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हास्य-व्यंग्य >> आत्मा की पवित्रता

आत्मा की पवित्रता

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 708
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है नरेन्द्र कोहली की हास्य व्यंग्य रचनाओं का संग्रह...

Aatma Ki Pavitrata -A Hindi Book by Narendra Kohli - आत्मा की पवित्रता- नरेन्द्र कोहली

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री नरेन्द्र कोहली के अनुसार-अनुचित अन्यायपूर्ण अथवा गलत होते देखकर जो आक्रोश जागता है,वह अपनी असहायता में वक्र होकर जब अपनी तथा दूसरों की पीड़ा पर हँसने लगता है तो वह विकट व्यंग्य होता है। वह पाठक के मन को चुभलाता-सहलाता नहीं,कोड़े लगाता है। कहना न होगा कि ‘आत्मा की पवित्रता’ में संगृहीत व्यंग्य-रचनाएँ इस दृष्टि से सर्वथा खरी हैं। वैसे नरेन्द्र कोहली की पहचान अब एक यशस्वी गम्भीर लेखक के रूप में अधिक बन चुकी है,लेकिन उनके लेखन की शुरूआत व्यंग्य लेखन से ही हुई थी,और उसमें उन्हें भरपूर प्रतिष्ठा भी मिली। बीच में उनके भीतर का व्यंग्यकार कुछ अनमना अवश्य लगता रहा,मगर सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों ने उन्हें जब भी परेशान किया,उन्होंने पूरी दमदारी के साथ व्यंग्य लिखा और समस्या पर सात्त्विक तथा ईमानदार चोट की। निस्संदेह एक अरसे बाद प्रकाशित नरेन्द्र कोहली की यह नवीनतम व्यंग्य कृति पाठकों के लिए सुखद आश्चर्य तो है ही,धारदार व्यंग्य-लेखन का सार्थक प्रमाण भी है।

डॉक्टर, स्मगलर और देश की सीमा


रामलुभाया ने मुझसे कहा कि वह अपने बेटे को डॉक्टर बनाना चाहता है, मैं उसकी कुछ मदद कर दूँ।
मैं कुछ घबरा-सा गया। डॉक्टरी की पढ़ाई बहुत महँगी है जाने उसमें कितना खर्च होता है और यह मुझसे कह रहा है कि मैं उसकी मदद कर दूँ। मेरी तो अपनी ही हालत इन दिनों काफी खराब है।..और अब यह रामलुभाया मदद माँगने आ गया है। अगर इसी तरह मेरे सारे परिचित लोग अपने बच्चे को पढ़ाने और उनकी शादियों के लिए मदद माँगने आ गये,तो मेरा क्या होगा ?

मैं उससे यह भी तो नहीं कह सकता कि वह अपनी चादर देखकर पैर पसारे। ऐसा कुछ भी कहने का अर्थ होगा कि मैंने उसके बच्चे की पढ़ाई में उसकी सहायता नहीं की। कुछ दे दूँ तो अपने सिर कर्ज कुछ और बढ़ जायगा और न दूँ तो मित्र की सहायता न करने वाला दुष्ट आदमी कहलाऊँगा। एक ओर कुआँ दूसरी ओर खाई।
सहसा मुझे एक बात सूझ गयी।

‘‘मैंने तो सुना था कि तुम आजकल खासा कमा रहे हो !’’
इस बार परेशान होने की बारी उसकी थी, ‘‘मेरी कमाई से इसका क्या संबंध ?’’
मैं चौका। शायद ‘मदद’ से उसका अभिप्राय वह नहीं था, जो मैंने समझा था।
‘‘तो फिर कैसी मदद ? मैंने पूछा।
‘‘अरे यार उसे किसी मेडिकल कॉलेज में भरती करवा दो।’’
‘‘उसमें मुझे क्या करवाना है ?’’ मैंने कहा, ‘‘कॉलेज से फार्म ले आओ और भरकर जमा करवा दो !’’

उसने मुझे ऐसे देखा जैसे मार बैठेगा। बोला, ‘‘इतना भकुआ तो मैं भी नहीं हूँ कि यह सब न जानता होऊँ।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘वहाँ एडमिशन के लिए टेस्ट होता है।’’
‘‘हाँ ! होता है।’’
‘‘पता लगवा दो कि पर्चे में क्या आ रहा है।’’
मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं, यह व्यक्ति मुझे चरित्रहीन समझता है और उन्हें मूर्ख।

‘‘अबे, मुँहमाँगा दाम दे देंगे।’’ उसने जैसे मुझे प्रोत्साहित किया।
अपने चरित्र की चर्चा करना मैंने उचित नहीं समझा। यदि मैं अपने चरित्र के विषय में एक शब्द भी कहता तो वह मुझे चरित्रहीन सिद्ध करने की कोशिश करता। अपने यहाँ यही परंपरा है। जो स्वयं को पापी बताये, उसे तो महात्मा सिद्ध करेंगे और जो अपने चरित्र को ऊँचा बताये उसे पतित।

‘‘इस सबकी क्या जरुरत है। मैंने कहा, ‘‘बेटा तुम्हारा डॉक्टर बनना चाहता है...?’’
‘‘नहीं !’’ वह बोला, ‘‘वह डॉक्टर बनना नहीं चाहता।’’
‘‘नहीं चाहता ?’’
‘‘मुझे आश्चर्य हुआ, ‘‘तो क्या बनना चाहता है ?’’ ‘‘स्मगलर !’’ उसने बड़ी शान्ति से बताया।
मेरे मुँह में आये शब्द वहीं जम गये। अब मैं उससे कैसे कहता कि उसे वही बनाओ जो वह बनना चाहता है।

मैंने पैंतरा बदला, ‘‘पर्चा पहले से कैसे मालूम किया जा सकता है ? पर्चा आउट ही करना होता तो वे लोग एडमिशन टेस्ट क्यों लेते ?’’
‘‘बको मत।’’ रामलुभाया मुझसे कहीं ज्यादा दुनिया देखे हुए था। बोला, ‘‘बाजार में बिकते हैं पर्चे।’’
‘‘तो वहीं से क्यों नहीं खरीद लेते ?’’
‘‘सोचता हूँ कहीं गलत पर्चा खरीद लाया तो पचीस-पचास रुपये यों ही बरबाद हो जाएँगे और साल अलग मारा जाएगा।’’ उसने मुझे घूरा, ‘‘तो तुम यह नहीं कर सकते ?’’
‘‘नहीं।’’ मैंने सहज ही स्वीकार कर लिया और अपने निकम्मेपन पर उसका भाषण सुनने के लिए तैयार हो गया। पर उसने भाषण नहीं दिया। एक छोटा सा प्रश्न किया, ‘‘परीक्षा भवन में नकल करवा सकते हो ?’’
‘‘मैं तो नकल वहाँ भी नहीं करवा पाता, जहाँ मैं इनविजिलेशन करता हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘मेडिकल कॉलेज में कैसे करवाऊँगा ?’’

किसी इनविजिलेटर से जान-पहचान करके।’’
‘‘नहीं ! मेरे बस का नहीं है। कोई इनविजिलेटर नकल नहीं करवाएगा।’’
‘‘तुम सारे जीवन में कभी सफल नहीं होगे। उसने मुझे दुतकारा, ‘‘पैसे लेकर सब नकल करवाते हैं। प्रत्येक प्रश्न की नकल के अलग पैसे होते हैं। तुमसे नहीं होता, यह अलग बात है। अच्छा बताओ नंबर बढ़वा सकते हो ?’’

‘‘नंबर बढ़ते हैं, अच्छा उत्तर लिखने से।’’ मैंने कहा, ‘‘तुम्हारा बेटा अच्छा पर्चा नहीं करेगा तो कोई नंबर बढ़वा कैसे सकता है ?’’
‘‘तुम कॉलेज में पढ़ाते हो या भाड़ झोंकते हो ?’’
‘‘क्यों ?’’ मैंने पूछा।
‘‘तुमको तो यही पता नहीं कि नंबर कैसे बढ़वाये जाते हैं !’’ उसने मुझे घूरा, ‘‘लड़के को अपने घर बुलाकर उससे पर्चा लिखवाया जाता है। टोटलिंग में गड़बड़ की जाती है। उसके रोल-नंबर के सामने आगे-पीछे के किसी लड़के के नंबर लिख दिये जाते हैं।...’’वह रुका, ‘‘आजकल तो इतने सारे वैज्ञानिक और फूल-प्रूफ तरीके हैं नंबर बढ़ाने के, और तुम हो कि अभी एक अच्छा उत्तर लिखने पर ही अटके हुए हो।’’

‘‘मैं तत्काल सहमत हो गया कि इस क्षेत्र में मैंने तनिक भी प्रगति नहीं की है और इस विधा की वैज्ञानिक जानकारी तो मुझे है ही नहीं। पर रामलुभाया जैसा जीवट का आदमी भी मैंने नहीं देखा। इतने सारे मोर्चों पर मना कर दिये जाने पर भी वह टला नहीं। बोला, ‘‘किसी अच्छे लड़के से पर्चा बदलवा सकते हो ?’’

मुझे लगा कि रामलुभाया में हेराफेरी के इतने कीटाणु विद्यमान हैं कि उसके बेटे का स्मगलर बनना ही उचित है। वह खामख्वाह ही उसे डॉक्टर बनाना चाहता है। यदि वह लड़का किसी तरह से डॉक्टर बन गया तो वह दवाओं के नाम पर नशीले पदार्थों का व्यापार करेगा और पैसों के लिए स्वस्थ लोगों को रोगी बनाये रखेगा।

‘‘पर्चा कैसे बदला जा सकता है ?’’ मैंने झल्लाकर कहा, ‘‘जिसका पर्चा है, वह तो उसका का रहेगा।’’
‘‘रोल नंबर की पर्ची ही तो बदलनी होगी। तुमसे नहीं हो सकता तो मैं परीक्षा-विभाग के किसी चपरासी को राजी कर लूँगा।’’ वह बोला, ‘‘तुम परीक्षा-फल तैयार करवाते समय कंप्यूटर में कोई हेराफेरी करवा सकते हो ?’’
अब तक मेरा धैर्य एकदम चुक गया था। मेरे मन में न उसका भय रह गया था, न लिहाज। झपटकर बोला, ‘‘इतनी हेराफेरी करने की क्या आवश्यकता है ! तुम्हारा बेटा डॉक्टर नहीं बन सकता तो न सही। जो बन सकता है वही क्यों नहीं बनने देते उसे ?’’
‘‘देखो इस बार वह बहुत धैर्य से बोला, ‘‘जो कुछ उसे बनना है, सो तो वह बनकर ही रहेगा, कोई उसे रोक नहीं पाएगा। पर किसी सम्मानजनक पेशे की आड़ भी तो होनी चाहिए।’’
मैं रामलुभाया की बात की गहराई तक नहीं जा पाया।
‘‘मैं समझा नहीं,’’ मैंने कहा।
‘‘तुमसे यही अपेक्षा थी,’’ वह बोला, ‘‘देखो, बनना तो है उसे बड़ा आदमी। आदमी बड़ा होता है पैसे से। पैसा तो कमा ही लेगा, चाहे इन्सानियत का गला घोंटकर कमाए या कानून की हत्या करके। पर घर के बाहर बोर्ड लगाने को भी तो कोई पेशा होना चाहिए।’’

‘‘सम्मानजनक पेशे तो और भी बहुत सारे हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘और क्या हैं ?’’ उसने मुझे झाड़ा, ‘‘मास्टरी ? जिससे पनवाड़ी अपनी दुकान में झाड़ू नहीं लगवाता, वह मास्टर हो जाता है।’’
उसकी बात सुनकर मुझे इतना क्रोध आया कि बस जूते से ही बात करूँ। पर सोचा जूता चल गया तो तर्क के लिए अवकाश नहीं रह जायगा। पहले तर्क कर लूँ जूता तो बाद में चल सकता है।

मैंने पूछा, ‘‘जानते हो कि कोई भला आदमी अपने बच्चे को स्कूल-टीचर क्यों नहीं बनाना चाहता या कोई समझदार लड़का स्वयं अध्यापक क्यों नहीं बनना चाहता ?’’

लौंडों की पिटाई के डर से,’’ रामलुभाया एकदम निश्चित था,’’ तो तुम मुझे तो पट्टी पढ़ाना चाहते हो, मेरी उसमें रुचि नहीं है। सचाई में जानता हूँ और उसी में विश्वास करता हूँ...सम्मानजनक पेशे केवल दो हैं-एक डॉक्टर का और दूसरा इंजीनियर का। इतने सब लोग गधे हैं क्या जो अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाने के लिए मर रहे हैं ?’’

‘‘देखो रामलुभाया !’’ मैंने कहा, ‘‘किसी देश या समाज को केवल डॉक्टरों और इंजीनियरों की ही जरूरत नहीं होती। और भी बहुत तरह के काम होते हैं और वे भी उतने ही सम्मान-जनक हैं।’’

‘‘तो तुम्हें क्या परेशानी है ?’’ उसने पूछा।
‘‘परेशानी यह है कि आजकल प्रत्येक प्रबुद्ध परिवार में दो ही बच्चे होते हैं उनके माता-पिता एक को डॉक्टर बनाना चाहते हैं, एक को इंजीनियर। या तो वे डॉक्टर और इंजीनियर बन नहीं पाते, इसलिए हताश हो जाते हैं या फिर वे डॉक्टर और इंजीनियर बनकर इंग्लैड, अमरीका चले जाते हैं और तब देश हताश हो जाता है।’’
वह बिना कुछ कहे-सुने उठ खड़ा हुआ तो मेरी बाँछे खिल गयीं। क्यों न खिलती। मैंने एक दुष्ट व्यक्ति को हताश कर दिया था। नहीं तो वह किसी-न-किसी को भ्रष्ट करता ही और नालायक बेटा डॉक्टर बनकर जाने कितने लोगों को संसार से ही स्मगल करा देता !

पर समाचारपत्र में मेडिकल कॉलेज के सफल प्रवेशार्थियों की सूची देखकर मैं हताश हो गया। रामलुभाया का बेटा सफल हो गया था।
‘‘यह चमत्कार कैसे हो गया ?’’ मैंने रामलुभाया से पूछा।
‘‘रिश्वत !’’ वह शांति से सिगरेट का धुआँ उड़ाता रहा।
‘‘रिश्वत किसे दी ?’’ मैंने हैरान होकर पूछा, ‘‘सुना है इस बार सारा काम कंप्यूटर से हुआ है।’’
‘‘कंप्यूटर को ही रिश्वत दी है।’’ वह मुस्कराया। ‘‘कंप्यूटर रिश्वत कैसे ले सकता है ?’’ मैं चकित था।

‘‘कंप्यूटर जब अमरीका से चला तो मैंने प्रयत्न शुरु कर दिया। पर उसने रिश्वत नहीं ली। मैं सारे रास्ते उसे नोट दिखाता रहा, पर वह उसे चरित्रहीनता ही कहता रहा। पर अपने प्यारे देश की सीमा में प्रवेश करते ही उसके तेवर बदल गये। वह बाकायदा सौदा करने लगा। मैंने रकम कुछ बढ़ा दी और उसने झट से नोट पकड़ लिये। अपना देश धार्मिक देश है न ! मैं मान गया, रामलुभाया का बेटा स्मगलर ही बन सकता था।


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