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हास्य-व्यंग्य >> दमदार और दुमदार दोहे

दमदार और दुमदार दोहे

हुल्लड़ मुरादाबादी

प्रकाशक : पुस्तकायन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7193
आईएसबीएन :0

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हास्य कविताएं जो अपनी फलश्रुति में पाठक या श्रोता को एक ऐसे आत्मसत्य के सन्मुख खड़ा कर देती हैं, जहां वह समस्या पर गंभीर चिंतन के लिए विवश हो जाता है।...

Damdar Aur Dumdar Dohe - A Hindi Book - by Hullad Muradabadi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हां सही था वक्त का हर फैसला,
कुछ नहीं उससे गिला है दोस्तो !
साथ क्या लाये थे तुम जो खो गया ?
सब यहीं से तो मिला है दोस्तो !

मल्लाहों ने नाव से, नेता दिये उतार
कहा ‘‘तुम्हें अल्लाह ही, कर सकता है पार
उसी के पास जाइये’’

अब भविष्य-फल के लिए, रहना तुम तय्यार
कुदरत के कानून से, मत करना तकरार
कवि ने बात कही है
समय का न्याय सही है

भूमिका


हास्यरत्न श्री सुशील कुमार चड्डा अर्थात् श्री हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य-व्यंग्य विधा के स्थापित हस्ताक्षर और हिन्दी काव्य मंच के जनप्रिय श्रृंगार हैं। आपकी कविताओं के सात पुस्तकालय-संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें सृजनशील प्रतिभा के क्रमिक विकास और सचेतन संवेदनशीलता की नित्य उदग्रता का पुष्ट प्रमाण मिलता है। श्री हुल्लड़ मुरादाबादी संभवतः हिन्दी के प्रथम हास्य कवि हैं, जिनकी हास्य-व्यंग्य कविताओं का एच.एम.वी. कम्पनी ने एल.पी. रिकार्ड बनाया। हंसी का खज़ाना लुटाने वाला यह रिकार्ड इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके बाद इसी कम्पनी ने हुल्लड़ के आडियो कैसेट भी रिलीज़ किये। यह रिकार्ड और कैसेट इतना समय गुज़र जाने के बाद भी आज के दौर में भी जन-जन की जुबान पर है। श्री हुल्लड़ जी फिल्मों में भी एक सफल गीतकार और कुशल अभिनेता के रूप में अपना परिचय दे चुके हैं। यह उनकी बहुआयामी प्रतिभा और जन्मजात कला-सिद्धि का प्रमाण है। भारत के कोने-कोने में तो श्री हुल्लड़ जी की रचनाएं सुनी ही जाती हैं, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, बैंकाक, हाँगकाँग तथा इंग्लैंड जैसे देशों में भी उन्हें मुक्त कंठ से सराहा गया है। हास्य-व्यंग्य लेखन की विशिष्टताओं और अन्तर्राष्ट्रीय लोकप्रियता के कारण ही हुल्लड़ जी को काका हाथरसी पुरस्कार, उज्जैन का टेपा पुरस्कार और इक्कीस हजार के अट्टहास शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया है। ये उपलब्धियां हुल्लड़ जी के व्यक्तित्व की विलक्षणता को प्रमाणित करती हैं।

हास्य मानव-जीवन की दुर्लभ उपलब्धि है। आज के आपाधापी और तनाव-भरे जीवन में कुंठाग्रस्त मानसिकता को हंसने के अवसर उपलब्ध ही नहीं हैं। जो लोग हंसने का अभिनय करते हैं, उसका संबंध तन-मन से नहीं होता। अन्तर्तम से उद्भूत हंसी का उद्दाम स्फोट जब ठहाकों और कहकहों में मुखर होता है तो स्नायु-संस्थान की सारी गांठें खुल जाती हैं। तन-मन तनावहीन प्रफुल्लता से स्फूर्त और प्रसन्न हो जाता है। किसी व्यक्ति को अथवा समूह को हंसाना या हंसा पाना आज के युग में एक श्रेयस् कर्म है। श्री हुल्लड़ जी अपनी रचनाओं से कहकहों के ऐसे फव्वारे पैदा करते हैं कि श्रोता या पाठक अपना पेट थाम कर बैठ जाते हैं। शरीर के सारे अवयव आंदोलित हो जाते हैं, आंखों में आनन्दाश्रु उमड़ आते हैं, तन-मन विरज-विशुद्ध होकर स्वस्थ और प्रसन्न हो जाता है। हुल्लड़ जी जीवन-धर्मी कला के इस रसात्मक मर्म और रचनात्मक रंजन के सिद्धहस्त कलाकार हैं। केवल गुदगुदी पैदा करना या ठहाके लगवाना श्रेष्ठ कविता का लक्षण नहीं है। उसमें जीवन की किसी ऐसी मर्मानुभूति का होना आवश्यक है, जो किसी व्यापक जीवन-सत्य से परिचित कराये। श्री हुल्लड़ जी की हास्य कविताएं खूब हंसाती हैं, किन्तु अपनी फलश्रुति में पाठक या श्रोता को एक ऐसे आत्मसत्य के सन्मुख खड़ा कर देती हैं, जहां वह समस्या पर गंभीर चिंतन के लिए विवश हो जाता है। हुल्लड़ जी समसामयिक परिवेश की विसंगतियों, विद्रूपों, विषमताओं और विकृतियों पर वेधक व्यंग्य के साथ हास्य भी उत्पन्न करते हैं। यह उनकी प्रस्तुति का कौशल है कि लोग हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं। उन्हीं के माध्यम से वे ऐसे प्रश्न भी खड़े कर देते हैं कि श्रोता या पाठक करुणा, उद्विग्नता, आक्रोश, ग्लानि, वितृष्णा जैसे भावों से उद्वेलित होकर विचार करने के लिए विवश हो जाता है। यही इन कविताओं की प्रेयधर्मी श्रेयस् सार्थकता है। रचनाकार केवल दर्पण नहीं, दिशादर्शक भी होता है। वह भ्रमों और वंचनाओं की भस्मराशि पर संभावनाओं के अंकुर प्रस्फुटित करता है, रचनात्मक दिशाओं को आलोकित करता है। अनुष्ठानधर्मी अंधश्रद्धा के स्थान पर क्रियाशील पुरुषार्थ को रेखाकिंत करते हुए हुल्लड़ जी बड़ी सहजता से कहते हैं :

और सही अर्जुन है वही जो
हर किस्म के अभावों से
आर्थिक और राजनैतिक तनावों से
गरीबी की गहरी खाई से
बढ़ती हुई मंहगाई से
हर रोज़ कमर कसकर लड़ा है।

कभी-कभी हुल्लड़ जी सर्वमान्य अनुभव-सिद्ध सूक्तियां भी प्रस्तुत कर देते हैं, जिनमें उनके अनुभव की प्रामाणिकता और दृढ़ आत्मविश्वास की प्रतीति होती है। यथा–

समय के समन्दर को छल नहीं पाएगा
दो-दो नावों में पैर रखने के प्रयास में
वह तो क्या, उसका बाप भी डूब जाएगा

आज भी भ्रष्ट राजनीति में वोट मांगने के लिए निर्लज्ज नंगा नाच नेताओं के पतन का चरम बिन्दु है। वे प्रत्येक अवसर पर, प्रत्येक संदर्भ में अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। नेताओं पर किया गया एक तीखा व्यंग्य देखें, जो नेताओं के चरित्र उधाड़ने के साथ उनके प्रति घोर वितृष्णा पैदा करता है–

भीड़ थी तेरवीं की कुछ तो शरम कर लेते
मौत से वोट भुनाने की जरूरत क्या थी ?
घर पे लीडर को खिलाने की जरूरत क्या थी ?
नाश्ता उसको कराने की जरूरत क्या थी ?

श्री हुल्लड़ जी आस्तिक आस्था के कवि हैं। वे मनुष्य की भूमिका निमित्त से अधिक स्वीकार नहीं करते और ईश्वर को ही कर्त्ता होने का श्रेय देते हैं। उनका विश्वास है कि किसी दैवी प्रेरणा से कविताएं अपने-आप बन जाती हैं। श्रेष्ठकाव्य तो स्वतः स्फूर्त होता है। हुल्लड़ जी स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हैं–

एक पंक्ति भी लिख सकूं, नहीं मेरी औकात।
हुई शारदा कृपा से, दोहों की बरसात।।

पराशक्ति में यह विश्वास जहां कवि की विनम्रता को पुष्ट करता है, वहीं सृजन-संवेदना की प्रौढ़ता को भी रेखांकित करता है।
इस संग्रह में संकलित दोहे अपने संदर्भों और अभिप्रायों में स्वतंत्र होने पर भी कवि की मूल्यनिष्ठा, मानवीय संसक्ति, आस्था, विश्वास, दायित्व, चेतना जैसे गुणों से समृद्ध हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के अनुभव का निचोड़ इन दोहों में अभिव्यंजित हुआ है। जीवन के बहुत गंभीर प्रश्नों पर भी व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, यथा–

सभी दुखों से मुक्ति का, निकला यही निचोड़।
जिन मसलों का हल नहीं, उन्हें समय पर छोड़।।

दोहों के अतिरिक्त संग्रह की अन्य कविताएं भी वर्तमान जीवन के अति परिचित परिवेश की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुई हैं। इसलिये उनके साथ सहभाग और तादात्म्य बड़ी सरलता से हो जाता है।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि श्री हुल्लड़ मुरादाबादी के अन्य काव्य-संकलनों की भाँति ही इस संकलन का भी हिन्दी जगत में स्वागत होगा। इतना ही नहीं संप्रेष्य वस्तु की गंभीरता के कारण पाठक वर्ग इसके प्रति और भी आकृष्ट होगा। इस संग्रह की सफल प्रभावान्विति की कामना करते हुए ईश्वर से प्रार्थना है कि श्री हुल्लड़ जी की काव्य संभावनाओं का क्षितिज निरन्तर विस्तृत होता रहे।

डॉ० रामजी तिवारी

मेरी काव्य-यात्रा


बात है १९६२ की, तब मैं मुरादाबाद के हिन्दू कालेज में बी.एससी. का छात्र था। दिमाग में रात-दिन हास्य कविताओं के कीड़े कुलबुलाया करते थे, जो ज्यादातर पैरोडियों के रूप में प्रस्फुटित होते थे। उन दिनों नीरज जी का एक गीत ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ अत्यन्त लोकप्रिय था। सोचा, क्यों ना इसी पर हाथ साफ किया जाये ? तो जनाब लिख डाली यह पैरोडी जिसके बोल थे–

‘‘चोर माल ले गये लोटे थाल ले गये
मूंग और मसूर की सारी दाल ले गये
और हम डरे-डरे खाट पर पड़े-पड़े
सामने खुले हुए किवाड़ देखते रहे।’’

तो यह था मित्रों, हास्य की दुनिया में मेरा पहला कदम। और एक घटना याद आ रही है सन् १९६४ की–मुरादाबाद के पास एक छोटा-सा नगर है चन्दौसी। वहां के जाने-माने गीतकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी के निमन्त्रण पर मुझे वहां पर आयोजित एक विराट हास्य कवि सम्मेलन में भाग लेने का सुअवसर मिला। पारिश्रमिक राशि थी ग्यारह रुपये। कवि सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे थे हास्य रसावतार श्री गोपाल प्रसाद व्यास तथा मंच पर उपस्थित थे सर्वश्री काका हाथरसी, डॉ० बरसाने लाल चतुर्वेदी तथा देहरादून के कवि कुल्हड़।

नया-नया जोश था सो मामला जम-जमा गया। श्रद्घेय व्यास जी ने आशीर्वाद दिया–‘‘बहुत नाम कमाओगे। नारियल समेत दिल्ली आ जाओ। मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाना चाहता हूं।’’ उसके बाद लाल किले में काव्य पाठ, एच.एम.वी. में रिकार्ड और कैसेट, तथा पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ दिल्ली दूरदर्शन के नव वर्ष कार्यक्रमों में भाग लिया।
मेरे कवि-सम्मेलनीय जीवन को सजाने और संवारने में वीर रसावतार कविवर डॉ० ब्रजेन्द्र अवस्थी जी की अविस्मरणीय भूमिका रही है। उनका अहसान इस जन्म में तो उतारना मुश्किल है अगले किसी जन्म में ट्राई करूँगा।
कॉलेज के दिनों की ही घटना है, शायद १९६८ की। मुझे सिहोर (म०प्र०) के एक कवि सम्मेलन में भाग लेने का सौभाग्य मिला।

श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में बैठे डॉ० शंकर दयाल शर्मा मेरी रचनाओं पर ज़ोरदार ठहाके लगा रहे थे। कई वर्षों के बाद जब वह भारत के राष्ट्रपति बने तो १९९६ में उन्होंने राष्ट्रपति भवन में मेरे प्रथम ग़ज़ल संग्रह ‘इतनी ऊंची मत छोड़ो’ का लोकार्पण किया और मेरे कान में कहा–‘‘मुझे वह सिहोर वाला कवि सम्मेलन अभी तक याद है।’’ आज भी जब उस महान् विभूति को याद करता हूं तो सिर श्रद्धा से झुक जाता है। विद्यार्थी-जीवन में मेरी सबसे पहली कृति ‘ढोलवती एन्ड पोलवती’ छापकर जिस शख्स ने मेरी हौसला अफ़ज़ाई की थी वह कभी भुलाई नहीं जा सकती। उस महान् शख्सियत का नाम है स्वर्गीय विजय कुमार जी आर्य।

उन्हीं के सुपुत्र अनिल कुमार जी ‘इतनी ऊंची मत छोड़ो’ तथा ‘अच्छा है पर कभी-कभी’ के बाद प्रस्तुत काव्य संकलन ‘दमदार और दुमदार दोहे’ प्रकाशित करते जा रहे हैं। वह मेरी शुभ कामनाओं के साथ-साथ बधाई के पात्र हैं।
१९७७ में शुरू हुआ फिल्मी दुनिया का संक्षिप्त सफर। गीतकार के रूप में मुझे पहला अवसर दिलवाया (स्व०) कल्याणजी भाई ने आई०एस० जौहर की एक फिल्म में। फिल्म ‘संतोष’ तथा ‘बंधन बाहों का’ में अभिनय किया। मुम्बई में डॉ० धर्मवीर भारती, श्री विनोद तिवारी, किरन मिश्र, ड़ॉ० गिरिजा शंकर त्रिवेदी, डॉ० योगेन्द्र कुमार लल्ला, श्री विश्वनाथ सचदेव, डॉ० विश्वदेव शर्मा तथा (स्व०) श्री रामरिख मनहर ने मेरा काव्य-मार्ग प्रशस्त करने में अमूल्य योगदान दिया, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता। मुझे बम्बई में स्थाई रूप से बसने की प्रेरणा दी सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोज कुमार जी ने और साथ ही साथ फिल्म ‘संतोष’ में काम देकर अपना वायदा भी निभाया। उनके बारे में एक दोहे के माध्यम से यही कहना चाहूंगा :

आंसू से खुशियां मिलें, ज़ख्मों से आह्लाद,
गर हो श्री मनोज-से, गुरु का आशीर्वाद।

अंत में श्रद्धेय डॉ० रामजी तिवारी के प्रति हृदय से कृतज्ञता करता हूं कि उन्होंने इस काव्य-संग्रह की भूमिका लिखकर मुझे प्रोत्साहित किया–

हुल्लड़ मुरादाबादी


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