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आवारा सज्दे

कैफ़ी आज़मी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6986
आईएसबीएन :978-81-8031-286

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कैफ़ी आज़मी की नयी नज़्मों का संकलन...

Awara Sajde - A Hindi Book - by Kaifi Aazami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आवारा सज्दे’ मेरा तीसरा काव्य-संकलन है, जो पहली बार उर्दू में 1973 में छपा था। यह मेरी नयी नज़्मों का संकलन है। भारत में इसका स्वागत मेरी आशाओं से भी बढ़कर हुआ। इसकी कुछ नज़्मों को तोड़-मरोड़कर, उनको अपनी तरफ़ से ग़लत-सलत मानी पहनाकर, कुछ फ़िरक़ापरस्तों ने शायर को बदनाम करने की बदबख़्त कोशिश की, लेकिन रुस्वा हुई उनकी अपनी समझ! पढ़े-लिखे वर्ग ने इसे हाथों-हाथ लिया। इसी वजह से इस संस्करण में तमाम नयी नज़्में और ग़ज़लें शामिल करने से अपने को रोक न सका।
 
मैं बारह-तेरह बरस की उम्र में शे’र कहने लगा था। मेरा माहौल शायराना था। घर में उर्दू-फ़ारसी के सभी नामवर शायरों के काव्य-संकलन मौजूद थे। ख़ास-ख़ास मौक़ों पर घर में क़सीदे की महफ़िलें होती थीं। कभी-कभार तरही मुशायरे भी होते। आजकल छ:-छ: महीने मुझसे एक मिसरा भी नहीं होता। उस ज़माने में रोज़ ही कुछ न कुछ लिख किया करता था। कोई नौहा, कोई सलाम, कोई ग़ज़ल। उस ज़माने की सब चीज़ें अगर समेटकर रखने लायक़ न थीं, तो मिटा देने लायक़ भी नहीं। मुझे उनकी बर्बादी का अफ़सोस भी नहीं है। इसलिए कि उस समय तक न मैं शायरी की सामाजिक ज़िम्मेदारी से वाकिफ़ हुआ था, न शे’र की अच्छाई-बुराई से। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के जन्म लेने और उसके असर से पैदा होने वाले अदब ने मुझे बहुत जल्द अपनी पकड़ में ले लिया। मैंने इस नये साहित्यिक आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध होकर जो कुछ भी कहा, उनसे मेरे तीन-काव्य-संकलन तैयार हुए। प्रस्तुत संकलन देवनागरी लिपि में मेरा पहला प्रकाशन है। यह मेरी कविताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें ‘झंकार’ की चुनी हुई चीज़ें भी हैं ‘आख़िर-शब’ की भी। ‘आवारा सज्दे’ मुकम्मल है। मेरी नज़्मों और ग़ज़लों के इस भरपूर संकलन के जरिए मेरे दिल की धड़कन उन लोगों तक पहुँचती है, जिनके लिए वह अब तक अजनबी थी।

        कैफ़ी आज़मी

कैफ़ी आज़मी का कवि-व्यक्तित्व


कैफ़ी को लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं। दिल को मसोसने वाले उसके फ़िल्मी-गीत देश और विदेश के प्रेमी दिलों में बसे हुए हैं। विश्वास और आदर्श के परचम उठाए हुए, सौंदर्य की मोहिनी और आकर्षक जादू जगाये हुए ये प्रेम रस के छलकते गीत श्रेष्ठ और मार्मिक कविता भी हैं। मुझे लगता है, इन गीतों की करुणा और मिठास उसकी कविता की भी खास पूँजी है। मगर इसके अलावा भी उसमें कुछ है।.....वह क्या है ?

यौवन की सारी कसमसाहटों और सरगर्मियों की बेचैनी, उभार और समर्पण की ये कविताएँ-करुण या मधुर या ओजस्वी-कभी ख़ून में तड़पती बिजलियाँ हैं तो कभी प्रेम की महकती लपटें, कभी सौंदर्य के दहकते शोले।......
मगर शीघ्र ही, अपने तमाम भावुक सिलसिलों को लिये हुए, ये कविताएँ ठोस धरती पर काँटों के पथ पर उतर आती हैं,* और नया ही अर्थ झलकाने लगती हैं। तब ये वीर युवा हृदयों का जौहर बन जाती हैं; और जुझारू दुनिया के सामाजिक संघर्षों में उनकी निश्चित विजय का प्रतीक। एक नयी शानदार दुनिया का निशान ऊँचा करती हुई।
जब यही प्रेम और सौंदर्य की गहरी भावनाएँ नये समाज-निर्माण के लिए आत्म-बलिदान की भावना से ओत-प्रोत होने लगती हैं तो उनकी यह हठीली दुनिया ही महान्-से-महान् योजनाओं के औचित्य का आधार बनती है। वही पावन ऊर्जा है जो कैफ़ी की काव्यानुभूतियों की जान है-

जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को,
सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं !

और-


लमहे भर को यह दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है !
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं !

ऐसा-कुछ न हो तो सारी भावुकता का क्या अर्थ है ? या कवि की भरपूर कला का ?

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* जिन्दगी चलती रही काँटों पर अंगारों पर !
  तब मिली इतनी हसीं इतनी सुबुक चाल तुझे !

मसलन् यह कविता जिसका शीर्षक ‘बोसा’ है, कैसे माहौल में अचानक लिखी गयी- इसकी कथा भी, मेरा खयाल है, दिलचस्प लगेगी; और आगे की बहस के लिए शायद प्रासंगिक भी। सन् 1945-46 की बात है। कैफ़ी टैक्स-टाइल्स वर्कर्स यूनियन के मजदूरों की एक स्ट्राइक के दौरान, मिल-फाटक पर हैं;-कि अचानक एक कविता ज़ेहन में उभरती है, और लिख ली जाती है। (स्ट्राइक का कारण था मिल-मालिकों का यह आदेश, कि मज़दूरों को चार साँचे चलाने ही पड़ेंगे; जिसका परिणाम यहा होता था कि आधे मजदूर छटनी करके निकाल दिये जायँ। स्ट्राइक इसी के विरोध में थी।) मगर मिल-मालिक उसे ग़ैरक़ानूनी घोषित करने में सफल हो गये और स्ट्राइक फेल हो गयी। बहरहाल, पार्टी के साथियों ने जब यह रोमानी नज़्म देखी तो बरस पड़े। असफलता का सारा दोष उस पर और उसकी कविता पर मढ़ दिया। उधर मजदूरों की प्रतिक्रिया क्या थी ? कुछ दिनों बाद उन्होंने भी वह नज़्म सुनी, और इस आदर्शवादी रोमानी रचना को सीने से लगाया। प्रेम-व्यंजना के व्यापक सामाजिक सन्दर्भ को सहज-स्वभाव ही उन्होंने महसूस कर लिया। निश्चय ही वे कविता और घोषणापत्र का अन्तर जानते थे। अपने अचेतन में कहीं यह भी जानते थे कि दोनों में कोई आवश्यक विरोध नहीं। और कवि को तो वे अच्छी तरह पहचानते थे। उस पहचान में कोई फ़र्क़ नहीं आया है, बल्कि समय के साथ वह और गहरी ही हुई है।

पाँचवें-छठे दशकों में प्रेम और प्रगतिवाद की बहस को वामपक्षी आलोचक बड़ी बारीक खुर्दबीन से देखते थे। मगर कैफ़ी ने इस समकालीन उलझन को अपने संघर्ष में किस तरह हल किया ?.......जिस तरह किया-वह सीधी मार्क्सवादी ‘तरह’ थी।
इस सदी के उत्तरार्ध में हर गंभीर कलाकार को इस मंजिल से गुज़रना पड़ा है। और अन्त में इसी निष्कर्ष पर आने को मजबूर हुआ है कि, इतिहास के द्वन्द्वात्मक-भौतिकवाद विश्लेषण की रोशनी में, स्वस्थ परम्पराओं-यानी सार्थक आदर्श मूल्यों-से अपने आपको रचनात्मक ढंग से जोड़ने के सिवाय उसके आगे और कोई रास्ता नहीं। कैफ़ी ने उस दौर का अपना अनुभव मुझे इन शब्दों में बताया : मैं अक्सर रोमानी नज़्में लिखता था। जब मैं कम्युनिस्ट पार्टी के कारकुन की हैसियत से मजदूरों में काम करने लगा तो मैंने महसूस किया कि उनके बीच में रह कर शायराना तक़ल्लुफ़ की ज़बान नहीं चलेगी। मेरे नग़्मों को सहज और स्वाभाविक होना होगा। यानी ज़बान को उनके दिलों के और नज़दीक लाना होगा। मजदूरों से मेरा बराहरास्त राबता था : एक-दम डायरेक्ट ‘झनकार’ की बहुत-सी नज़्में कानपुर के मजदूरों के बीच रहकर लिखी गयीं। मुझे इसका एहसास होने लगा कि मेरे जज़बात (भावनाएँ) कहाँ उनके इनक़लाबी हितों का साथ देते हैं और कहाँ वो उनके खिलाफ़ पड़ सकते हैं। फिर, ’44-45 में जब मैं बम्बई आया तो मैंने मदनपुरा के कामगारों में काम करना शुरू कर दिया। शू-वर्कर्स की यूनियन बनायी। वग़ैरह......। और जब फ़िल्म में लिखना शुरू किया तो पार्टी की एक्टिविटी और बढ़ा दी। बीड़ी मजदूरों की यूनियन बनायी। किरायेदारों का एसोसिएशन क़ायम किया। बल्कि फ़िल्मी दुनिया से मुझे अपने यूनियन के कामों को बढ़ाने में ख़ासी मदद मिली। फ़िल्मी दुनिया में जाकर मैं आम आदमी के संघर्ष को भूल नहीं गया। वहाँ भी बहुतों को अपने साथ लाया......

मैंने पूछा कि-यूनियन के कामों में क्या और भी शायर आपके साथ हैं ? बोले-‘नहीं, दूसरे शुअरा में से मेरे साथ कोई नहीं है।’

मैं काफ़ी संकोचशील व्यक्ति हूँ। मगर इस मर्तबा कैफ़ी से बहुत बातें हुईं तो बम्बई के पार्टी कम्यून का वह ज़माना आँखों के सामने फिर गया जब सन् ’45-46 और, ’47 में मैं भी वहाँ था। उस समय पार्टी के मुख्य मन्त्री पूर्णचन्द्र जोशी थे, हमारे लिए ‘पी०सी० जोशी’ या ‘पी०सी०’ : साहित्यकारों-कलाकारों के साथी, मित्र और गुरु। उनमें सृजन प्रक्रियाओं की सही पकड़  और अपनी हार्दिक सहानुभूति से रचनाकारों में—मार्क्सवादी परिकल्पना के साथ-साथ- अकूत आत्मविश्वास और नयी स्फूर्ति जगा देने की अद्भुत प्रतिभा थी। कम्यून में सबको अलस्सुबह उठना पड़ता था। मगर ‘पी०सी०’ की ताक़ीद थी कि कैफ़ी को सुबह-सुबह कोई न जगाये। पी०सी० कैफ़ी के अटूट सृजनात्मक श्रम और आवेश की थकान को समझते थे।
वह ज़माना था आज़ादी की जंग का, और कांग्रेस और लीग के द्वन्द्व और संघर्ष का। सभी पार्टियों के लीडर अपना-अपना रंग और जोशो-खरोश और पैंतरे दिखा रहे थे। कैफ़ी ने इन नेताओं पर एक नज़्म लिखी थी, जिसमें उसने उनके भाषणों से नाटकीय और रोचक टुकड़े लेकर उन्हें एक अजब व्यंजनात्मक शिल्प के साथ छन्दोबद्ध कर दिया था। यह कैफ़ी का अपना एक स्वतन्त्र एक्सपैरिमेंट था। जोशी को जब उस नज़्म का पता चला और उसे देखा तो उन्होंने अपना लिखा-लिखाया सम्पादकीय फाड़ डाला और उनके स्थान पर वही नज़्म पार्टी-साप्ताहिक में कम्पोज होने के लिए भेज दी। (अंग्रेजी संस्करण के लिए उसका अनुवाद स्व० श्री सज्जाद ज़हीर ने किया था।)

विभिन्न मनोवैज्ञानिक स्थितियों को उनके पूरे नाटकीय माहौल और वातावरण के साथ- गम्भीर विश्लेषण या व्यंग्य विद्रूप के आवरण में- हू-ब-हू साकार सजीव रुप में पेश कर सकने की सहज क्षमता का यह एक उदाहरण मात्र है। गद्य-पद्य दोनों में सुविख्यात शैलियों का, वो चाहे पुरानी हों या नयी, चर्बा उतारना कैफ़ी के लिए कभी कोई बड़ी बात नहीं रही है।
मैंने उनसे पूछा-उर्दू कविता की परम्परा में आपने सबसे अधिक किस कवि से असर लिया ?
-ग़ालिब से।
-मगर ग़ालिब तो बहुत कम्प्लैक्स (जटिल मन:स्थितियों और अनुभूतियों का) कवि है और आपका रंग इतना सलीस और शैली इतनी साफ़.......
-ग़ालिब से जो बात मैंने सीखी वह यह कि जो बात कहो उसको लोगों का तजुरबा बना दो।.....मैंने यह किया कि जो चीज़ मैंने महसूस की वह छोड़ दी। कहीं वही चीज़ जो मैंने शिद्दत से महसूस की। मेरे-हाँ यह ग़ालिब ही की देन है।....और ज़बान और असबूल पर [यानी अभिव्यक्ति की शैली पर] सबसे ज़्यादा असर मीर अनीस का है। भाषा में नैचुरल अन्दाज़ [स्वाभाविकता], सादगी और बहाव-रवानी और तसल्लुफ [सुम्बद्धता] को मैं बहुत अहमियत देता हूँ।......पूरे तजुरबे को [अनुभूति को] अपने पूरे माहौल और मोड़ों के साथ-साथ देना चाहता रहा हूँ।......इसलिए ग़ज़ल के तंग दायरे ने मुझे अपनी तरफ़ नहीं खींचा। यह फ़ार्म [विधा] मुरत्तब फ़िक्र [सुसम्बद्ध चिंतन] के पहलुओं को स्पष्ट और जोरदार ढंग से व्यक्त करने के लिये, ग़ज़ल से हटकर, ‘नज़्म’ के मैदान में ज्यादा खुली गुंजाइश थी।

इसी दृष्टिकोण का नतीजा है जो कैफ़ी के यहाँ सीधा यथार्थ खुद-ब-खुद बोल उठता है। र्हैटरिक से इस शायर को नफ़रत है। आलंकारिता की परछाई भी यहाँ न मिलेगी। उसके छन्द को घोषणाओं की-सी आन-बान की जरूरत नहीं। वह अपने धीमे और नर्म लहजे से ही गहरा और अधिक गहरा, असर ढालने में कामियाब होता है। बुलन्द आहंग और धन-गरज का उसने सिर्फ़ इन्क़लाबी जेहाद और जंग संबंधी नज़्मों में ही प्रयोग किया है, और सच्चाई अन्तिम पद तक महसूस की जा सकती है। कैफ़ी के साज़ में अनुभूति की सच्चाई अन्तिम पद तक महसूस की जा सकती है। कैफ़ी के साज़ में सभी स्वर हैं। जिस मौक़े पर जो भी उभरता है सच्चा स्वर होता है।

तमाम कला राजनीति है। यह एक अति परिचित और यथार्थ उक्ति है। जिस कला में राजनीति नहीं है, वह कला नहीं।* कोरी ‘‘राजनीति’’ नहीं। वह राजनीति जिसमें आम आदमी की आशाएँ-आकांक्षाएँ सुलगती हैं। हर सच्चा कलाकार-देखा जाय, तो हर युग में- उसी अग्नि का ताप झेलता है। वही उसका ‘सोज़े-निहाँ’ है-

इक यही सोज़े-ए-निहाँ कुल मिरा सरमाया है !
कैफ़ी कहता है।
यह आत्मा में छुपा हुआ ताप, यह सोज़े-निहाँ, क्या है, कौन-सा है ? यह ताप है.......मनुष्य के सुन्दर भविष्य में उसकी आस्था का; जिसके लिए अनेक देशों की जनवादी पार्टियाँ (दूसरे विश्वयुद्ध के पहले से, और उसके बाद और भी) संघर्ष कर रही हैं।
इस संघर्ष को धक्का लगता है जब बड़ी जनवादी पार्टियों में बिखराव और विद्वेष पैदा होता है और नेताओं की दृष्टि धुँधली पड़ने लगती है। इसी ट्रेजडी को देखकर, जब देश के बेहतरीन दिमाग़ कुन्द पड़ जाते और उस धुन्ध में खो जाते हैं, कवि को मर्मान्तक पीड़ा होती है। सन् ’64 में क्षुब्ध होकर वह कह उठता है-

इक यही सोज़े-ए-निहाँ कुल मिरा सरमाया है !
दोस्तो ! मैं किसे यह सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ ? !
...किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ !
...अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं !
दस्तो-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं !
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़,
आज सिज्दे वही आवारा हुए जाते हैं !
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मिटे और मेरा रहनुमा कोई नहीं !
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था :
कह दिया अक़्ल ने तंग आके-ख़ुदा कोई नहीं !

और उसे लेनिन की याद आती है। वह पुकारता है-
देखते हो कि नहीं !
....रूहें आवारा हैं ! दे दो उन्हें पैकर अपना !
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* विज्ञ पाठक जानते हैं कि बर्नार्ड शॉ, बल्कि इब्सन....से लेकर ब्रेश्ट और आधुनिक इटली के अनेक फ़िल्म निर्देशक तक यही बात दुहराते आये हैं।


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