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मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग भाग 4

रमेशचन्द्र महरोत्रा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7000
आईएसबीएन :81-7119-472-9

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सशक्त अभिव्यक्ति के लिए समर्थ हिंदी...

Manak Hindi Ke Shuddh Prayog 4 - A Hindi Book - by Ramesh Chandra Mahrotra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस नए ढंग से व्यवहार-कोश में पाठकों को अपनी हिंदी निखारने के लिए हज़ारों शब्दों के बारे में बहुपक्षीय भाषा-सामग्री मिलेगी। इस में वर्तनी की व्यवस्था मिलेगी। उच्चारण के संकेत-बिन्दु मिलेंगे-व्युत्पत्ति पर टिप्पणियाँ मिलेंगी। व्याकरण के तथ्य मिलेंगे- सूक्ष्म अर्थभेद मिलेंगे, पर्याय और विपर्याय मिंलेंगे-संस्कृति का आशीर्वाद मिलेगा, उर्दू और अँग्रेजी का स्वाद मिलेगा-प्रयोग के उदाहरण मिलेंगे, शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय मिलेगा।

पुस्तक की शैली ललित निबंधात्मक है। इस में कथ्य को समझाने और गुत्थियों को सुलझाने के दौरान कठिन और शुष्क अंशों को सरल और रसयुक्त बनाने के लिहाज से मुहावरों, लोकोक्तियों, लोकप्रिय गानों की लाइनों, कहानी-क्रिस्सों, चुटकलों और व्यंग्य का भी सहारा लिया गया है। नमूने देखिए-स्त्रीलिंग ‘दाद’ (प्रशंसा) सब को अच्छी लगती है, पर पुल्लिंग ‘दाद’ (चर्मरोग) केवल चर्मरोग के डाक्टरों  को अच्छा लगता है। ‘मैल, मैला, मलिन’ सब ‘मल’ के भाई-बंधु हैं। (‘साइकिल’ को’ ‘साईकील’ लिखनेवाले महानुभाव तो किसी हिंदी –प्रेमी के निश्चित रूप से प्राण ले लेंगे- दुबले को दो असाढ !.. अरबी का ‘नसीब’ भी ‘हिस्स’ और ‘भाग्य’ दोनों है। उदाहरण-आप के नसीब में खुशियाँ ही खुशियाँ हैं। (जब कि मेरे नसीब में मेरी पत्नी हैं !)
यह पुस्तक हिंदी के हर वर्ग और स्तर के पाठक के लिए उपयोगी है।

 

‘अंक’ और ‘खंड’

 

‘यदि आप विद्यार्थी रहे हैं, तो ज़रूर जानते होंगे कि ‘अंक क्या है, ‘पूर्णांक क्या है, और ‘प्राप्तांक क्या है।
‘अंक’ में ‘अंक्’ धातु है, जिस का अर्थ चिन्हित करना है ‘अंक’ बराबर ‘चिन्ह’ है, ‘संख्यासूचक चिन्ह’ है, ‘संख्या’है। वह ‘नाटक के एकाधिक खंडों में से एक खंड’ है (यहाँ एक ही खंडवाले एकांकी’ को याद कीजिए)। ‘अंक’ बराबर किसी पत्र-पत्रिका की अवधिसापेक्ष क्रमांकित प्रति’ है।
‘अंक’ के रचना-संसार में एक ओर ‘अंकुर (अँखुआ, कल्ला), अंकुश गज-बाँक, नियंत्रण), अंकेक्षण (अँगरेज़ी में ऑडिट’) देखिए और दूसरी ओर कंलक (काला चिन्ह आदि), निरंक (अँगरेज़ी में ‘निल’), पर्यंक (पलँग)’ देखिए।
यदि आप विद्यार्थी रहे हैं, तो यह भी जानते होंगे कि ‘नामांकन’ क्या है और ‘मूल्यांकन’ क्या है ?
‘अंकन आगे बढ़ कर ‘आँकना’ बना और ‘अंक’ ने ‘आँक’ बनते हुए ‘आँकड़ा’ के लिए रास्ता बनाया।
‘खंड’ अपने एक अर्थ ‘ग्रंथ का विभाग’ के कारण ‘अंक’ के एक अर्थ (नाटक का खंड) के काफ़ी पास पहुँच जाता है, अन्यथा यह उस से बहुत दूर की चीज़ ‘मकान की मंजिल’ भी है।
‘खंड’ धातु ‘खंड्’ का अर्थ ‘तोड़ना’ है, इसलिए ‘खंड’ बराबर ‘टुकड़ा, भाग’ है।
जब किसी चीज़ के ‘खंड’ न हों, तो वह ‘अखंड’ है- निरंतर चलनेवाला’।
आप किसी बात का ‘खंडन’ करते समय उसे ‘खंडित’ कर देते हैं (अर्थात् उस के टुकड़े कर डालते हैं)।

 

‘अंग’ और ‘अंश’

 

यों तो किसी संपूर्ण वस्तु के प्रभाव या खंड को ‘अंश’ दोनों ही कहा जाता है, पर अन्यथा ये काफ़ी अलग-अलग अर्थों के वाहक हैं।
‘अंग’ का मतलब ‘शरीर’ भी और ‘शरीर का अवयव’ भी। वह अँगरेज़ी में ‘बॉडी’ और ‘लिंब’ है। (अड्ग्’ बराबर ‘चलना’।)
‘अंश’ का मतलब सीधे-सीधे ‘हिस्सा’ ‘टुकड़ा’ है-अँगरेज़ी में ‘पार्ट’ और ‘पोर्शन।
(‘अंश’ बराबर ‘बाँटना।)
‘अंश’ किसी वस्तु का सारभूत घटक होता है। यह ‘अंगी’ या प्रधान का सहायक होता है, जिस का मतलब है कि वह गौण या आश्रित वस्तु भी होता है।
‘अंगना’ बराबर ‘सुंदर अंगोंवाली स्त्री’ (‘नृत्यांगना’ में) (मानो पुरुष सुंदर अंगोंवाला हो ही न सकता हो!)
‘गौरांगी’ किसी गोरे अंगोंवली स्त्री को कहिए और ‘शुभांगी’ ? ‘शुभांगी’ ? को अर्थ की दृष्टि से कामदेव की पत्नी रति तक पहुँचाइए।
‘अंश’ बराबर ‘भाज्य’ अंक’ है और ‘भिन्न (सही-बटे) की लकीर के ऊपर का अंक’ है (जो उस लकीर ने नीचे के अंक का ‘भाग’ ही होता है।)।
‘अंश’ का एक मतलब ‘डिग्री’ है। प्रत्येक कोण का कोई ‘अंश’ होता है। हम तापमान को ‘अंश’ में बताते हैं। पृथ्वी के ‘अक्षांश’ और ‘रेखांश’ में भी ‘अंश’ अपना काम कर रहा है।
अंत में, ‘अंश’ (या ‘अंस’) बराबर ‘कंधा’।

 

‘अति’ और ‘अत्यंत’

 

‘अति’ में ‘अत्’ है, जिस का अर्थ है ‘लगातार चलते रहना’। ‘अति’ माने ‘आगे बढ़ा हुआ, साधारण से बढ़ कर, चरम सीमा तक पहुँचा हुआ, बहुत, अधिक’। इस आधार पर ‘अत्यधिक’ (अति+अधिक) बराबर हुआ ‘बहुत अधिक’ यानी ‘डबल अधिक’।
संज्ञा के पूर्व लगने पर यह शब्द ‘श्रेष्ठता’ और ‘सीमाल्लंघन’ का अर्थ देता है। उदाहरण-‘अति ज्ञान’ और ‘अति पीड़ा’।
विशेषण और अव्यय के पूर्व लगने पर इस का मतलब ‘आधिक्य’ होता है।
उदाहरण-‘अति सफल’ और ‘अति धीरे’।
‘अत्यंत’ (अति+अंत) के अंत’ (अम्+तन्)और इस के अर्थों में शामिल ‘अनंत’ (न+अंत) – अन्+अंत) के अंत’ पर ध्यान दीजिए, जिस के कारण यह ‘कभी अंत न होनेवाला’ अर्थात् नित्य, चिरस्थायी’ तथा ‘संपूर्ण, सीमातीत’ आदि विशेषणों का वाचक है।
अव्यय के तौर पर ‘अत्यंत’ का प्रयोग ‘बहुत अधिकता से, पूरे तौर से, सोलहों आने हमेशा के लिए अर्थों को व्यक्त करने के लिए किया जाता है।
अति’ उपसर्ग के रूप में भी इस्तेमाल होता है (उदाहरण-अतिक्रमण, अतिरेक,
अतिशय); ‘अत्यंत’ उपसर्ग के रूप में इस्तेमाल नहीं होता (यह पूरे शब्द के रूप में ही इस्तेमाल होता है)।
 ‘अति’ संज्ञा के रूप में भी प्रयुक्त होता है। उदाहरण-‘‘अति’ हर चीज़ की बुरी होती है।’’ यहाँ अति’ का अर्थ है अतिरेक, अतिशयता, आवश्यकता से अधिक होने का भाव, मर्यादा का उल्लंघन करनेवाली अधिकता’। ‘अत्यंत’ संज्ञा के रूप में प्रयुक्त नहीं होता।

 

‘अतिथि’ और ‘अस्पताल’

 

कुछ लोगों के द्वारा ‘अतिथि’ को ग़लत ढंग से ‘अ+तिथि’, अर्थात ‘बिना तिथि सूचित किए हुए आया हुआ व्यक्ति’, समझा दिया जाता है, जब कि वस्तुतः यह शब्द ‘अत् (चलना चलते रहना) + इथिन्’ है, जिस से अर्थ निकलता है ‘चलता रहनेवाला, न टिकनेवाला यात्री, अभ्यागत’।
संस्कृत का ‘अतिथि’ और लैटिन का ‘इतिस’ एक ही मूल के दो विकसित रूप हैं। लैटिन में ‘इतिस’ के पूर्व ‘हास्पेस’ (मेज़बान) जोड़ कर ‘हास्पितेले’ बनाया गया, जिस का मतलब हुआ ‘अतिथिसत्कारगृह, सराय’। अँग्रेज़ी में ‘हास्पिटैलिटी’ का अर्थ इसी वजह से ‘आतिथिसत्कार’ है। ‘अतिथिसत्कार करनेवाला व्यक्ति’ (संज्ञा) अँगरेज़ी में ‘हॉस्ट’ है (जो लैटिन के ‘हॉस्पेस’ से संबद्ध है) तथा ‘अतिथिसत्कार करनेवाला’ (विशेषण) ‘हास्पिटेबिल’है।
अब तक आप शायद भाँप चुके होंगे कि अँग्रेज़ी के हॉस्पिटल’ और इस में हिंदी में आगत ‘हस्पताल’ या ‘अस्पताल’ का अर्थ ‘चिकित्सालय’ कैसे हो गया। क्रम यह है कि लैटिन का ‘हास्पितेले’ प्राचीन फ्रांसीसी के माध्यम से अँगरेज़ी में पहुँच कर ‘हास्पिटल’ हुआ। ‘अतिथिसत्कारगृह’ करनेवाले इस शब्द से विस्तृत आशय ‘यात्रीगृह, वृद्घों का आवास, अनाशालय’ आदि भी निकलने के कारण इस के अर्थ में ‘गृह, आवास, आलय’ के साथ सेवा की भावना’ प्रमुख हो गया। ‘अस्पताल’ में ‘सेवा (की भावना)’ भी होती है और वहाँ ‘टिकनेवाले (अतिथि)’ भी होते हैं।
‘अस्पताल’ शब्द के इतिहास में छिपा हुआ ‘अतिथि’ शब्द अपने किसी भी रूप में संस्कृति के ‘चिकित्सालय’ और अरबी-फारसी के ‘शफ़ख़ाना’ (अरबी ‘शफ़ा’ माने ‘स्वास्थ्य’) और ‘दवाखाना’ में नहीं मिलता।

 

‘अधर’ और ‘ओष्ठ’

 

‘‘बात ‘अधर’ में लटक कर रह गई (न इधर की हुई, न उधर की हुई)।’’
‘अधर’ माने ‘बिना आधार का’। धरती और आकाश के बीच के स्थान का कोई आधार नहीं होता (धरती, धरणि, धरा, धरिणी’ का होता है)।
‘अधर’ माने नीचा का’ (नीच’ भी)। ‘दक्षिण’ नीचे होता है; ‘अधर’ का एक अर्थ ‘दक्षिण दिशा’ भी है।
‘अधर’ प्रथमतः नीचे का ओष्ठ’ (ओठ, ओंठ, होठ, होंठ) है; अब ऊपर का भी। ‘उधर’ शरीर के निचले भाग के लिए भी प्रयुक्त होता रहा है।
अब ‘ओष्ठ की बात करें, जिस का केवल एक अर्थ है- मुख के सब से बाहरी ऊपर-नीचे के पटनुमा मांसल अंग, जो बंद रहने पर दंतावली को ढके रहते हैं (बशर्ते कि आदमी के दाँत राक्षसी न हों)’ इन्हें इसलिए ‘दंतच्छद’ (‘छद्’ धातु माने ‘ढकना’) भी कहा जाता है। ये ‘रदच्छद’ भी कहे जाते हैं (क्योंकि ‘रद’ माने ‘दाँत’, जिस की धातु ‘रद्’ का अर्थ है ‘टुकड़े-टुकड़े करना, फाड़ना’।)

 

‘अनुरोध’ और ‘प्रार्थना’

 

यों तो ‘अनुरोध’ का अर्थ ‘रुकावट’ भी है (‘रुध्’ माने ‘रोकना’; ‘अवरोध’ और ‘गतिरोध’ को याद कीजिए), पर उस रोज़मर्रा का अर्थ ‘किसी बात के लिए विनयपूर्वक किया जानेवाला आग्रह’ है।
‘आग्रह’ (‘ग्रह’माने ‘ग्रहण करना’) का अर्थ पुनःपुनः निवेदन’ में बात को नम्रतापूर्वक कहना होता है, लेकिन उसे ज़रूरत से ज़्यादा पुनरुक्तियाँ देना-पीछे ही पड़ जाना-उसे ’हठ’ में बदल देता है। ‘हठ’ को आप ‘आप ‘आग्रह’ से बढ़ कर ‘दुराग्रह’ कहना पसंद करेंगे।
कोशों में ‘विनय’ बराबर ‘विनम्रता’ है। ‘विनयपूर्वक अर्थात् विनीत भाव से कहना’ बराबर ‘विनती’ है। ‘विनती’ बराबर ‘प्रार्थना’ है। ‘प्रार्थना’बराबर ‘अनुरोध’ है। ‘अनुरोध’ बराबर ‘निवेदन’ है, ‘आग्रह’ है, ‘आग्रहपूर्वक प्रार्थना’ है। यानी से शब्द और अर्थ एक-दूसरे पर खूब चढ़े हुए हैं। काफ़ी घाल-मेल है। लेकिन प्रयोग में विनती’ और ‘प्रार्थना’ में वक्ता के मन में विशेष आदरभाव जुड़ा होता है। हम भगवान से ‘अनुरोध’ और ‘आग्रह’ नहीं, ‘विनती’ और ‘प्रार्थना’ करते हैं। किसी से ‘अनुरोध’ करते समय हमारा छोटा बन जाना आवश्यक नहीं है पर ‘प्रार्थना’ करते समय हमें बहुत छोटा बनना पड़ता है। (आवेदन पत्र में हमें ‘अनुरोधकर्ता’ नहीं, ‘प्रार्थी’ लिखना पड़ता है।)

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