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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


: १०३ :


 उसी रात की धूमधाम ने नरपति और कुमुद को भी सजग किया। मंदिर के पास ही 'राम दहाई की ध्वनियों ने नरपति को कारण का पता लगा लाने के लिए विवश किया। कारण की खोज कर लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई। थोड़ी ही देर में वह लौटकर आ गया। भरे हुए स्वर में उसने कुमुद से कहा, 'जौहर हो रहा है।'

'जौहर?' कुमुद ने अचकचाकर नरपति से पूछा, 'क्या इसके लिए सब लोग तैयार हो गए हैं? हम लोगों से किसी ने नहीं पूछा?'

''मैंने भी यह प्रश्न राजा से किया था।' नरपति ने उत्तर दिया, और बड़ी रुखाई के साथ बोले-तुम्हें मरना हो तो तुम भी आ जाओ।। तुम्हारे विषय में उनकी सम्मति माँगी, तो कहा-जो मन में आवे, सो करें-तम्हारी सम्मति क्या है? इसी के लिए मैं व्याकुल हो रहा हूँ। सब दाँगी केसरिया बाना पहने उछलते-कूदते फिर रहे हैं।'

कुमुद ने गला साफ किया। दोपल चुप रही। फिर अर्द्ध-कपित स्वर में बोली, 'मैं तो कभी की मरने के लिए तैयार हूँ। यदि इस युद्ध का कारण पहले ही मिट जाता, तो आज विराटा के इतने शूर-सामंतों का व्यर्थ बलिदान न होता। मैं न जाने क्यों जीवित रही? किसके लिए?' फिर तुरंत चुप हो गई। एक क्षण पश्चात् फिर कहा, 'आप तैरना जानते हैं। तैरकर उस पार चले जाइए।'

'उस पार तो जाऊँगा।' नरपति ने उत्तेजित होकर कहा, 'परंतु तैरकर नहीं। पानी में प्राण देना मुझे कठिन जान पड़ता है। अथाह जल-राशि है। उसमें बड़े-बड़े भयानक मगरमच्छ हैं। जगह-जगह बड़ी-बड़ी भँवरें पड़ती हैं और बहुत चौड़ा पाट है। मैं तो तलवार की धार पर मरना अधिक श्रेयस्कर समझता हूँ। मैं मूर्ख भले ही हूँ, परंतु इतना मूर्ख नहीं कि तुम्हें छोड़कर भाग जाऊँ। तुम उस पार चलो, तो तुम्हें लेकर चल सकता हूँ। देवी का स्मरण करो। वह बेड़ा पार लगावेंगी। उठो, चलो। मैं तुम्हें अभी सुरक्षित स्थान में पहुँचाऊँगा।'

स्थिर स्वर में कुमुद बोली, 'यह असंभव है। सब लोग यहीं हैं, मैं भी यहीं रहूँगी। पार्थ, सारथी और तोपों के चलानेवाले जब यहाँ हैं, तो मेरा बाल बाँका नहीं हो सकता और जब कुछ भी न रहेगा, तो माँ बेतवा तो सदा साथ हैं। आप अपनी रक्षा की चिंता अवश्य करें। मैंने जिस गोद में जन्म लिया है, उसे नष्ट होता हुआ नहीं देखना चाहती। आप जाएँ। अकेले आपके यहाँ रहने से कोई सुविधा नहीं बढ़ेगी। देवी की आज्ञा है, दुर्गा का आदेश है, आप जाएँ। आपके यहाँ ठहरने से अनिष्ट हो सकता है। आप जाएँ। अभी चले जाएँ।'

'मैं कदापि न जाऊँगा।' नरपति ने हँसकर कहा, 'मैं भी दाँगी हूँ। मैं भी अपने कपड़े हल्दी में रँगता हूँ। हम सब दाँगियों को अपना अंतिम आशीर्वाद दो। हम थोड़े हैं और दरिद्र हैं। तुम एक अनेक हो। शक्ति हो, शक्तिशालिनी हो। हमें वरदान दो, जिससे पुरुष की तरह मरें।' फिर आँखें फाड़कर प्रखर स्वर में ऊपर की ओर देखकर बोला, 'दुर्गे देवी! हम थोड़े से दाँगियों : .पने अंतिम रक्त-कण से आपके देवालय की रखवाली की है। हमारे हृदय को अब इतना बल दो कि अंत समय हमारे भीतर किसी तरह की हिचक न आवे और हम हँसते-हँसते तुम्हारे झूले की डोर पकड़कर पार हो जाएँ। माँ, माँ आशीर्वाद दो।' 'दो, दो' की अंतिम गूंज उस खोह में कई बार गूंजी-नरपति का शरीरथिरकने लगा। वह प्रमत्त होकर गाने लगा और ताली बजाने लगा।

मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।
ऊँची-नीची घटिया डगर पहार
जहाँ बीरा लैंगुरा लगाई फुलवार मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।
छोटी-सीरेमालिन लंबे ऊकेकेस. फुलवा बीने पुरुष के वेस। मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।
बीन-बीन फुलवालगाईबड़ीरास,
उड़ गए फुलवा रह गई बास।
मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।

नरपति उठ खड़ा हुआ। गीत की गूंजती हुई तान में वह अपनी खोह के बाहर हो गया। शायद हल्दी के रंग में अपने फटे हुए कपड़े रंगने के लिए। कुमुद ने सिर नवा लिया। हाथ जोड़कर अपने कोमल कंठ से गाने लगी
मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।
बीन-बीन फुलवा लगाई बड़ी रास,
उड़ गए फुलवा रह गई बास।
मलिनिया, फुलवा ल्याओ नंदन वन के।

उस खोह में, उस रात्रि में, उम धूमधाम में, उस प्रकार के चीत्कार में, उस धाय-धाँय, साँय-साँय में उस कोमल कंठ की वह स्वर्गीय तान समा गई
'उड़ गए फुलवा, रह गई बास।'

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