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यह कहानी नहीं

राजी सेठ

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 707
आईएसबीएन :00000

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सूक्ष्मता, सघनता और अपनी अर्थवत्ता के लिए हिन्दी के एक बड़े पाठक-समाज द्वारा पढ़ी और सराही जाती राजी सेठ की कहानियों का नवीनतम संग्रह है ‘यह कहानी नहीं’।

Yah kahani nahin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

सूक्ष्मता, सघनता और अपनी अर्थवत्ता के लिए हिन्दी के एक बड़े पाठक-समाज द्वारा पढ़ी और सराही जाती राजी सेठ की कहानियों का नवीनतम संग्रह है ‘यह कहानी नहीं’। इन कहानियों का कथ्य चेहरों के पीछे के चेहरों को पूरे रचनात्मक धीरज के साथ परत-दर-परत उकेरता एक ऐसे विश्वसनीय संसार के बीच लाकर खड़ा करता है जहाँ मनुष्य का विवेक मनुष्य के यथार्थ जितना ही सच और जरूरी है। इस अर्थ में ये कहानियाँ मनुष्य के बेहतर हिस्से की पक्षधर हैं। दरअसल अपने गन्तव्य तक पहुँचने के लिए राजी सेठ किसी चमत्कार का सहारा नहीं लेतीं। एकदम आसपास से उठायी स्थितियों और पात्रों की पड़ताल के माध्यम से वे उन तत्त्वों को खोजती हैं जो मनुष्य की नियतिगत सीमाओं को भी एक समृद्धतर आयाम दे सकें। कहना न होगा कि भाषा के भेदक व्यवहार और अन्तर्दृष्टि की अचूक काट के लिए नयी हिन्दी-कहानी की प्रख्यात कथाकार राजी सेठ की लेखनी पाठकों के लिए नयी नहीं है।

 

सोचते हुए

 

इन पृष्ठों पर कुछ कहे बिना भी रहा जा सकता है यदि मन में यह इच्छा ही जन्म न ले, पर अपनी कहानियाँ संकलित करते समय ऐसी इच्छा सदा मेरे मन में जन्म लेती है। लगता है सतह पर आ चुके इन कथा-वृत्तों से जुड़ा कितना कुछ दिखाई पड़ रहा है। रचना से इतर रचयिता के शब्दों का इधर चलन नहीं है। यह कसरत आलोचकों के लिए छोड़ दी जाती है। चाहा कि वे अपने संवेदनतन्त्र की ताकत से रचना के बाह्यकरण का भीतरी आकलन करें। इसके पीछे यह धारणा है कि हमारे जीवन या चेतन-अचेतन में जो कुछ है वह रचना में आ जाता है, अतः  अलग से किसी कथन की जरूरत नहीं। हो सकता है यह बात ठीक हो या मेरे मन में कभी इसका समर्थन नहीं जागता। मुझे सदा लगता है कि रचना का वृत्त हमारी सोच में उठ खड़ा हुआ कोई एक प्रस्थान बिन्दु है; किसी ऐसे सन्दर्भ का काँटा जो हमारी सारी अन्दरूनियत को छेड़ देता है और हमारे भीतर पड़ी  चीजें अपना नियति स्थान बदलने लगती हैं। कहानी तो विधा के अनुशासन और अनुभव के दिशागत बन्धन के चलते पूरी हो जाती है, परन्तु उससे उत्सर्जित जो कुछ है वह बाकी रह जाता है।
 
रचनाकर्म को एक साथ देखते वैसे भी कुछ अलग-सी प्रतीति होती है जो कहानी को कहानी की तरह रचते समय नहीं होती। कहानी अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रेरणा-आघातों, अलग-अलग मनःस्थिति में लिखी जाती है। संकलन करते समय यह मनोदशा बदल जाती है। सरहदें पिघलने लगती हैं। ऐसा लगने लगता है कि अपनी अदेखी मानसिकता में से खण्ड-खण्ड काटते जो कहानी अपने चेत-अचेत के रासायन से बुनी थी और उसे एक स्वत्रन्त्र दरजा दिया था वह पहचान गडमड हो रही है। सीमाएँ मिट रही हैं।

यह एक पीछे ले जाने वाला या डराने वाला अनुभव है, क्योंकि समग्र के चेत के सामने खण्ड की सत्ता कतरन जैसी लगती है, कभी-कभी महत्त्वहीन भी, पर रचनाकर्म में इस स्थिति से कोई त्राण नहीं है; चूँकी हम समग्रता को देख नहीं सकते इसलिए रचना-रासायन के महाकुण्ड में से टुकड़ा-टुकड़ा बीनते हैं और रचना-रासायन भी ऐसा जो अपनी सत्ता में परापेक्षी, समावेशी, खुला हुआ और परिवर्तन है, परम और स्थायी नहीं। ऐसे में मात्र, परिवेश कथावस्तु, कथ्य की विविधता के दावों की क्या स्थिति होगी, मेरे लिए तो एकाएक कह सकना कठिन है। पर स्थिति की असम्भावता को देखते यह जरूर लगता है कि अभिव्यक्ति के साम्राज्य में हमारी सीमा ही हमारी सान्त्वना है और खण्ड हमारी वास्तविकता। बाकी के सूत्र चेतना की अविच्छिन्नता के सन्दर्भ से तय हो सकते हैं। यह तो स्पष्ट है कि अनुभव स्वतन्त्र है, अभिव्यक्ति-रूप स्वतन्त्र है, पर हमारी चेतना तो सतत अविच्छिन्न है। कृतित्व के दौरान, जो बात चेतना के स्तर पर बार-बार तैर कर आये वही सोच और रुझान की आधारभूत चिन्ताओं और सरोकारों को सँभाले हुए मानी जा सकती है।

इस दृष्टिकोण से, इस समय पलटकर देखते लगा-मेरी आन्तरिकता में मृत्यु का एक ऐसा ही मुद्दा है जो  मेरी रचनाओं में बार-बार उजागर होता है। जीवन की बहुत-सी बातें उसी सन्दर्भ से लगकर कहने का दबाव बनता है। कभी स्थिति की तरह कभी प्रसंग कभी अनुभव, कभी मानसिकता के प्रसार की तरह मृत्यु सदा उपस्थित रहती है, जबकि जीवन को लेकर मेरी अन्तर्निहित प्रतिक्रिया मृतप्रायता की हर वृत्ति के विरुद्ध रही है।

मृत्यु का मुद्दा मेरे भीतर इतना उपस्थित है इसकी जानकारी वैसे तो क्योंकर इतनी तीव्रता से होती। (आत्मान्वेषण की प्रक्रिया के लिए भी कोई प्रस्थान-बिन्दु चाहिए होता है) यदि पहले तीन कहानी संग्रह छपने के बाद कई प्रबुद्ध पाठकों द्वारा यह टिप्पणी सुनने को मिलती कि क्या मैं मृत्यु से आक्रांत हूँ जो मेरी रचनाओं में किसी-न-किसी रूप में दाखिल रहती है। ऐसा कथन ? तब भी जब मैं जिजीविषा के सेलीब्रेशन को लेकर ‘तत-सम’ उपन्यास लिख चुकी थी और मेरी कहानियाँ भी आस्थात्मक रूझानों से बरी नहीं मानी जाती थीं।

‘हंस’ द्वारा प्रायोजित ‘आत्म-तर्पण’ श्रृंखला में हिस्सा लेते यह गणित और भी उजागर हुआ। उस खण्ड को लिखते समय वह स्थिति भी मेरे लिए काल्पनिक नहीं रह गयी थी बल्कि बहुत गहरे उद्वेलन में खींच ले गयी थी। तभी मैंने गिना था कि पिछली कहानियों में, ‘उनका आकाश’, ‘अमूर्त कुछ’, ‘एक बड़ी घटना’, ‘अपने दायरे’ पुनः वही’ ‘सामान्तर चलते हुए’ लिखी जा चुकी हैं। कई अभी अधूरी हैं पर अपनी इस मंशा में मूर्त और पूरी हैं। प्रस्तुत संकलन भी इस गूँज से मुक्त नहीं है। एक कहानी जो अभी प्रक्रिया में है, संग्रह देते समय तक यदि पूरी हो जाती है तो इस  संग्रह का तीन-चौथाई इन्ही गूँजों को समेट रहा होगा।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि मृत्यु की जीवन में जो तात्विक स्थिति है उस सन्दर्भ से मुझे कुछ लेना-देना नहीं हैं। वह एक दूसरा परिमण्डल है- सान्त और अनन्त के बीच का विराट। उस परिधि कि चिन्ता से मैं बाहर खड़ी हूँ। मेरी जिज्ञासा मात्र आत्मान्वेषी है और अभिव्यक्ति के अपने आधारों और सरोकारों को लेकर सक्रिय हुई है।

इसी संदर्भ में अपने को टटोलते यह भी स्पष्ट हुआ कि बचपन से ही मेरी मानसिकता में किसी-न-किसी रूप में मृत्यु का हस्ताक्षेप रहा। एक अनजाना अमूर्त डर पल-पल साथ साँस लेता रहा। होश सँभालते ही मैंने अपने को मृत्यु की कामना करते पाया, जिसकी जड़ में एक दूसरा डर था कि चूँकि मैं किसी अत्यन्त निकट के आत्मीय व्यक्ति (उस समय तो उस घेरे में माता, पिता और दादा ही थे) का अभाव सहन नहीं कर पाऊँगी, अतः मुझे उससे पहले ही प्रयाण कर जाना चाहिए। कल्पना का यह आतंक वर्षों मेरे साथ चला। पता नहीं इसे अतिरिक्त संवेदनशील कहेंगे या सम्बन्धों को लेकर अपनी अपेक्षाओं की जकड़न, पर यह मानसिकता कालान्तर में वस्तुओं विषयों, वृत्तों, व्यक्तियों से मेरे सम्बन्ध को निर्धारित जरूर करती रही। अन्तिमता के इतना निकट होकर चलना शायद निरासक्ति की ताकत भी देता है। सृजनकर्म के रहते वह कोई ऐसी बुरी चीज नहीं है। उसकी एक अपनी साकारात्मक भूमिका है।
 
अन्ततः डर के इस तनाव में तरमीन हुई वास्तविकता की मुठभेड़ से। तब तक तो यह भी स्पष्ट नहीं था कि जिस चीज से डर रहे हैं वह वस्तुतः है क्या। जब जाना ही नहीं तो डर कैसा ? उस डर का उत्स कहाँ था ? तब तक देखी-सुन-पढ़ी बातों की सामूहिकता में या यह ‘नहीं पन’ के आंतक की घनघोर प्रतिक्रिया थी ?

कल्पना में तो कुछ भी हो सकता है पर वास्तविकता में जो कुछ होता है, हम पर घटता, हमें बदलता हुआ होता है। अन्ततः मृत्यु से आमना-सामना हुआ।  होना ही था। एक बार नहीं कई-कई बार-बार जल्दी-जल्दी। दारुणता की सरहद तोड़ते हुए, काल-अकाल के भ्रम को रौंदते हुए..... एक अभीत स्तब्धता में जीवन को सौंपते हुए।

यह सब निजी बातें हैं। अपने तक रह सकती हैं, उसके साँझ का रचना-संसार से कोई सम्बन्ध नहीं। बहरहाल, यह जरूर स्पष्ट हुआ था कि कल्पना मृत्यु के घटित से ज्यादा आतंककारी है। सतत धमकाती चलती है। मृत्यु औचक आती है और कुछ न भी करे तो संवेदनशून्य और परिपकक्व (?) तो करती ही रहती है। उसकी अपरिहार्यता का सच भी हमें किसी स्तर पर ‘सस्टेन’ करता है। यों तो जीवन-यापन एक बहुत बडी पाठशाला है, जरूरतों के हिसाब से स्वयं सिखा-पढ़ा लेती है। यह अजीब बात है कि मृत्यु से निपटने की समझ मृत्यु के घटित में से ही आती है। रचना की शब्दावली में यह अनुभव की कीमत है।

रचना-उपकरण की दृष्टि से देखें तो किसी दूसरी घटना या स्थिति की तरह मृत्यु के घटित का भी कहीं बड़ा स्थान है। हमारे जीवन बोध में वह पूरी तरह शामिल है- एक ध्रुवान्त की तरह, उत्कटता के लिए आयाम की तरह, अन्तिमता के एक सत्य की तरह। वह जीवन के महत्व को जितना प्रकाशित करती है कोई दूसरी घटना नहीं कर सकती। वह परिप्रेक्ष्य में हो तो मृत्यु की अनिवार्यता और जीने की अभीप्सा एक ही बिन्दु पर खड़े दिखाई दे जाते हैं। यह एहसास-कि अन्तिमता के आगे एक निस्सम्बन्ध बंजर शुरू हो जाएगा, वजूद अदृश्य होकर स्मृति में दाखिल हो जाएगा-जीवन धर्म तो एक उद्दाम हठीले उद्यम में उकसा होता है। क्या यह सच नहीं है कि इसीलिए हम रचनाकर्म के माध्यमों से एक अनश्वर संसार की कामना करते रहते हैं। अपने कर्मों में अतिक्रमण की साधना का बल पैदा करते हैं। मनुष्य के जीवट में कुछ तो ऐसा है कि वह अपनी सृजन शक्ति के सहारे निरन्तरता को एक स्वप्न बनाकर जीता है (जो जीवन का उपजीव्य है)। वह डर के विरूद्ध, नश्वरता के विरूद्ध चिरता, सीमित के विरूद्ध अतिक्रान्त, निजता के विरूद्ध सार्वजनीनता की सृष्टि करता है। जीवन के अपार अव्यक्त को धीरे-धीरे अपने व्यक्त की सीमा में लेता है। अज्ञात को ज्ञात बनाता है।

रचनाकर्म के माध्यम से एक अनश्वर संसार की कल्पना हो सकता है, एक भ्रम ही हो पर यह है एक मोहक और पोषक भ्रम ही, जिसके बल पर जिन्दगी का बहुत-सा जहर पी लिया जाता है। नीलकण्ड की उपमा साहित्य के सन्दर्भ में एक अन्तर्दर्शी उपमा मानी जाती है।

कहानियों के संग्रहीत करने की तत्पश्चाती क्रिया ने सोच को इतनी छूट दी, जिसकी रोशनी में अव्यक्त की और भी कई श्रृंखलाएँ स्पष्ट हुई हैं। इनमें एक निरन्तरता है। इस बात को स्पष्ट करना इसलिए जरूरी है कि जब लिखना शुरू किया था (लिखना मैंने देर से शुरू किया, जीवन के उत्तरार्द्ध में) तो मन पर चयनधर्मिता का खासा दबाव पड़ता था। लगता था रचनाकार को सदा अपना श्रेष्ठतम ही प्रस्तुत करना चाहिए। इस मानसिकता के चलते अपने पहले कहानी-संग्रह ‘अन्धे मोड़ से आगे’ की भूमिका में यह भी लिख दिया था कि धरती पर जो कदम वजनदार पड़ते हैं वही अपना निशान छोड़ते हैं।

ज्यों-ज्यों समय बीतता गया उस सोच और संकल्प में दरार आती गयी। लगा जीवन में अच्छा-बुरा, ऊँच-नीच सफल-असफल दोनों हैं। यदि सदा ही वजनदार कदमों की बात होती रही तो अपनी यात्रा अपने-आपको भी कभी नहीं दीखेगी। अनुभव के प्रत्यक्षीकरण का कोई वस्तुपरक पैमाना बन ही नहीं पाएगा जो अपने-आप में बहुत बड़ी सीख है।

 

राजी सेठ

 

नयी दिल्ली
8 जनवरी, 1998

 

पुल

 

 

केबिन से बाहर निकला तो मन घिरा था। यह क्या कह दिया आर्कटेक्ट ने कि, ‘‘चिराग दिल्ली के चौराहे पर जो फ्लाय-ओवर बनने जा रहा है उसकी देखभाल का जिम्मा आपको दिया जाएगा। मैंने सिफारिश की है।’’

कर्त्तारसिंह दहल गया। आर्कीटेक्ट छोटा है, नया आया है, कुछ नहीं जानता। उसके लिए तो कर्त्तारसिंह एक अधेड़ सँभला हुआ समझदार आदमी है जो कम्पनी में आर्कीटेक्ट के नयेपन को प्यार-दुलार से संभाले रहता है। ऐसे देखता है जैसे बाप की आँख।

क्या आपको खुशी नहीं हुई ? इतना बड़ा खर्चीला प्रॉजेक्ट.....’’
‘‘नहीं, नहीं, हुई क्यों नहीं। काम तो काम है’’ कर्त्तारसिंह ने अपनी ठीक-ठाक बँधी पगड़ी को साधने के लिए हाथ ऊपर तान लिये। ‘‘तुरन्त तो कुछ करना नहीं हैं एकाध दिन में आकर प्लान समझ लूँगा, तब तक पिछला काम भी निपट जाएगा।’’

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