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हास्य-व्यंग्य >> उमरावनगर में कुछ दिन

उमरावनगर में कुछ दिन

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :78
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6983
आईएसबीएन :8171780202

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श्रीलाल शुक्ल की प्रस्तुत पुस्तक में तीन व्यंग्य कथाएँ सम्मिलित हैं...

Umroanagar Mein Kuchh Din - A Hindi Book - by Shrilal Shukla

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीलाल शुक्ल की प्रस्तुत पुस्तक में तीन व्यंग्य कथाएँ सम्मिलित हैं-‘उमरावनगर में कुछ दिन’, ‘कुन्ती देवी का झोला’ और ‘मम्मीजी का गधा’।

जैसाकि नाम से स्पष्ट है, संग्रह की आधार-कथा है : ‘उमरावनगर में कुछ दिन’। उमरावनगर यानी एक ऐसा गाँव, जिसे नियोजित विकास का चमत्कार दिखाने के लिए चुना गया है, लेकिन जिसके सार्वजनिक जीवन में आजादी के बाद पनपे सारे अवसरवाद और भ्रष्टाचार के साथ हुए तमाम समझौते मौजूद हैं। ‘कुन्ती देवी का झोला’ में डाकुओं और पुलिस के आतंकवाद का बेजोड़ चित्रण है, जिसका शिकार अन्तत: निर्दोष जनता को बनना पड़ता है। ‘मम्मीजी का गधा’ में अफसरशाही के अहं को विषय बनाया गया है और प्रसंगत: इस बात की भी खबर ली गई है कि नेता लोग अर्थहीन-सी स्थितियों का किस प्रकार लाभ उठाते हैं।
निश्चय भी यह संग्रह श्रीलाल शुक्ल की सुपरिचित व्यंग्य-प्रतिभा को नई ऊँचाई सौंपता है।

 

उमरावनगर में कुछ दिन

बक़री, मुर्ग़ी और फटी क़मीज़ें

बस में जहाँ मैं बैठा था, वहाँ बकरी न थी; मेरे पास बैठे आदमी की गोद में सिर्फ मुर्ग़ी थी। बकरियाँ पीछे थीं। उस भीड़-भक्कड़ में अगर कहीं कोई बकरी का बच्चा आदमी की गोद में था या कोई बकरी आदमी के घुटने पर थी तो कुछ ऐसे आदमी भी थे जिनके पाँव बकरी के पेट के नीचे या पीठ बस की पिछली दीवार से चिपकी थी। उनके सर कहाँ थे, कहना मुश्किल है क्योंकि उनसे हाथ-दो-हाथ ऊपर भी कई सर दीख रहे थे।

बस के रुकने पर समझने में देर नहीं लगी कि यहाँ उतरने में, चढ़ने के मुकाबले ज्यादा जीवट की जरूरत होगी। पर मेरा मुर्ग़ी वाला साथी मुझसे ज़्यादा उतावला था। अभिमन्यु की तरह भीड़ का चक्रव्यूह तोड़ता हुआ जब वह आगे बढ़ा तो मैं भी उसके कुर्ते में झूलता हुआ वहाँ तक पहुँच गया जहाँ दरवाज़ा होना चाहिए और उसके नीचे कूदते ही मैं भी उसी के साथ ज़मीन पर चू पड़ा। मेरे हाथ से झूलती अटैची किसी की टाँगों में फँसी होगी क्योंकि मेरे पीछे जो मुसाफ़िर कन्धे के बल ज़मीन पर आया, उसकी एक टाँग आसमान में थी और दूसरी की धोती मेरी अटैची के टुकड़े के कुण्डे से उलझी थी। मेरे मुर्ग़ी वाले साथी का कुर्ता पीछे से चीथड़ा बन चुका था पर वह इससे बिल्कुल बेख़बर था। उसे देखकर मुझे ख़बर हुई कि मैं अपनी कमीज़ के मामले में बेख़बर हूँ, उसका कन्धा अपनी सिलन छोड़कर पीठ पर झूल गया था।
सड़क पर जहाँ बस रुकी थी उसके किनारे एक दवाख़ाना था जिस पर किन्ही डा. अंसारी का नाम लिखा था। विज्ञापन पट्टी-पट्टी पर ए.ए.यू.पी., पी.यम.पी., यम.डी. जैसी डिग्रियाँ लिखी थीं। यम.डी. से मेरा मन मुदित हो गया गया क्योंकि यह डाक्टरों के खिलाफ़ इस इल्ज़ाम का जवाब था कि ऊँची डिग्री लेने के बाद वे शहर छोड़कर देहात नहीं जाना चाहते। पर पट्टी पर दुबारा निगाह पड़ते ही मैंने देखा, यम.डी. के नीचे कोष्ठकों के भीतर उर्दू, यानी फ़ारसी लिपि में लिखा है, ‘मैनेजिंग डाइरेक्टर, अंसारी क्लिनिक’। यह तो हुआ यम.डी.। अब मैंने ए.ए.यू.पी. और पी.यम.पी. के तिलिस्म को तोड़ना चाहा। पी.यम.पी. का गुर आसान था : प्राइवेट मेडिकल प्रैक्टिशनर। ए.ए.यू.पी. का गुर दूसरे दिन पकड़ में आया।
दवाख़ाने में एक ऊँघता हुआ बुड्ढा, हज़ारों मक्खियाँ। उसके सामने, सड़क के किनारे दो तख़्तों पर छ:-सात लोग भिन्न-भिन्न आसनों में बैठे बातें करते हुए; पर एक भी आसन ऐसा नहीं जिससे जल्दी उठने का आभास हो रहा हो। जहाँ तक बात की बात है, बात सिर्फ़ एक आदमी कर रहा था, बाकी सिर्फ़ उसकी बात ज़ोर-ज़ोर से सुन रहे थे।

 

इक़बाल मियाँ

मुझे पता नहीं था कि मेरे अध्यापक मित्र कहाँ रहते हैं। उनका पता पूछने के लिए मुझे यहाँ रुकना पड़ा। पर यहाँ देश की दुर्दशा पर बहस चल रही थी। जैसा कि होना चाहिए, देश के सामने व्यक्ति और खास तौर से मुझ-जैसे व्यक्ति पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

‘‘.......तुम कहते हो कि देश को नेताओं ने चौपट किया है। सरासर ग़लत। सारा देश तो बाबुओं के हाथ में है। पूरा बाबू-राज है। बाबू जैसा चाहता है, वैसा ही होता है।’’

बात में कोई मौलिकता नहीं थी, फिर भी शायद मेरा सर अनजाने ही इसके अनुमोदन में हिल गया। जवाब में उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखा, गोया मुझे सनद दी कि मैं भुनगा नहीं, उन जैसा नहीं तो कम-से-कम दूसरों ही जैसा इन्सान हूँ। फ़र्माया, ‘‘देखिए न, इसी छब्बीस जनवरी की बात है। दिल्ली के किसी बाबू की करामत देखिए। छब्बीस जनवरी को उठाकर ऐन इतबार के दिन गिरा दिया। ग़रीबों की एक दिन की छुट्टी मारी गयी।’’
बात कुछ महीन क़िस्म की थी। लोग समझने की कोशिश करने लगे। उन्होंने फिर फ़र्माया ‘‘मिनिस्टर को पता नहीं चला होगा।’’
एक आदमी ने ओंठ हिलाकर पहले कुछ कहने की कोशिश की, फिर कहा, ‘‘मगर इकब़ाल साहब, कौन-सी तारीख़ किस दिन पड़ेगी, यह बाबू या मिनिस्टर थोड़ी ही तय करता है ?’’
‘‘फिर कौन तय करता है ?’’
कहकर शायद अनुमोदन के लिए, उन्होंने फिर मेरी ओर अपनी नजर उठायी। उनका श्रोता-समुदाय निरुत्तर हो चुका था। तब मैंने अपने मित्र के घर का पता पूछा।
वे लगभग साठ साल के होंगे। मोटे बदन पर लम्बा कुर्ता और तहमद। सर पर चौकोर टोपी। नाक के कोने पर एक एक बड़ा-सा काला मस्सा, जो बड़ी-बड़ी आँखों के नीचे बसकर पूरे चेहरे को समुद्री डाकुओं जैसा ख़ूँख्वार बनाता था। यही, जब वे आँखें मूँद लेते होंगे, उनके चेहरे की ध्यान-मुद्रा को और भी गहनता देता होगा; धार्मिक भाषणों को मार्मिक बनाने में सहायता करता होगा।

 

मित्र ने कहा :

‘‘अच्छा हुआ आते ही तुम्हारी इक़बाल साहब से मुलाक़ात हो गयी। यहाँ के सबसे रईस आदमी हैं। काफी समझदार भी। पिछले चुनाव में सत्ताधारी पार्टी का टिकट भी मिल गया था। जीतते-जीतते बचे।’’

‘‘समझदारी का सबूत तो पहली मुलाक़ात ही में उन्होंने दे दिया। कहते हैं कि कौन तारीख़ किस दिन पड़ेगी यह बात दिल्ली के किसी दफ़्तर का बाबू तय करता है।’’

मित्र ने भौंहें सिकोड़कर कुछ सोचा, बोले, ‘‘तो तुम्हीं बताओ यह कौन तय करता है ?’’
झटका लगा, ‘‘पर जल्दी सँभल गया। मैंने समझाया, ‘‘यह सब तो मिस्टर गणेशन् तय करते हैं।’’
‘‘कौन मिस्टर गणेशन् ?’’
‘‘तुमने अख़बार में नहीं पढ़ा ? वही जिन्होंने हाल ही में अपनी बेवा की बहन से शादी की है।’’
वह हमेशा से ऐसे ही हैं। दोनों ज़ोर से हँसे, वैसे जोड़ बराबर पर नहीं छूटा था, प्वाइंट्स पर मैं जीत रहा था।
‘‘दरअसल, इक़बाल मियाँ की हालत विशेषज्ञों-जैसी है। अपने विषय को छोड़कर उन्हें कई विषयों का क ख ग तक नहीं आता.....’’
मित्र का ठिकाना सड़क से लगे हुए इस मकान की दूसरी मंज़िल पर था। दो छोटे कमरे थे, छत के दूसरे किनारे एक छोटी कोठरी, जिसमें रसोईघर था। दूसरी तरफ़ खुले में दीवारें घेरकर नहाने का प्रबन्ध; उसी के दूसरे हिस्से में एक अचम्भा था-साफ़—सुथरा शौचालय, फ़्लश के लिए भले ही बाल्टी का प्रयोग होता हो। नहाने वाले हिस्से में हैण्डपम्प लगा था। हैण्डिल सँभालकर चलाना पड़ता था क्योंकि वह खुरदरी दीवार में रगड़ खाता था।
हैण्डपम्प चलाते वक़्त मैं अपनी उँगलियों को दीवार से रगड़कर ज़ख़्मी बना चुका था। उन पर डिटॉल लगाकर, रसोईघर के दरवाज़े पर खड़े-खड़े जहाँ खाल छिल गयी थी वहाँ की जलन का आनन्द ले रहा था। मित्र चाय के लिए स्टोव जला रहे थे, इक़बाल मियाँ की गौरव-गाथा सुना रहे थे :
‘‘विशेषज्ञों के साथ अक्सर ऐसा होता है। अपने ही को लो। तुम ग्रामीण अर्थशास्त्र के माहिर हो। अब अगर तुमसे कोई भौतिक विज्ञान की किसी गुत्थी पर बात करने लगे तो तुम भी इक़बाल मियाँ-जैसी चूक कर सकते हो। है कि नहीं ?’’
‘‘है। पर इक़बाल मियाँ विशेषज्ञ काहे के हैं ?’’
‘‘उन्हें भी, क्या कहा जाये-एक तरह से ग्रामीण अर्थशास्त्र का ही विशेषज्ञ कह लो। खास तौर से जंगलों की कटान और जंगली लकड़ी के उपयोग के बारे में उन-जैसा माहिर इधर कोई नहीं है।’’

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