे बुद्ध और उनके पूर्व एवं पश्चात् के अनेक प्रज्ञा-पुरुषों की कथाओं और शिक्षा में अनेक महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश बिन्दु पाता हूँ, जो यदि समझे जाएं, खोज-यात्राओं में उचित उपयोग में लिए जाएं और जिए जाएं तो हमारी चेतना के विकास और बुद्धत्व के अनुभव हेतु हमें निर्णायक सहायता दे सकते हैं।
बुद्ध-पुरुषों के द्वारा उपयोग में लाए गए मार्ग सभी के लिए हो सकते हैं और नहीं भी पर उनके जागरण की प्रक्रिया, खोज और रूपांतरण हमारे स्वयं की ज्ञानोपलब्धि हेतु आंतरिक रूप से बहुत मूल्यवान और अंतर्संवंधित है।
बुद्धत्व प्राप्ति के लिए इन निर्देश-बिन्दुओं और प्रक्रिया के उचित उपयोग हेतु मैं पाता हूँ कि विधियां, कुशलता और ध्यान की क्रमबद्ध व्यवस्था भी आवश्यक है, जो हमारे भीतर इन निर्देशों-बिन्दुओं और प्रक्रिया को ग्रहण करने और सकारात्मक होने का द्वार खोल सकती हैं।


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