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रेत

भगवानदास मोरवाल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :324
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7100
आईएसबीएन :9788126715336

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भगवानदास मोरवाल का नया उपन्यास...

Ret - A hindi book - by Bhagwandas Morwal

हिन्दी कथा में अपनी अलग और देशज छवि बनाए और बचाए रखनेवाले चर्चित लेखक भगवानदास मोरवाल के इस नए उपन्यास रेत के केन्द्र में है–माना गुरु और माँ नलिन्या की संतान कंजर और उसका जीवन। कंजर यानी काननचर अर्थात जंगल में घूमनेवाला। अपने लोक-विश्वासों वे लोकाचारों की धुरी पर अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती एक विमुक्त जनजाति।

गाजूकी और इसमें स्थित कमला सदन के बहाने यह कथा ऐसे दुर्दम्य समाज की कथा है जिसमें एक तरफ़ कमला बुआ, सुशीला, माया, रुक्मिणी, वंदना, पूनम हैं; तो दूसरी तरफ़ हैं संतो और अनिता भाभी। ‘बुआ’ यानी कथित सभ्य समाज के बर-अक्स पूरे परिवार की सर्वेसर्वा, या कहिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था में चुपके से सेंध लगाते मातृसत्तात्मक वर्चस्व का पर्याय और ‘गंगा नहाने’ का सुपात्र। जबकि ‘भाभी’ होने का मतलब है घरों की चारदीवारी में घुटने को विवश एक दोमय दर्जे का सदस्य। एक ऐसा सदस्य जो परिवार का होते हुए भी उसका नहीं है।

रेत भारतीय समाज के उन अनकहे, अनसुलझे अंतर्विरोधों व वटों की कथा है, जो घनश्याम ‘कृष्ण’ उर्फ़ वैद्यजी की ‘कुर्ते फेल’ साइकिल के करियर पर बैठ गाजूकी नदी के बीहड़ से होती हुई आगे बढ़ती है। यह सफलताओं के शिखर पर विराजती रुक्मिणी कंजर का ऐसा लोमहर्षक आख्यान है जो अभी तक इतिहास के पन्नों में अतीत की रेत से अटा हुआ था। जरायम-पेशा और कथित सभ्य समाज के मध्य गड़ी यौन-शुचिताओं का अतिक्रमण करता, अपनी गहरी तरल संलग्नता, सूक्ष्म संवेदनात्मक रचना-कौशल तथा ग़ज़ब की क़िस्सागोई से लबरेज़ लेखक का यह नया शाहकार, हिन्दी में स्त्री-विमर्श के चौखटों व हदों को तोड़ता हुआ इस विमर्श के एक नए अध्याय की शुरुआत करता है।

रेत

दूर तक फैले मटमैले जंगल को पुल के ऊपर से खड़े होकर देखें, तो पहले उसमें कुछ नहीं दिखाई देगा–सिवाय नीम-शीशम के कुछ नए-पुराने पेड़ों, अपने कोटरों में परिन्दों को आसरा देते एकाध बुज़ुर्ग पीपल के दरख़्तों और जगह-जगह बेतरतीब उलझे बालों के गुच्छों की तरह बिखरे करील की झाड़ियों के। मगर जैसे-जैसे उसमें दाखिल हो आगे बढ़ते जाएँगे, उसकी निर्जनता का भ्रम टूटता जाएगा। बीच में किसी ठहरे हुए तालाब में जमी काई की मोटी परत की तरह छोटी-सी हरी चादर की कोख में बसी बस्ती। बस्ती से पुल को जोड़नेवाले छोटे-छोटे धूसर बीहड़, जो साँझ के गहराते झुटपुटे के साथ यहाँ आनेवाले धूल में लिपटे ट्रक, मारुतियों और मोटर साइकिलों के लिए अभेद्य पनाहगाहों में बदल जाते हैं। इसी पुल के इस पुराने नेशनल हाईवे से अपने-आपको जोड़नेवाली सड़क के एक ओर कटोरीवालों का तिबारा, तो थोड़ा आगे जाकर ठीक उसके सामने छोटी-सी हरी चादर से आच्छादित मील भर फैला यह फ़ासला, एक ही नाम के कई हिस्सों में बँटा हुआ है–गाजूकी, गाजूकी नदी और जहाँ वह खड़ा हुआ है गाजूकी पुल।

साइकिल को इसी पुल की दीवार के सहारे टिका और उसे थोड़ा विश्राम देते हुए धनश्याम ‘कृष्ण’ पूरब में टँगी श्यामल घटाओं से रह-रहकर चमकती बिजली को देखकर पहले तो न जाने किस सोच में डूब गया, किन्तु अचानक उसे न जाने क्या सूझा कि उसने साइकिल उठाई, और जहाँ जाने के लिए वह निकला था, उस तरफ अपनी साइकिल बढ़ा दी।
थोड़ी दूर जाकर साइकिल अब पुल के बग़ल से पच्छिम की ओर जाते एक तंग बीहड़, या कहिए सँकरी-सी धूसर घाटी में उतर गई। रेत के छोटे-छोटे बगूले जहाँ चौमासे की बारिश से कटकर बने जिन बीहड़ों की दीवारों से टकराकर, उन्मुक्तता के साथ निश्छल बच्चों की तरह ऊधम मचाते हुए किलकते रहते, वहीं ये बीहड़ चौमासे पुल तक आते-आते एक अच्छी-खासी जीवित नदी का रूप धारण कर लेते। हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके रेत की इन कटी दीवारों के बीच फँसकर, हल्की-हल्की सीटी मारते हुए साइकिल को पीछे से धकेलते, तो लगता मानों बच्चों का छोटा-सा हुजूम उसे पीछे से धकिया रहा है।

बीच-बीच में रेत की इस घाटी में समाया तीखा कसैला भभूका नथूनों से होता हुआ, फेफड़ों में जाकर ही दम लेता। घनश्याम ‘कृष्ण’ बहुत कोशिश करता उससे बचने की किन्तु पहले तोड़ की यह तीखी गन्ध तब तक उसका पीछा करती, जब तक इस फ़ासले को तय नहीं कर लेता। जगह-जगह बनी वाश-भट्टियों से उठती गन्ध और मटमैले धुएँ से ये बीहड़ उसे हमेशा बौराए-से लगते।
रास्ते में पड़नेवाली इन भट्टियों के लिए हालाँकि घनश्याम ‘कृष्ण’ कोई अनजाना-अपरिचित व्यक्ति नहीं है लेकिन भीतर-ही-भीतर इन सबको एक जिज्ञासा कुतरती रहती है कि भला-सा दीखनेवाला यह व्यक्ति आख़िर इस गाजूकी में करने क्या आता है ? न कोई क्लिनिक, न दवाख़ाना। न किसी की दवा, न दारू और नाम वैद्यजी। क्यों सप्ताह में कम-से-कम दो चक्कर लग जाते हैं इसके ? क्यों देर-सवेर इन बीहड़ों की आवारा रेत को खूँदता हुआ, सरकण्डों की पैनियों से अपनी देह को नुचवाता और समय-असमय कँटीले झाड़-झंखाड़ों से हाथापाई करने आता है ?

रेत की सँकरी घाटी को पार कर उसने साइकिल बस्ती की ओर मोड़ दी, परन्तु अगले ही पल उसने उसकी गति कम कर दी और सोचने लगा कि क्यों न भूरा की मज़ार के सामने से होकर चला जाए। फिर न जाने क्या सूझा और उसने मज़ार के सामने से जाने का विचार त्याग दिया तथा सामने खड़े खोखों में से एक खोखा यानी ‘अंगूरी पान भण्डार’ की ओर बढ़ गया।
धनश्याम ‘कृष्ण’ को माँगने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उसकी ज़रूरत की चीज़ जैसे पहले से इन्तज़ार कर रही थी।
‘‘अंगूरीऽऽ...’’
‘‘लेओ बैद्जी।’’ उम्र में कम किन्तु देह से प्रौढ़-सी दीखनेवाली दुकानदार ने महीन मुस्कान बिखेरते हुए उसका वाक्य पूरा होने से पहले कहा।
घनश्याम ‘कृष्ण’ यानी वैद्यजी चुप।

उसने खोखे से अपनी चीज़ ली और उसे जेब के हवाले कर पैसे देने लगा तो एक रहस्यमयी मुस्कान पुनः खोखे से उछली, ‘‘बैद्जी, आज तो बहुत दिनों में दिखाई दिए हो।’’
वैद्यजी ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि चुपचाप साइकिल उठाई और आगे बढ़ गया.
साइकिल अब बस्ती में प्रवेश कर गई। बस्ती का यह आम रास्ता कहने भर को है, असल में यह आमने-सामने के घरों से बहनेवाली छोटी-छोटी नालियों से मिलकर बनी एक बड़ी नाली का ही काम करता है।
इसी रास्ते से गुज़रते हुए जगह-जगह कमरों के सामने बिछी चारपाइयों और अलगनियों पर सूखते कपड़ों के बीच से झाँकते चेहरों का अभिवादन स्वीकारते हुए साइकिल आगे बढ़ती रही। थोड़ी दूर जाकर वह दाईं ओर मुड़ी तथा एक मकान के सामने जाकर रुक गई। अपनी चिर-परिचित शैली में पहले साइकिल की घण्टी बजी, और फिर दीवार का सहारा ले अभी वह दम लेती कि दरवाज़े पर खड़ी चार-साढ़े चार बर्ष की लड़की ने चिल्लाते हुए अन्दर जाकर उसके आने की सूचना दे दी।

उसने कुछ नहीं कहा। बस, मुस्कराकर रह गया।
कमला सदन।
लगभग पाँच सौ वर्ग ग़ज ज़मीन पर बना विशाल मकान। बाहर प्रवेश द्वार के बग़ल में जैटस्टोन अर्थात् संगमूसा के दो भाई डेढ़ फुट के आयताकार पत्थर पर अंग्रेज़ी के बड़े-बड़े शब्दों में खुदा ‘कमला सदन’। इस पट्टिका पर ‘कमला सदन’ के ठीक ऊपर खुदी ओऊम् की आकृति को, पिछली बार की तरह वैद्यजी ने उसे एक पल रुककर प्रागैतिहासिक काल के किसी शिलालेख की तरह निहारा और फिर अन्दर प्रवेश कर गया।
‘‘भीभीऽऽ, बैद्जी आए हैंऽऽऽ! पिंकी, जा अपनी मम्मी से कुछ खाने के लिए भी लेती आएगी !’’ रुक्मिणी ने अन्दर आवाज़ लगाने के साथ-साथ उसी चार-साढ़े चार वर्षीय लड़की को आदेश देते हुए कहा जिसने चिल्लाते हुए वैद्यजी के आने की सूचना दी थी।

‘‘अच्छा बुआ।’’ रुक्मिणी के आदेश पर आज्ञाकारी हरकारे की तरह पिंकी चहकती हुई दौड़ पड़ी अपनी माँ को अपनी बुआ का सन्देश देने।
लेकिन इस आज्ञाकारी हरकारे का चेहरा उस समय बुझता चला गया जब उसने देखा कि उसके सन्देश से पहले उसकी माँ हाथ में ट्रे थामे सामने से चली आ रही है। पिंकी की माँ अर्थात् भाभी ने अपनी ननद रुक्मिणी की आवाज़ सुन ली थी शायद। पिंकी को बीच रास्ते से माँ के साथ वापस लौटना पड़ा।
‘‘बैद्जी, मरे कहाँ रहा इत्ते दिन ?’’ मुँह में अठखेलियाँ करते ‘हुस्न बाग’ के किणकों को चुबलाते हुए, आते ही शिकायत की कमला बुआ ने।

‘‘बुआ, बस ऐसे ही नहीं आ पाया।’
‘‘आ जाया कर मरे। इस बूढ़ी बुआ की भी खैर-खबर ले लिया कर।’’
वैद्यजी कुछ नहीं बोला। वह जानता है कमला बुआ का यह अपना अन्दाज़ है।
‘‘बैद्जी, मेरी दवा अब की बार भी लाए हो या फिर भूल गए ?’’ रुक्मिणी ने धीरे-से पूछा।
‘‘पहले कुछ खा-पी लेने दे। आते ही पूछ बैठी कि मेरी दवा लाए हो या ना।’’ भाभी को स्टूल पर ट्रे रखता देख बुआ ने रुक्मिणी को डाँटा।

वैद्यजी का ध्यान पानी का गिलास उठाते समय भाभी की अँगुलियों पर गया। फिर नज़र घूँघट से अधढके चेहरे पर पड़ी, तो उसे जैसे अपने सन्देह की पुष्टि होती हुई दिखाई दी।
‘‘मरे इन्हें तो खा !’’ बुआ ने एक प्लेट में रखी बर्फ़ियों की ओर इशारा करते हुए कहा।
तन्द्रा भंग हुई वैद्यजी की।
‘‘बाजार की हैं।’’ बुआ ने जान-बूझकर कहा।
‘‘बुआ, ऐसी कोई बात नहीं है। इतना ही बहुत है।’’
‘‘संतो, बेटी इन्ने उठा ले !’’

कमला बुआ के आदेश पर संतो भाभी स्टूल से ट्रे उठाकर ले जाने लगी कि जाते-जाते एकसाथ अपने-अपने कामों की फ़ेहरिस्त उसकी ओर बढ़ती चली गई। सारे आदेशों-निर्देशों को शिरोधार्य कर सन्तों भाभी चली गई।
वैद्यजी का इस पर पहले कभी ध्यान नहीं गया किन्तु अब उसने इस पर गौर किया, तो पाया कि वह जितनी बार कमला सदन में आया है, तथा इस सन्तो का जब-जब अपनी सास, ननदों या फिर नानस कमला बुआ से सामना हुआ है, पहले से चकरघिन्नी बनी इसके कामों में एक नया काम इसकी सूची में शामिल हो जाता है। मगर वाह री संतो, सबके कामों को पूरा करने में जी-जान में जूटी रहती है जबकि उसकी ये ननदें रुक्मिणी, वंदना, पूनम और सास सुशीला...।
‘‘बैद्जी, मैंने जो पूछा है उसका कोई जवाब नहीं दिया।’’

‘‘ऐं !’’ अकबकाते हुए वर्तमान में लौटा वैद्यजी।
‘‘आपकी तबियत तो ठीक है ?’’ रुक्मिणी ने झल्लाते हुए कहा।
‘‘बुआ, संतो बीमार है क्या ?’’ रुक्मिणी के सवाल का जवाब देने के बजाय वैद्यजी ने बुआ से पूछा।
अपने सवाल के बदले जवाब के बजाय वैद्यजी के इस असमय सवाल पर रुक्मिणी ने खीझते हुए पूछा वैद्यजी से, ‘‘क्यों, क्या हुआ इसे ?’’

‘‘हाथ कुछ पीले-पीले से हैं इसलिए पूछ लिया।’’
‘‘पीले क्या, हमारी तो सुनती ही नहीं है। कितनी बार कहा है कि दिखा आ धरमपुरा जाकर किसी बैद-हकीम को... पर ना।’’ सुशीला ने लगभग बहू की शिकायत करते हुए बताया।
‘‘यह क्या दिखा आए... ले जाएगा मंगल। अकेली कैसे जाएगी ?’’ कहते हुए वैद्यजी का चेहरा खिंच आया।
‘‘हूँ, मंगल। वह तो जरूर दिखाकर आएगा। सारे दिन दारू पीने से फुरसत मिले जब न।’’ कमला बुआ ने असलियत बताते हुए कहा।

‘‘मुझे शक है बुआ कि इसे पीलिया है !’’
‘‘क्यों, भाभी की बड़ी चिन्ता है और मैं जो इतनी बार पूछ चुकी हूँ, उसका कोई जवाब नहीं।’’ रुक्मिणी ने तड़कते हुए टोका वैद्यजी को।
‘‘हाँ बाबा लाया हूँ !’’ वैद्यजी ने भी उसी अन्दाज में कहा।
‘‘चलो, जवाब तो मिला।’’ कनखियों से देखा रुक्मिणी ने बिना यह ध्यान दिए हुए कि कब उसका हाथ अपनी जाँघों के बीच चला गया।

‘‘बुआ देख, मास्टरजी ने क्या बनवाया है।’’ बीच में चहकते हुए पिंकी ने अपनी कॉपी दिखाते हुए व्यवधान डालते हुए पूछा रुक्मिणी से।
‘‘मुझे क्या दिखाती है। बैद्जी को दिखा !’’ पिंकी से पिण्ड छुड़ाते हुए रुक्मिणी ने उसे वैद्यजी की ओर धकेल दिया।
वैद्यजी ने पिंकी द्वारा कॉपी पर उकेरी गई आड़ी-तिरछी रेखाओं से बनी अमूर्त आकृतियों को ध्यान से देखने की मुद्रा बनाई। रेखाओं में उलझे वैद्यजी को देख पिंकी ने हुलसते हुए चारों ओर देखा।
‘‘पिंकी, आज स्कूल नहीं गई ?’’ वैद्यजी ने कॉपी से नज़र हटाते हुए पूछा पिंकी से।

‘‘ना।’’ पिंकी ने पट्ट से जवाब दिया।
‘‘क्यों ?’’
‘‘आज सण्डे है।’’
वैद्यजी ने मुस्कराकर देखा पिंकी की ओर।
‘‘बैद्जी, हमारी पिंकी बड़ी सयानी है।’’

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