लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इतनी-सी बात मेरी !
विभिन्न अख़बारों में लिखे हुए कॉलमों का
संग्रह है—यह किताब ! ‘निर्वाचित कलाम’, ‘नष्ट लड़की नष्ट गद्य’, ‘छोटे-छोटे दुख’ की कतार में अब जुड़ गयी है—‘औरत का कोई देश नहीं।’
हाँ, मैं विश्वास करती हूँ, औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर
सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश
नहीं होता। धरती पर कहीं कोई औरत आज़ाद नहीं है, धरती पर कहीं कोई औरत
सुरक्षित नहीं है। सुरक्षित नहीं है, यह तो नित्य प्रति की
घटनाओं-दुर्घटनाओं में व्यक्त होता रहता है। इसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया
है—ये अधिकांश कॉलम। एक-एक मुहूर्त मिल कर युग का निर्माण करते
हैं। मैं जिस युग की इन्सान हूँ, उसी युग के एक नन्हें अंश के टुकड़े-टुकड़े
नोच कर, मैंने इस फ्रे़म में जड़ दिया है। जो तस्वीर नज़र आती है, वह
आधी-अधूरी है। लेकिन मैं चाहती हूँ कि आगामी युग के फ्रे़म में कोई
जगमगाती तस्वीर जड़ी हो। चूँकि यह चाह या सपना मौजूद है, इसलिए मैंने
अँधेरे को थाम लिया है। मेरे इस सपने को कुछ व्यक्ति ‘साहस’
कहते हैं। ख़ैर, कोई भले कोई और नाम दे, यह नहीं भूलना चाहिए कि मैं इस
दुनिया की सैकड़ों-करोडों निर्वासित औरतों में से एक हूँ। अगर मैं
थोड़ी-सी अपनी बात करूँ और बताऊँ कि मैं या हम लोग कैसे हैं, तो यही समझने
के लिए काफ़ी है।
—तसलीमा नसरीन
अनुक्रम
१. | पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’ |
२. | बंगाली पुरुष |
३. | नारी शरीर |
४. | सुन्दरी |
५. | मैं कान लगाये रहती हूँ |
६. | मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी |
७. | बंगाली नारी : कल और आज |
८. | मेरे प्रेमी |
९. | अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं... |
१॰. | असभ्यता |
११. | मंगल कामना |
१२. | लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून |
१३. | महाश्वेता, मेधा, ममता—महाजगत की महामानवी |
१४. | असम्भव तेज और दृढ़ता |
१५. | औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों |
१६. | एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान |
१७. | दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये |
१८. | आख़िरकार हार जाना पड़ा |
१९. | औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’ |
२॰. | सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन |
२१. | लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे... |
२२. | तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार... |
२३. | औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती ? |
२४. | औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी ? |
२५. | पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है ? |
२६. | समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव |
२७. | मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी |
२८. | सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं? |
२९. | ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस |
३॰. | रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें |
३१. | औरत = शरीर |
३२. | भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष |
३३. | कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं |
३४. | जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी... |
३५. | औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले... |
३६. | औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय ? |
३७. | दोषी कौन ? पुरुष या पुरुष-तन्त्र ? |
३८. | वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त ? |
३९. | काश, इसके पीछे राजनीति न होती |
४॰. | आत्मघाती नारी |
४१. | पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है |
४२. | इन्सान अब इन्सान नहीं रहा... |
४३. | नाम में बहुत कुछ आता-जाता है |
४४. | लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत |
४५. | शांखा-सिन्दूर कथा |
४६. | धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं |
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