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उपन्यास >> गुलाबड़ी

गुलाबड़ी

यादवेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : पुस्तकायन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7196
आईएसबीएन :81-85134-02-2

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कई पुरस्कारों से सम्मानित हिन्दी व राजस्थानी के विख्यात लेखक यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का नवीन उपन्यास...

Gulabadi - A Hindi Book - by Yadvendra Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह उपन्यास राजस्थानी जन-जीवन, यथार्थ, विसंगतियों, और संघर्ष को दर्शाता है। इसकी नायिका ‘गुलाबड़ी’ नारी संघर्ष व सत्य की प्रतीक है और परिस्थितियों को झेलती हुई वह अपनी अस्मिता को बरकरार रखती है। इस उपन्यास के आधार पर दूरदर्शन ने टेलि-फिल्म बनाकर इसकी महत्ता को स्वीकारा है। भाषा, शिल्प-शैली और सटीक संवादों से यह अत्यन्त ही रोचक बन गया है। आप पढ़ेंगे तो उस जीवन का सांगोपांग सजीव चित्र पाएँगे।

गुलाबड़ी कपकपाती सर्दी की रात में अपनी कोठरी से बाहर निकली। पूर्णिमा का चाँद चमक रहा था। चारों ओर सन्नाटा सोया पड़ा था। इतनी साफ उजली चाँदनी थी कि दूर-दूर तक बसा कस्बा दिखाई दे रहा था – ऊँचे-नीचे और बेतरतीब घर ! अलग से पहचानी जानेवाली हवेलियाँ ! ठाकुर के डेरे की ऊँची मीनारें !
गुलाबड़ी ने सबको कई बार दृष्टि में भरा। उसकी दृष्टि में क्षितिजवाला फैलाव और धोरोंवाला सूनापन था। चाँदनी भी हाथ-पाँव फैलाकर सोई हुई लग रही थी।

वह अभावों की पीड़ा से इधर ऊबने लगी थी। न जाने क्यों उसे एक विचित्र अगन जलाने लगी थी। यह अगन कैसी थी, उसे मालूम नहीं। लेकिन उसने महसूस किया कि यह अगन अभावों की ही है। पिछले तीन माह से उसका पति बीमार था। छोटा-सा बर्तन बनाने का उसका काम था, वह भी ठप्प पड़ा था। ऊपर से गोद में पाँच माह का बच्चा भी था। गुलाबड़ी कभी-कभी झुँझला जाती थी कि इस मरी कोख को भी अभी ही खुलना था। ब्याह हुए पाँच वर्ष हो गए थे। कभी पाँव भारी नहीं हुए। यह तो अच्छा था कि घर में सास-ननद नहीं थीं, वर्ना तो निपूती कह-कहकर उसे दुःखी कर देतीं।
बेचारी सास पोते का मुँह देखने के लिए तरसती रही। वह कहती रहती थी कि मेरे घर में सोवन थाल कब बजेगा ? कब मेरे वंश की कोख खुलेगी ?... वैसे उसे वहम होने लगा था कि कहीं मेरी बहू बाँझ न हो ?

कितना बड़ा दुर्योग था कि सास के मरने के दो माह बाद ही गुलाबड़ी के पाँव भारी हो गए। उसके पति गोपले को प्रसन्नता के साथ दुःख भी हुआ कि उसकी माँ उसके बेटे-बेटी को देख नहीं सकेगी।
गुलाबड़ी को याद था कि उसके पति ने उसके गालों को छूते हुए कहा था, ‘पता नहीं यह क्या चमत्कार है कि मेरे पड़दादा के एक बेटा हुआ मेरा दादा, मेरे दादा के एक बेटा हुआ मेरा पिता, और मेरे पिता के हुआ केवल मैं।’
गुलाबड़ी ने मुस्कराकर कहा, ‘पर मैं आपके घर की चली आ रही रीत को तोड़ दूँगी।’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘पूरे दस बच्चे पैदा करूँगी ! यह घर जैसे बर्तनों से भरा है न, वैसे बच्चों से भर जाएगा। काँय-काँय चाँय-चाँय से हम ही क्या, आसपास के लोग भी परेशान हो जाएँगे।’ वह हँस पड़ी थी।

गोपले ने भी जरा मुस्कराकर अपनत्व से कहा था, ‘भागण (भाग्यवती) ! यह सब ईश्वर के अधीन है। यदि यह ईश्वर की माया नहीं होती तो बस्तीमल के सात छोरे और छह छोरियाँ नहीं होतीं और उसका छोटा भाई हस्तीमल अपने घर बच्चे का मुँह देखने के लिए नहीं तरसता।’
गुलाबड़ी स्वभाव की दबंग और मुँहफट थी। कुटिल तनिक भी नहीं। मन की जरा भी मैली नहीं। जो मन में था, वही उसकी जबान पर रहता था। वह फट से नयन मटकाकर बोली थी, ‘उसमें ईसर-वीसर का क्या काम ? मर्द में दम होना चाहिए ! जरूर दोनों में से एक में खोट होगी।’
तभी गंगा मासी आ गई। आते ही बोली, ‘‘तुझे कुछ पता है गुलाबड़ी ?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ ?’’ वह पल्लू को सिर पर सरकाती हुई बोली, ‘‘क्या खबर लाई हो ?’’
गंगा ने गंभीर होकर कहा, ‘‘तेरी नानी सासू की तबीयत चोखी नहीं है। गोमली कह रही थी कि बेसी दिन नहीं जीएगी !’’
‘‘फिर तो एक बार जाना ही पड़ेगा।’’ गुलाबड़ी ने कहा, ‘‘सुख-दुःख में तो अपनों के साथ साझीदार होना ही चाहिए।’’
‘‘तो कब जा रही हो ?’’
‘‘यह बर्तनों की नियाई (मिट्टी) पक जाय, तभी जा पाऊँगी। दो दिन तो लग ही जाएँगे।’’
गंगा ने आशंका व्यक्त की, ‘‘यदि नानी सासू मर गई तो ?’’

‘‘सुन मासी ! मरने के लिए गाड़ियाँ तो नहीं जुततीं ! मौत जिस पल आनी है, वह आएगी ही। लेकिन इस पेट की लाय (आग) भी तो बुझानी पड़ती है। सेठ गौड़हरि ने यहाँ से दो कोस पर एक प्याऊ खोली है। उसके लिए हमें बीस मटकियाँ और दो माटें देने हैं। यह काम होते ही मैं नानी-सासरे चली जाऊँगी।’’
‘‘मैंने तो तुझ तक खबर पहुँचा दी। बाकी तू अपनी सोच !’’ कहके गंगा वापस चली गई।
गुलाबड़ी अपने पति गोपले के पास आई। गोपले ने पूछा, ‘‘गंगा मासी क्या गणमण-गणमण कर रही थी ? कोई खास बात थी ?’’ उसकी आँखों में प्रश्न दहका।
गुलाबड़ी उसके पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाँ, आपकी नानी जी ज्यादा बीमार हैं। मासी का कहना है कि अब बेसी दिन नहीं जीएँगी।

‘‘तूने क्या जवाब दिया ?’’
‘‘मैंने कहा कि गौड़हरि के बर्तन देकर ही मैं वहां जा पाऊँगी।’’
‘‘यदि तू कुछ पैसे दे-दे तो मैं चला जाऊँ !’’
‘‘पैसे तो मेरे पास नहीं हैं।’’
‘‘दस-पाँच रुपए भी नहीं ?’’
‘‘फूटी कौड़ी भी नहीं है।’

वह एकदम बुझ गया ! गंभीर हो गया ! अपने पर लानत बरसाता हुआ बोला, ‘‘मैं इतना क्यों निकम्मा-निठल्ला हूँ कि अपनी पत्नी से रुपए माँगता हूँ, जब कि लुगाई के नाते तुझे मुझसे रुपए माँगने चाहिए। सचमुच मैं बड़ा दीन हूँ।’’
गुलाबड़ी मुस्कराई–एक अर्थभरी मुस्कान ! बोली, ‘‘ऐसा तू क्यों सोचता है ? धणी (पति) लुगाई से और लुगाई धणी से पैसे-टके माँगते ही आए हैं। तू मन मत मार ! मैं पैसों का बंदोबस्त करती हूँ। सेठ गौड़हरि के पास जाती हूँ।’’
‘‘मैं इसलिए जाना चाहता हूँ कि तेरा जाना टल जाएगा।’’ गोपला गहरी आत्मीयता और हल्की चिंता व्यक्त करते हुए बोला, ‘‘मैं नहीं चाहता कि तू ऐसी स्थिति में कहीं जाय ! इतने बरसों के बाद आशा बँधी है। कहीं ऊँचा-नीचा पाँव पड़ गया तो मुश्किल होगी।’’

गुलाबड़ी ने धूपीले-दोपहर के नीले आकाश को निहारा। हल्का-सा उच्छ्वास छोड़ती हुई वह बोली, ‘‘तू ठीक कहता है। मैं सेठ गौड़हरि के पास जाती हूँ। रुपयों का बंदोबस्त करती हूँ।’’
गुलाबड़ी ने अपनी ओढ़नी को ठीक किया। वह भीतर सालकी में गई। सारा घर कच्चा था। कच्ची ईंटें और उस पर गेरुए रंग की मिट्टी का पलस्तर ! सालकी में दो आले थे। एक ओर बाँस की एक अलगनी बनाई हुई थी। उस पर गुलाबड़ी और गोपले के कपड़े टँगे हुए थे–दो-कमीजें, एक जीर्णशीर्ण पगड़ी।
कच्ची दीवार में एक छोटा-सा आला था। उस आले में काजल की डिबिया, कंघा, काँघली और हिंगलू की शीशी थी जिसकी बिंदिया गुलाबड़ी लगाती थी।

गुलाबड़ी का रंग गोरा और बदन गठा-गठा था। उसे मध्यकालीन रानियों के वस्त्र पहना दिये जाएँ तो किसी रुपसी रानी से कम नहीं लगती थी। अंग-अंग तराशे हुए ! लेकिन थी तो कुम्हारिन ! बर्तन बनानेवाली ! उदर-पूर्ति के लिए सतत-संघर्ष करनेवाली ! एक साहसी और समझदार लुगाई !
वह अच्छी तरह जानती थी सुखी परिवार का धनी और गाँव का सेठ गौड़हरि उसको चाहता है। प्रेम करता है। उन पर उसकी देह भी अधिक सवार थी। जब कभी भी वह उनके पास जाती थी, तब गौड़हरि की दोनों आंखें उसके एक-एक अंग को स्पर्श करती थी। लेकिन वह यह भी जानता था कि जरा भी जोर-जबदस्ती गुलाबड़ी को नाराज कर सकती है। यह बात कई बार सिद्ध हो चुकी थी कि गुलाबड़ी अपनी मर्जी की मालकिन है। उस पर कोई भी दबाव काम नहीं कर सकता। कुछ भी करेगी अपनी इच्छा से, या फिर किसी बड़ी मजबूरी से !

गुलाबड़ी ने टीके-टमके किए। नई ओढ़नी ओढ़ी और गौड़हरि के घर की ओर चल पड़ी।
रास्ता चलते हुए गुलाबड़ी चुपचाप रहती थी। किसी भी आलतू-फालतू मिनख से हँसती-बोलती नहीं थी। अपनी ही धुन में लीन रहती थी।
यदि किसी ने उसे पुकार लिया तो वह ऐसे रुकती जैसे किसी वाहन को ब्रेक लगा दो। यदि पुकारने वाला कोई मोट्यार (युवक) होता तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में अजीब-सा तीखापन उभर आता था। हुमककर बोलती, ‘‘क्या है नासपीटे ? अपनी इस बैन से राखी बँधवानी है या फिर भइया दूज पर टीका लगवाना है ?’’
उसके स्वर में इतना तीखापन होता था कि पुकारनेवाला बगलें झाँकने लगता था। झेंप जाता था।

वह फिर पूर्ववत् स्वर में बोलती, ‘‘गूँगा हो गया है या किसी ने तेरे होंठ सिल दिए हैं ? बोलता क्यों नहीं गूँगे ?’’
और उसके बोलने के पूर्व ही वह फर्राटे से निकल जाती।
सारा कस्बा जानता था कि गुलाबड़ी मुँहफट अवश्य है, पर दिल की कुटिल नहीं है। जो उसके मुँह पर होता है, वही उसके भीतर होता है। दोमुँही नहीं ! अपने पति को बेहद चाहती है। धन के लोभ में जोबन को छूने नहीं देती। वह दूसरे की कमजोरी को भी समझती है, विशेषतः सेठ गौड़हरि की। वह जानती है कि गौड़हरि उसे चाहता है। बात हिये की करता है पर उसकी गूँगी दीठ (नजर) मेरे सुन्दर डील (तन) पर ही जमी रहती है। लेकिन डरपोक है। खुलकर कहने का साहस नहीं। लालची भी है ! उससे नाता तोड़ना भी नहीं चाहता।

ओह ! यह बापड़ा (बेचारा) गौड़हरि ! कितना लाचार है यह आदमी !
गुलाबड़ी पगडंडी पर चली जा रही थी। सूना रास्ता। पगडंडी के दोनों ओर रेत। कहीं-कहीं खेजड़ा। बीच में भैरूजी का मंदिर। गुलाबड़ी जब-जब इस मंदिर के आगे से गुजरती है, एक पल रुकती है। पगरखी खोलती है। हाथ जोड़कर भैरूजी को धोक देती है। प्रार्थना करती है-हे भैरू बाबा ! मुझे अन्न-धन-सुख-संतोष देना।
लेकिन गुलाबड़ी कई बार अपने सिर पर थप्पड़ मारती है। अपने को धिक्कारती है–यह मनड़ा कितना बेपरवाह है ! भैरूजी की विनती करते-करते यह क्यूँ कह उठता है–मालीपाना (वर्क) और सिन्दूर लगा हुआ हो तो देवता भैरू, नहीं तो भाटो (पत्थर) !

ओह ! भैरूजी के प्रति इतनी ओछी सोची ? वह अन्दर से थोडी़-सी डर जाती है। भैरू जी से बार-बार छिमा माँगती है। कहती है–हे बाबा ! तू मेरे मन में चोखी बातें क्यूँ नहीं डाल देता ? देख, यह तुझे भी भाटा कह देता है। छिमा करना बाबा, छिमा !
मंदिर के आगे निर्जन सन्नाटा था। एक दो बगीचियाँ थीं–बहुत बड़ी ! उनमें एक-एक कुंड था। पक्के कुंड-बीस से पचास फीट गहरे। कलकत्ता-प्रवासी सेठ जालान की बगीची में तीन कमरे बने हुए थे। कुंड के आसपास नीम के चार वृक्ष थे। उसके पार बड़े लोगों की बस्ती थी।
गुलाबड़ी जब सेठ गौड़हरि के घर पहुँची, तब गर्मी अधिक थी। वह पसीने से भीग-सी गई थी।

गौड़हरि की हवेली काफी बड़ी थी। उसके चारों ओर काफी खुली जगह छोड़ी हुई थी। एकदम बीचोबीच तो नहीं, लेकिन कुछ आगे की ओर गौड़हरि की हवेली थी। हवेली का तोरण द्वार पोल था। दो बड़े-बड़े लकड़ी के अत्यन्त मजबूत दरवाजे। दायीं ओर के बड़े दरवाजे में एक छोटा-सा दरवाजा। बड़ा दरवाजा रात को लगभग नौ बजे बंद हो जाता था।
पोल के आगे एक चार × चार था एक पाटा (तख्त) बिछा था। उस पाटे पर ठाकर यानी चौकीदार बैठा रहता था। धूप में वह भीतर की ओर चला जाता था।
जब गुलाबड़ी वहाँ पहुँची तो ठाकर कान सिंह चिलम पी रहा था। वह चिलम का धुआँ बेढंगेपन से इधर-उधर छोड़ रहा था।

‘‘राम-राम ठाकर सा !’’ गुलाबड़ी ने कहा।
‘‘राम-राम, गुलाबड़ी ! कैसे आई ?’’
‘‘सेठजी से मिलना है। हवेली में हैं ?
ठाकर ने चिलम व उसके नीचे लगे कपड़े को नीचे की ओर रखकर कहा, ‘‘तू यहीं ठहर, मैं पता लगाकर आता हूँ।’’
गुलाबड़ी ने अपने पल्लू से अपने चेहरे को अत्यन्त कोमल हाथ से पोंछा। वह व्यर्थ ही इधर-उधर देखने लगी।

पसरी हुई धूप। हवेली के एक छाया के टुकड़े में गर्मी की तपिश से परेशान लम्बे-लम्बे साँस लेता हुआ कुत्ता।
एकाएक उसकी दृष्टि आते हुए कालबेलिए पर पड़ी। यही कोई पैंतीस-चालीस साल का था वह कालबेलिया। कालादराक। लम्बा। लम्बे-लम्बे नीचे की ओर से उल्टे तथा मुड़े हुए बाल। सिर पर जीर्णशीर्ण पगड़ी। मैली-कुचैली बगलबंदी जो अंकूणी से फटी हुई थी। गले में एक चाँदी का माहलिया (तावीज) था। उसका डोरा चिकना हो गया था। कानों में सोने की मुरकियाँ थीं और बाएँ पाँव में चाँदी का कड़ा था। उसकी जूती मरे हुए जानवर के चमड़े की थी और उस पर धूल की परत जमी हुई थी।

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