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मछली मरी हुई

राजकमल चौधरी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6982
आईएसबीएन :9788126705696

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यह इस छोटे-से उपन्यास का विषय नहीं है। विषय यह भी नहीं है कि शीरीं पद्मावत् को, एक साधारण पुरुष की साधारण पत्नी बनकर, जीवित रहने का अधिकार मिला या नहीं...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पिछली बड़ी लड़ाई के बाद कलकत्ता शहर में नई पीढ़ी के व्यापारियों की एक जमात एक सुबह सोकर उठने के बाद, अचानक पूँजी, प्रभुत्व और उद्योग-धंधों की बंद तिजोरियाँ खोलकर नया से नया व्यापार करने के लिए चौरंगी, डलहौजी स्कवायर, महात्मा गाँधी रोड, धर्मतल्ला और पुरानी क्लाइव स्ट्रीट में, अमरीकी शैली के दफ्तरों में बैठ गई।
निर्मल पद्मावत इसी जमात का एक व्यापारी है। इतनी बड़ी पूँजी और इतने बड़े ‘कल्याणी मैंशन’ का मालिक हो जाने के बाद भी निर्मल काले ‘संगमरमर की मूरत’ बनकर, वहीं का वहीं रुका क्यों रह गया-यह इस छोटे-से उपन्यास का विषय नहीं है। विषय यह भी नहीं है कि शीरीं पद्मावत् को, एक साधारण पुरुष की साधारण पत्नी बनकर, जीवित रहने का अधिकार मिला या नहीं। इस उपन्यास में विषय नहीं है, विषय-प्रस्ताव है-मात्र विषय-प्रस्ताव !

‘साधारण बनना, ‘एब्नार्मल’ बनना अधिक कठिन नहीं है। आदमी शराब की बोतल पीकर असाधारण बन सकता है। दौलत का थोड़ा-सा नशा, यौन-पिपासाओं की थोड़ी-सी उच्छृंखलता, थोड़े-से सामाजिक-अनैतिक कार्य आदमी को ‘एब्नॉर्मल’ बना देते हैं। कठिन है साधारण बनना, कठिन है अपनी जीवन-चर्या को सामान्यता-साधारण में बाँधकर रखना।’’

 

‘‘बरसात हुई। जल भर आया...
सूखी पड़ी नदी में
नीली मछली मरी हुई,
जी उठी....’’

 

आदरणीय बंधु
श्री रेवतीरमण झा
(मेरी एक पुरानी रचना ‘एक ही वृत्ति की रेखाएँ’ आपको बहुत पसंद थी !) की सेवा में, सप्रेम........

1962 (जून-जुलाई) में, हमारे एक मित्र परिवार की दो स्त्रियों को एक साथ मानसिक उत्तेजना और विक्षेप के कारण, अस्पताल भेजा गया था।......यह उपन्यास उन्हीं दिनों लिखा जा रहा था। हम लोग कलकत्ते में ‘मूर-एवेन्यू’ से लगातार ‘फ्री-स्कूल स्ट्रीट’ के इलाकों में आवारा घूमते रहते थे और ऐसी ही अविश्वसनीय, काल्पनिक एवं अकर्मण्य वस्तुओं में विश्वास करते थे।......ललित शर्मा, उमा सहगल, परमेश, सूर्यदेव सिंह अमर, मंजू हालदार, अभय जैन, मदनलाल सेठी, मानव गुप्त, ओम प्रकाश मनचंदा, चंपा कुलश्रेष्ठ, अरुंधती मुखर्जी, बैजू शाह-हम लोग कई चौराहों पर इकट्ठे होते थे, कई दूसरी गालियों में अलग होने के लिए। इन सबके प्रति आभार प्रकट करना न तो उचित है न आवश्यक।.....और न यह कहना ही आवश्यक है कि किसी भी व्यक्ति का चित्र, चरित्र अथवा परिचय ‘मछली मरी हुई’ में नहीं है। उपन्यास में वर्णित सूचनाएँ संयोग और कु-अवसर से प्राप्त हुई हैं, इच्छित अनुभव से नहीं !......कलकक्ते में ‘कल्याणी-मेन्शन’ कहीं नहीं है।

 

‘कामायनी’   

 

राजकमल चौधरी

 

मरी हुई मछलियों के बारे में..........

एक

‘लेस्बियाँ’......अर्थात् समलैंगिक यौनाचारों में डूब गई हुई स्त्रियों के बारे में, खासकर हिंदी में, बहुत कम ही लिखा गया है। भारतीय स्त्रियों के निजी चरित्र को नंगी आँखों से देखने का अवसर और ‘संयोग’ हम लोगों को नहीं मिल पाता है। कहीं पर्दादारी के कारण, और कहीं दूसरी जगह बे-पर्दगी के कारण !

 

दो

 

1959 (अगस्त) में ‘लहर’ पत्रिका, अजमेर के कहानी-विशेषांक में मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई थी, ‘बारह आँखों का सूरज’। ‘विनोद’ पत्रिका, कलकक्ता के वार्षिक अंक (1961) में, मैंने एक दूसरी कहानी लिखी, ‘सामुद्रिक’। इन दो कहानियों के सिलसिले में मुझे होमोसेक्सुअलिटी के बारे में सूचनाएँ और घटनाएँ एकत्र करनी पड़ीं।.....लेकिन, ‘मछली मरी हुई’ लिखने के समय मैंने महसूस किया कि निर्मल पद्मावत की ‘दास्ताने-हम्ज़ा’ बयान करते हुए इन घटनाओं-सूचनाओं का उपयोग किया जा सकता है।

विदेशी भाषाओं में भी इस विषय पर गिनती की ही किताबें लिखी गई हैं। ‘फीमेल सेक्स पर्वर्शन’ (डॉ० मौरिस सिडेक्ल) 1938 में, और ‘सेक्स वैरिएंट्स’ (डॉ० जार्ज डब्ल्यू० हेनरी) 1941 में प्रकाशित हुई। स्त्रियों के समलैंगिक यौनाचारों के बारे में, इन्हीं दो किताबों में पहली बार बातें की गईं। और, इस यौनाचार को एक मानसिक रोग की ‘स्वीकृति’ मिली।
1951 में ‘द होमोसेक्सुअल इन अमेरिका’ (रोनाल्ड वेब्सटर कोरी) प्रकाशित हुई और ‘ द सेकेंड सेक्स’ (सिमन द बोवुआँ) 1952 में। फिर, 1954 में इस विषय पर पूरी एक किताब ‘फीमेल होमसेक्सुअलिटी’ (फ्रैंक एस० कैप्रिओ) आई। इन किताबों के अतिरिक्त, डॉक्टर किन्से की पुस्तक ‘सेक्सुअल बिहेवियर इन ह्यूमन फ़ीमेल’ है। कुछ उपन्यास, कहानियाँ और आत्मकथाएँ भी अंग्रेजी साहित्य में हैं। डायना फ्रेडरिक्स की आत्मकथा 1939 में प्रकाशित हुई, जिसकी ओर विश्व-भर के बुद्धिजीवियों और मानसशास्त्रियों का ध्यान आकृष्ट हुआ।
यह कहना गैरजरूरी है कि मैंने ये सारी पुस्तकें पढ़ी हैं।

 

तीन

 

संसार के लगभग सभी ‘सभ्य देशों में पुरुषों का समलैंगिक आचरण कानून द्वारा वर्जित है। स्त्रियों को, अधिकतर देशों में यह स्वाधीनता अब तक मिली हुई है। पेरिस, न्यूयार्क, टोकियो-जैसे शहरों में सम्पन्न और स्वाधीन स्त्रियों ने अपने लिए ऐसे ‘क्लब’ और आराम घर बनाए हैं, जहाँ अपनी ‘प्रेमिका’ के साथ एकत्र होकर, वे विभिन्न उपायों और उपचारों से समलैंगिक सहजाचार करती हैं। कानून इन्हें रोक नहीं पाता।
प्रतिष्ठित अमरीकी जज, मौरिस प्लोसोव ने अपनी किताब ‘सेक्स एंड द लॉ’ में यह सवाल उठाया है। पुरुषों के लिए जो सहजाचार वर्जित है स्त्रियों को उसकी आजादी क्यों मिली हुई है ?
इस प्रकार के यौन संबंधों के प्रति प्लोसोव और अन्य अनुदार विद्वानों और विशेषज्ञों के मन में आदर नहीं है, उदारता भी नहीं। लेकिन, ये औरतें इच्छित (‘पर्वर्शन’ की हद तक) यौन-कार्यों की स्वाधीनता माँगती हैं......

 

चार

 

हमारे देश में जनाना ‘क्लब’ नहीं हैं और न ही यहाँ की ‘देसी’ औरतों को आधुनिक तौर-तरीकों से यह सब करने सहने की जानकारी ही है।
हमारे देश की औरतें समलैंगिक आचरणों में लिप्त रहकर भी अधिकांशत: समझ नहीं पातीं कि वे क्या कर रही हैं, और किस मतलब से कर रही हैं......करती हैं अवश्य लेकिन नींद में, नशे में, अनजाने कर लेती हैं। और, अपने कुसंस्कारों और अंधेपन में जकड़ी हुई, अधिक ‘धार्मिक’ और अधिक संत्रास’ बनी रहती हैं।

 

पाँच

 

पिछली बड़ी लड़ाई के बाद, कलकत्ता शहर में नई पीढ़ी के व्यापारियों की एक जमात एक सुबह सोकर उठने के बाद, अचानक पूँजी, प्रभुत्व और उद्योग-धंधों की बंद तिजोरियाँ खोलकर, नए-से-नया व्यापार करने के लिए चौरंगी, डलहौजी-स्कवायर, महात्मा गाँधी रोड, धर्मतल्ला और पुरानी क्लाइव स्ट्रीट में, अमरीकी शैली के ऊँचे दफ्तरों में बैठ गई।
----निर्मल पद्मावत इसी जमात का एक व्यापारी है। इतनी बड़ी पूँजी, और इतने बड़े ‘कल्याणी-मेन्शन’ का मालिक हो जाने के बाद भी, निर्मल काले संगमरमर की ‘मूर्ति’ बनकर, वहीं-का-वहीं रुका क्यों रह गया....यह मेरे इस छोटे-से उपन्यास का विषय नहीं है। विषय यह भी नहीं है कि शीरीं पद्मावत को एक साधारण पुरुष की साधारण पत्नी बनकर जीवित रहने का अधिकार मिला या नहीं !.....इस उपन्यास में विषय नहीं है, विषय-प्रस्ताव है......मात्र विषय-प्रस्ताव !

 

                                    राजकमल चौधरी
                                        20.7.65

 

पुनरुक्ति : पांडुलिपि प्रेस में जाने से पूर्व, एक बार फिर से देखे जाने का अवसर प्रकाशकों ने मुझे दिया है, मैं उनका आभारी हूँ।

 

                                    राजकमल चौधरी
                                        13.12.65

 

एक

 

इस वक्त यहाँ कौन आया है ? कौन है वह ? कैसी नकाब लगाकर आया है ? काली-पीली नकाब ? और वह हम लोगों से क्या चाहता है ?
दरवाजे की घंटी लगातार बजने लगी। घंटी नहीं बज रही है-डॉक्टर रघुवंश ने अपने मन को यह भ्रम देने की कोशिश की। घंटी बज नहीं रही है। दरवाजे के बाद सीढ़ियों पर खड़ा कोई अजनबी प्रतीक्षा कर नहीं रहा है। कोई अजनबी नहीं ! लेकिन भ्रम स्थापित नहीं हो सका। आवाज बहुत तेज गूँजती है और समाधि तोड़ देती है। ध्यान जम नहीं पाता। रोशनी बिखर जाती है, फूटे हुए बल्ब की तरह ! कान जख्मी हो रहे हैं। आवाज ध्यान तोड़ देती है।
प्रिया दरवाजा खोलने ही जा रही थी कि पिताजी ने कहा, ‘‘अर्जेंट केस नहीं हो तो कहना, सुबह आइए।’’


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