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तुम्हारा सुख

राजकिशोर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 719
आईएसबीएन :81-263-1099-5

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स्त्रीत्व द्वारा अपनी पहचान की खोज में किये जा रहे संघर्ष की रोमांचक गाथा...

Tumaha Sukha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘तुम्हारा सुख’ हिन्दी में एक नये ढंग का उपन्यास है-जितना कथा में, उससे ज्यादा कथा कहने के शिल्प में। जिन पाठकों ने इसे पढ़ा है, वे न केवल चमत्कृत हुए हैं, बल्कि विभोर भी-कोई इसकी विषयवस्तु से कोई इसकी भाषा से, और यह बात सभी ने स्वीकार की है कि कहानी और विश्लेषण की मिली-जुली, पर सहज और दिलचस्प भंगिमा पाठक को आमन्त्रित करती है कि वह यथार्थ को कई तरह से देखने के रचनात्मक उद्यम में खुद भी शामिल हो। इसी प्रक्रिया में यह प्रश्न उठता है कि क्या यह उपन्यास सिर्फ प्रश्नातुर मालविका मित्र की कहानी है, जिसे बार-बार यह एहसास कराया जाता है कि स्त्री का सुन्दर होना जरूरी है या छलनामयी पुरुष-अभिव्यक्तियों की ऐसी दुर्निवार कथा, जो अकसर प्रेम और सहानुभूति के सुन्दर वस्त्र पहनकर स्त्री-देह के आखेट पर निकलती है इनके बीच में सचाई शायद यह है कि ‘तुम्हारा सुख’ स्त्रीत्व द्वारा अपनी पहचान की खोज में किये जा रहे संघर्ष की रोमांचक गाथा है-उसकी वेदना और उसके आनन्द दोनों के स्वीकार के साथ साथ ही स्त्री-पुरुष की द्वन्द्वात्मकता के बीच हमारे समाज के अनेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं-हमारी शिक्षा-व्यवस्था, साहित्य और पत्रकारिता की हमारी दुनिया, हमारे धार्मिक प्रतिष्ठान, और सबसे बढ़कर रोजमर्रा का हमारा जीवन-की बेढंगियत का जो प्रखर और मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
समर्पित है पाठकों को ‘तुम्हारा सुख’ का नया संस्करण, नयी साजसज्जा के साथ।

तुम्हारा सुख
1

शाम का धुँधलका जैसे-जैसे गाढ़ा हो रहा था, मालविका मित्र का अन्तर्द्वन्द्व तीव्र होता जा रहा था।

जिस संकट की आशंका उसे शुरू से थी, वह अब सीधे सिर पर मँडरा रहा था। आनन्द सक्सेना की बातों से यह स्पष्ट हो गया था कि वह आज उसे नहीं छोड़ेगा। दिल्ली से चलते समय ही दोनों के बीच बिना किसी संवाद के यह साफ हो चुका था कि मसूरी में वे अलग-अलग कमरे में ठहरेंगे। लेकिन उनके बीच शालीनता की ऐसी कोई शर्त टँगी हुई नहीं थी कि आनन्द शारीरिक स्तर पर निकट आने की कोशिश नहीं करेगा। मसूरी की यह यात्रा एक जुआ थी जिसे खेलना दोनों ने स्वीकार किया था। दोनों दोपहर के करीब बारह बजे मसूरी पहुँच गये थे। दिल्ली बेहद तप रही थी। लेकिन वे तपन से निजात पाने के लिए मसूरी नहीं आये थे। यह तो बहाना था। उद्देश्य यह था कि दोनों एक साथ दो दिन यहाँ बिताएँगे और विभिन्न मुद्दों पर खुलकर बातचीत करेंगे। दिल्ली में यह सम्भव नहीं था, क्योंकि वहाँ आनन्द की अपनी व्यस्तताएँ थीं और मालविका बहुत व्यस्त तो नहीं रहती थी, फिर भी उसके हजार काम थे। लेकिन क्या यह सिर्फ वैचारिक यात्रा थी ?
आनन्द जानता था-नहीं। मालविका भी जानती थी-नहीं। लेकिन ‘हाँ’ का स्वरूप क्या होगा, यह दोनों में से किसी के भी सामने साफ नहीं था।

यह अस्पष्टता उनके अब तक के रिश्ते में ही अन्तर्निहित थी, हालाँकि दोनों जानते थे कि यदि उसे किसी परिणति तक नहीं पहुँचाया गया, तो मुश्किल पैदा होने ही वाली है। शायद दोनों के बीच एक किस्म की ऊब भी पैदा होने लगी थी, जिसे दैहिक निकटता से ही दूर किया जा सकता था। स्त्री और पुरुष के बीच आत्मा की निकटता तब तक पूरी नहीं होती, जब तक शरीर दीवार की तरह बीच में मौजूद रहता है। आनन्द की खूबी यह थी कि वह इस बात को मानता था और इसकी तरफ से लापरवाह भी रहता था। नहीं, यह लापरवाही कोई रणनीति नहीं थी। यह उसका संयम था। लेकिन इस संयम का मजबूत पक्ष यह था कि यह उसकी सैद्धान्तिक दृढ़ता से आता था। यही उसकी कमजोरी भी थी, क्योंकि इसके साथ सिर्फ सिद्धान्त था-उसका मन नहीं। शायद यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अपने को संकट में पाता था और इसके कारण ही वह संकट से निकल भी आता था।

इसीलिए वह लगभग एक वर्ष से मालविका को यह आश्वासन-सा दे सका था कि उसे उसके शरीर की कोई खास जरूरत नहीं है। वह विवाहित था। अतः वैध रूप से इसकी माँग भी नहीं कर सकता था। दूसरी तरफ मालविका, जो लगातार उसकी ओर खिंची जा रही थी, जानती थी कि अपने शरीर को वह ज्यादा दिनों तक नेपथ्य में नहीं रख पाएगी। स्त्री का शरीर उसके व्यक्तित्व से अलग नहीं होता-यह बात दूसरी स्त्रियों की तरह उसे भी बार-बार समझा दी गयी थी। अपने निजी अनुभव से वह यह भी जानती थी कि जब कोई पुरुष उसके नजदीक आने लगता है तो शरीर का सवाल देर-सबेर उठ कर ही रहता है। इससे वह हमेशा विचलित होती थी, पर यह हमेशा उसे अच्छा भी लगता था, क्योंकि यह इस बात का प्रमाण था कि सब कुछ के बावजूद वह पुरुष के लिए अकाम्य नहीं थी।

आनन्द उन लोगों में नहीं था, जो दूसरी या तीसरी मुलाकात में ही किसी न किसी तरह से अपनी इच्छा प्रकट कर देते हैं। बेशक इस प्रकटीकरण में एक तरह की अस्पष्टता हमेशा बनी रहती है, क्योंकि नैतिक न होते हुए भी नैतिक दिखने का यही एक सम्मानजनक तरीका है। अगर आप अपनी इच्छा पूरी तरह छिपा ले जाते हैं तो यह अपने साथ छल होता है। अगर आप दूसरे के सामने अपनी इच्छा समय से पहले स्पष्ट कर देते हैं, तो यह उस पर एक तरह का आक्रमण होता है-एक तरह का घोषणापत्र कि भविष्य का सम्बन्ध इसी से निर्धारित होगा कि यह शर्त स्वीकार है या नहीं। सम्बन्ध के विकास के दौरान बहुत सी शर्तें अपने आप विकसित होती चलती हैं, लेकिन तब वे शर्तें नहीं रह जातीं। कारण, यह एक ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें शर्त प्राथमिक नहीं होती, सम्बन्ध ही प्राथमिक होता है। लेकिन जब यह स्पष्ट कर दिया जाए कि अमुक शर्त स्वीकार करने के बाद ही सम्बन्ध आगे जारी रह सकता है या उसमें प्रगाढ़ता आ सकती है, तो शर्त प्राथमिक हो जाती है। मालविका को हमेशा यह लगा कि यह एक तरह का सौदा है और एक दफा छोड़कर ऐसा कोई भी सौदा उसने कभी स्वीकार नहीं किया था।
2
मालविका को उस एक दफा के किस्से की कोई ग्लानि नहीं है और वह अपने अन्तरंग दोस्तों को वह किस्सा ऐसे सुनाती है, जैसे वह उसके साथ नहीं, किसी और के साथ घटित हुआ हो। हाँ, उसने कुछ समय के लिए अपने को दूसरा ही मान लिया था, क्योंकि इसके बिना वह प्रो. मुकुट बिहारी लाल की माँग पूरी कर ही नहीं सकती थी। मालविका के माता-पिता उसके जन्म से दस वर्ष पूर्व पटना आकर बस गये थे। और उसकी शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई थी। फिर भी हिन्दी को वह अपनी भाषा के रूप में नहीं अपना सकी थी। बंगाली होने और अपनी भाषा से गहरा अनुराग बने रहने के कारण परिवार का वातावरण बांग्लामय था। अतः हिन्दी से लगाव और हिन्दी में ही काम करने की जरूरत के बावजूद हिन्दी पर उसका अधिकार हमेशा सीमित रहा। लेकिन असली मुश्किल कहीं और थी। उसकी तार्किक क्षमता का स्वाभाविक विकास नहीं हुआ था। उसके सोचने का अपना एक ढंग था, काफी गड्डमड्ड था। यह ढंग कहीं आधुनिक था, तो कहीं मध्ययुगीन उसमें कहीं भावुकता की अधिकता थी तो कहीं तर्क की। वे बहुत सौभाग्यशाली होते हैं जो अपनी ऊटपटाँग बातों को भी प्रभावशाली बना डालते हैं। मालविका यह हुनर कभी हासिल नहीं कर सकी। ऐसी स्थिति में जब उसने हिन्दी से एम.ए. करने के बाद शोध करने का निर्णय किया और गाइड प्रो. लाल की मदद से उसका विषय ‘नयी कविता का दार्शनिक आधार’ निर्धारित हुआ, तो जल्द ही यह स्पष्ट होने लगा कि मामला उतना आसान नहीं है जितना शुरू में उसे लगा था। दिक्कत यह भी थी कि सिनॉप्सिस जमा करने तक प्रो. लाल ने उसके साथ जितना लगाव दिखाया था और उसकी जितनी मदद की थी, उसका अब कहीं अता-पता नहीं था। शुरू में मालविका ने सोचा कि सर शायद, अचानक व्यस्त हो गये हैं, क्योंकि एक विभागाध्यक्ष को हजार काम होते हैं, लेकिन जब उनकी अन्यमनस्कता का रहस्य खुला तो वह स्तब्ध रह गयी। प्रो. मुकुट बिहारी लाल, एम.ए. (प्रथम श्रेणी), पी-एच.डी., डी. लिट्. उसके साथ सोये बगैर थीसिस की दिशा में उसे एक कदम भी आगे ले जाने को तैयार नहीं थे।

दोपहर का वक्त था। छुट्टी का दिन। मालविका आज सुबह से ही बहुत परेशान थी। यथार्थ और स्वप्न दोनों उसका पीछा कर रहे थे। वह कई दिन तक कॉलेज के पुस्तकालय में किताबें उलटती-पुलटती रही थी और उसे कोई भी ऐसा सूत्र नजर नहीं आया था, जिसके आधार पर वह आगे का रास्ता बना पाती। मुक्तिबोध, शमशेर, बलदेव उपाध्याय, डॉ. राधाकृष्णन, गोविन्दचन्द्र पाण्डेय और बर्ट्रेण्ड रसेल से घिरी हुई वह अपने को नितान्त अकेली और असहाय पा रही थी। एक तरफ से मुक्तिबोध उसे घूर रहे थे और दूसरे तरफ से अज्ञेय। रुआँसी-सी वह उठी थी और घर चल रही है और एक कदम भी ऊपर नहीं जा पा रही है। बड़ी-बड़ी चट्टानें एक दूसरे पर बेतरतीब रखी हुई हैं और आशंका होती है कि उसने जरा भी जोर लगाया तो वे भरभराकर उसके ऊपर गिर पड़ेंगी। वह पसीने में डूब जाती है और हताश-सी चारों तरफ देखने लगती है। इसी क्रम में उसकी निगाह नीचे की ओर जाती है। एक बहुत गहरी सी खाई में प्रौढ़ स्त्री-पुरुष उसकी ओर इशारा कर कुछ कह रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज उसे सुनाई नहीं पड़ रही है। तभी वह उनके बीच खड़े प्रो. लाल को पहचान लेती है। वह एक लम्बी-सी छड़ी दिखाते हुए कह रहे हैं, ‘‘यह रस्सी तो तुमने यहीं छोड़ दी। इसके बिना कोई पर्वतारोहण करता है !’’ आश्चर्य, प्रो. लाल की आवाज बहुत साफ सुनाई देती है। लेकिन घाटी बहुत गहरी है। वह वहाँ तक जाए तो कैसे जाए। यह डर भी पैदा होता है कि वह एक बार उस घाटी में गयी, तो फिर चढ़ाई के लिए उत्साह नहीं बचेगा। तभी वह रस्सी एक बहुत लम्बी छड़ी बन जाती है और उसकी दिशा में बढ़ती है।

घबराहट से उसकी नींद खुल गयी। उसने उठकर पानी पिया और फिर सोच में डूब गयी। देर रात गये थोड़ी-सी नींद आयी, लेकिन सपने के दृश्यावलेख रह-रहकर उसके सामने आते रहे। कभी वह अपने को रस्सी के व्यूह में घिरी पाती, कभी प्रो. लाल उसका सिर सहला रहे होते और कभी चट्टानों का आकार बेहिसाब बड़ा नजर आता। सुबह नींद खुलने पर वह सोचने लगी कि इस मुसीबत से अब एक ही आदमी उसे उबार सकता है और वह चाहे जितना व्यस्त हो, उसका सहयोग हासिल करना ही होगा। अतः बड़ी उम्मीद और आत्मविश्वास के साथ उसने प्रो. लाल के बँगले का कॉल बेल दबाया था।

दरवाजा खुद प्रोफेसर ने खोला था। मालविका को देखकर उनके चेहरे पर तनिक खिन्नता ही आयी थी, जैसे वह अन्तिम व्यक्ति हो, जिसकी उन्हें उम्मीद थी। लेकिन खिन्नता से अधिक असहजता थी, जिसने मालविका को डरा-सा दिया। ड्राइंग रूम में बैठते ही सबसे पहले उसका ध्यान घर के सूनेपन की ओर गया। क्या आण्टी नहीं हैं ? और, बच्चे ?, प्रो. लाल ने बताया, वे गाँव गये हैं, और न चाहते हुए-से पूछा, पढ़ाई कैसी चल रही है ? मालविका की निगाहें झुक गयीं।
उसने बड़े मायूस स्वर में बताया, ‘‘सर, कहाँ से शुरू करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो बुरी तरह फँस गयी हूँ।’’ फिर कुछ धीमी आवाज में, ‘‘सर, आपने तो बिल्कुल हाथ ही खींच लिया है।’’

उत्तर में प्रो. लाल का कुछ लम्बोतरा मौन, जो उत्तरहीनता के बजाय पसोपेश का प्रतीक था। फिर अचानक जैसे किसी निष्कर्ष पर पहुँच गये हों, ‘‘और तुमने ? तुमने तो हाथ बढ़ाया ही नहीं।’’

अब मालविका के चौंकने की बारी थी। फिर भी उसने सहज होकर कहा, ‘‘सर, मैं तो पूरी कोशिश कर रही हूं।’’
‘‘किस बात की कोशिश ?’’
‘‘विषय को समझने की।’’
‘‘समझ किताबों से थोड़े आती है ! फिर तो दुनिया में गुरु की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। कोई भी आँख का अन्धा गाँठ का पूरा बाजार से किताबें खरीद लाएगा। और विद्वान कहलाने लगेगा। भारतीय परम्परा किताबों को नहीं, गुरु को महत्त्व देती है।’’

मालविका के लिए यह नयी जमीन थी, जिस पर उसे घसीटते हुए ले जाया जा रहा था। क्या उसने प्रो. लाल के प्रति किसी प्रकार की अश्रद्धा का परिचय दिया है ? क्या उसने कोई ऐसा कार्य किया है, जो उनकी इच्छा के विपरीत हो ? प्रोफेसर ने मालविका का असमंजस दूर करने की कृपा की, ‘‘एम. ए. तक की पढ़ाई औपचारिक पढ़ाई होती है। वह संस्थागत काम है। उसके लिए वेतन भी मिलता है। शोध एक अनौपचारिक चीज है। वह व्यक्तिगत निष्ठा से संचालित होता है। इसके लिए हमें कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता। अपने जीवन-भरके ज्ञान की पूँजी का लाभ तुम्हें दूँ, तो मुझे क्या मिलेगा ?’’

मालविका के लिए अब यह पूछना जरूरी हो गया, ‘‘लेकिन मैं आपको दे ही क्या सकती हूँ ? मुझे तो स्कॉलरशिप भी नहीं मिलती। ’’
‘‘तुम्हारा यही भोलापन तो मुझे तुम्हारी ओर शिद्धत से खींचता है। वरना विश्वविद्यालय में एक से एक सुन्दर लड़कियाँ हैं। उनके प्रति तो मेरे मन में कोई भावना नहीं पैदा होती। आधुनिक चेतना ने मनुष्य को बिलकुल बदल दिया है। वह अब रूप, रंग, धन पद कुछ नहीं देखता। वह मनुष्य के आन्तरिक गुणों पर जोर देता है। सच पूछो नयी कविता का दार्शनिक आधार यही है।
प्रस्ताव रख दिया गया था। तरीका कुछ अकादमिक था, लेकिन प्रो. लाल भी तो अकादमिक थे। मालविका चुप रही। उसका चेहरा तमतमा रहा था। उसे लगा, हजारों बिच्छू उसे काट रहे हैं।

अनुभवी प्रो. लाल को समझते देर नहीं लगी कि यह मौन स्वीकृति का नहीं, अस्वीकृति का लक्षण है। लेकिन यह एक युद्ध था और पहले वार में ही विफलता स्वीकार कर लेना किस योद्धा को शोभा देता है ? उन्हें यह शक भी था कि शायद बात साफ नहीं हुई है। वे एक अच्छे अध्यापक माने जाते थे। उनकी प्रसिद्धि ही इसलिए थी कि वे विषय को एकदम स्पष्ट कर देते हैं। इस बार उनकी आवाज में कोई लाग-लपेट नहीं था, ‘‘लेकिन तुम्हारा यही भोलापन कहीं तुम्हें यथार्थ-विरोधी भी बनाता है। तुम मर्म के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रह जाती हो, मर्म तक पहुँच नहीं पाती। अब क्या यह छोटी-सी बात भी मुझे खोलकर कहनी पड़ेगी कि मैं अपना हर क्षण तुम्हें देने को तैयार हूँ और जरूरत पड़ी तो तुम्हारी पूरी थीसिस भी लिख दूँगा ? बदले में मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए। मुझे किसी चीज का अभाव भी नहीं है। हाँ, एक कमी है, जिसकी पूर्ति सिर्फ तुम्हीं कर सकती हो। तुम्हारा बौद्धिक आकर्षण मेरे लिए अदम्य हैं। लेकिन मैं बौद्धिकता को मनुष्य का पूरा परिपाक नहीं मानता। बुद्धि धोखा खा सकती है। वह छल भी कर सकती है। मुझे वह चाहिए, जिसमें छल की कोई गुंजाइश नहीं हो। यह भावना है। भावना ही अस्तित्व का मर्म है। वह बुद्धि को भी नियन्त्रित करती है। जिस क्षण तुम्हारी भावना मेरी ओर बहने लगेगी, तुम पाओगी, तुम्हारा और मेरा अस्तित्व एकाकार हो गये हैं। तुम्हारे पूरे अस्तित्व से एकाकार हुए बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा।’’

इस संक्षिप्त-से वक्तव्य के बाद अचानक माहौल बदल गया। आशंका की जगह आशा आ बैठी। मालविका मित्र अब पिघलने के लिए तैयार थी। उसे लगा जैसे वह किसी रेगिस्तान से निकलकर एक ठण्डे जलाशय में आ गयी है। उसके लिए यह एक नये ढंग की घटना थी। प्रेम प्रस्ताव उसके पहले भी रखे गये थे, लेकिन यह कुछ अलग ढंग की बात जान पड़ रही थी। कुछ ऐसी जिसके प्रति उसका खुद भी आकर्षण था। गहरा अन्तरंग साथ, जो अस्तित्व को एक ऐसी ऊँचाई पर ले जाता है, जहां सभी भौतिक आयोजन प्रयोजन तुच्छ नजर आते हैं। क्या प्रो. लाल जैसे किसी व्यक्ति के लिए ही उसका जन्म नहीं हुआ था ? निश्चय ही उम्र के लिहाजे से दोनों का कोई मेल नहीं था। प्रो. लाल पचास के आसपास थे। उसने अभी पच्चीसवें में पैर रखा था। लेकिन शुरू से ही उसे प्रौढ़ लोग ज्यादा पसन्द आते थे। क्योंकि उन्हीं के साथ वह कुछ संवाद कर पाती थी। लेकिन सर ने पहले कभी इसका संकेत क्यों नहीं दिया ? या वही रजिस्ट्रशेन की औपचारिकताओं, विषय के चुनाव वगैरह में इस कदर खोयी हुई थी कि उसने इधर ध्यान ही नहीं दिया ? लेकिन क्या यह सब सच है ? मालविका को अच्छा भी लग रहा था और कही शंका भी हो रही थी। अन्तर्द्वन्द्व में डूबी निस्पन्द-सी बैठी रही।

शब्दों की भूमिका समाप्त हो चुकी थी। अब प्रो. लाल धीरे से उठे और मालविका के बगल में आकर बैठ गये। फिर उसे अपनी बाहों में घेर लिया। पहला चुम्बन बेहद दहकता हुआ था। मालविका का सिर झुका का झुका रहा। लाल ने उसे आहिस्ता से उठाया-अपनी दोनों लम्बी बाँहों का सहारा देते हुए और सामने पड़े तख्त की ओर ले चले। मालविका उस पर बैठने जा रही थी कि उन्होंने उसे लिटा दिया। कुछ देर तक उसके गाल, सिर, कन्धे सहलाते रहे। फिर धीरे-धीरे उसका ब्लाउज खोलने लगे। मालविका की बाँहें ऊपर उठीं। उसने प्रो. लाल के चेहरे को अपने चेहरे पर ले लिया। अब चुम्बन एकतरफा नहीं रहे। मालविका के लिए समय ठहर गया था। वह उस ठहराव को अनन्तकाल तक जीना चाहती थी। लेकिन प्रो. लाल के पास इतना समय नहीं था। उनके हाथ फिर ब्लाउज के बटन की ओर बढ़े। मालविका का दबाव और बढ़ गया। लाल का प्रत्युत्तर न्यूटन के गति के सिद्धान्तों के अनुरूप था। समय कुछ देर के लिए फिर ठहर गया। लाल फिर सक्रिय हुए। ‘प्लीज, आज नहीं।’-मालविका की फुसफुसाहट में दृढ़ता थी और उसका दबाव फिर बढ़ गया।

स्पष्ट था कि मालविका ने अभी अन्तिम निर्णय नहीं लिया था। प्रो. लाल अपने को छुड़ाते हुए उठ खड़े हुए और सामने सोफे पर बैठ गये। उनके चेहरे पर गहरे असन्तोष की मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, जैसे कोई बाधा-दौड़ में आखिरी अवरोध पार करते-करते रह गया हो। उनकी दिलचस्पी सिर्फ इस बात में रह गयी थी, ‘‘शाम को आ सकोगी ?’’
मालविका अब अपने स्वप्न लोक में विचरण करने के लिए स्वतन्त्र नहीं थी। उसने बताया, ‘‘मुश्किल है। घर में कुछ लोग आनेवाले हैं। कल इसी समय।’’

प्रो. लाल अब मालविका के जाने का इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने एक छोटी-सी फाइल निकाल ली थी। मालविका अपने कपड़े ठीक करने के बाद घर से निकली, तो उसे लगा जैसे  वह अपने पहले बच्चे का शव कहीं गाड़कर आ रही हो। उसका शोक सच्चा निकला। अगले तीन दिन मातमपुर्सी में बीते। इन तीनों दिनों में वह प्रो. लाल के पास चार बार आयी थी और हर बार यह स्पष्ट हो गया था कि सर को सिर्फ उसके शरीर से मतलब है। उसके प्रवेश करते ही वह झपट से पड़ते। मालविका ने अपने वचन की पूर्ण रक्षा की और उन्हें वह सब करने दिया जो वह चाहते थे। पहली बार शुरु में उसने भी अपनी ओर से कुछ पहल की कोशिश की थी, लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि प्रो. लाल को उसकी सहयात्रा नहीं, उसका समर्पण चाहिए। वह जैसे प्रयोगशाला में पड़ी हुई एक जार थी, जिसे प्रयोग में हिस्सा लेने की आवश्यकता नहीं। जैसे प्रयोग पूरा होते ही जार अप्रांसगिक हो जाता है, प्रो. लाल के यौन तनाव की मुक्ति का सत्र खत्म होते ही मालविका को कमरे में अपना अस्तित्व गैर-जरूरी प्रतीत होने लगता था। वह इसके लिए भी तैयार थी अगर इसी से उसकी पढ़ाई का रास्ता खुल जाता। हर बार उम्मीद पैदा होती कि अब कुछ बौद्धिक चर्चा होगी, नयी कविता के दार्शनिक पक्ष का कुछ उद्घाटन किया जाएगा; और कुछ नहीं तो वे यही जानना चाहेंगे कि वह इन दिनों कौन-सी पुस्तकें पढ़ रही है, लेकिन उन्होंने इन मामलों में कोई रुचि नहीं दिखायी। हाँ तीसरी बार उसे एक बार किताब जरूर दी थी-शायद किसी की थीसिस थी, लेकिन अगली बार उन्होंने पूछा तक नहीं कि किताब कुछ मददगार लग रही है या नहीं। उसे अपना एक लम्बा-सा निबन्ध उतारने के लिए जरूर दे दिया, क्योंकि विश्वविद्यालय का टाइपिस्ट छुट्टी पर चला गया था।
   


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