लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> समय-पुरुष

समय-पुरुष

रामकुमार भ्रमर

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :302
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7198
आईएसबीएन :978-81-216-1358

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

33 पाठक हैं

संपूर्ण श्रीकृष्ण कथा का पहला खण्ड समय-पुरुष...

इस पुस्तक का सेट खरीदें Samay-Purush - A Hindi Book - by Ramkumar Bhramar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीकृष्ण-कथा पर आधारित 5 खण्डों में यह एक ऐसी उपन्यास-माला है, जो पाठकों का भरपूर मनोरंजन तो करती ही है, साथ ही सभी को श्रद्धा के भाव जगत में ले जाकर खड़ा कर देती है।
इन सभी उपन्यासों में लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन में आए तमाम लोगों का सजीव मानवीय चित्रण किया है तथा अनेक नए चौंकाने वाले तथ्य भी खोजे हैं। इस गाथा में श्रीकृष्ण का जीवंत चरित्र उद्घाटित होता है।
इस श्रृंखला के प्रत्येक खण्ड में 2 उपन्यास दिए गए हैं, दो समूची जीवन-कथा के 10 महत्पूर्ण पड़ावों को मार्मिक ढंग से रेखांकित करते हैं।

पहले खण्ड ‘कालचक्र’ में श्रीकृष्ण के जन्म से पहले की भयावह दशा का दिल हिला देने वाला वर्णन है, जबकि ‘कारावास’ में वसुदेव और देवकी के कष्टों की मर्मस्पर्शी गाथा है तथा मथुरा के लोगों का सत्ता के प्रति गहरी पीड़ा का आकलन है।
रथ सुंदर था–उससे कहीं अधिक सरुचिपूर्ण सजावट थी उसकी। रथ के माथे ध्वज लहराता हुआ। झिलमिलाहट के साथ सूर्य-किरणें-जैसे चीख-चीख कर कह रही थीं ‘सावधान !... मगधराज जरासन्ध के तेज की बिजलियां कौंधती जा रही हैं...’
भव्य रथ के आगे-पीछे और भी सुसज्जित रथ थे। सारथी गौरव से भरे और गर्व में डूबे हुए। सहज ही था। जरासन्ध की शक्ति हर मगध-वासी को इसी गरिमा और गौरव से भरे रहती थी। भरत खण्ड का कौन-सा राज्य है जो इस तेज को सह सके ?

रथ की गति तीव्र थी। लक्ष्य के बहुत पास जा पहुंचे थे वे। कुछ घड़ियों के बाद ही उन्हें मथुराधिपति उग्रसेन के नगर-द्वार में प्रवेश करना था। जैसे-जैसे सारथी रथ की गति बढ़ाता, वैसे-वैसे मुख्य रथ के भीतर बैठे दूत सुषेण के माथे में तीव्रगति सागर लहरों की तरह विचारों का सिलसिला उठने लगता... क्या-क्या प्रश्न किए जा सकते हैं ? और सुषेण की ओर से उनका क्या उत्तर होगा ?

रह-रह कर सुषेण की हथेली अपने समीप रखी उस सुंदर पेटी को सहलाने लगती, जिसमें मगधराज की ओर से मथुराधिपति उग्रसेन के नाम संदेश था... बहुमूल्य पेटी। मुलायम मखमल से सजी हुई। उसके भीतर राजकीय संदेश का रेशमी पत्र !... जिस क्षण भोजपति के हाथों पेटी थमायी जाएगी, उस क्षण वे और उनके मंत्रिगण, अधीनस्थ राजाओं की सभा आनंदमिश्रित उत्सुकता से भर उठेगी–क्या होगा उस भव्य पेटिका में ? निश्चय ही भारत की सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न सत्ता की ओर से कोई चौंकाने वाला समाचार होगा !... समाचार, जो आनंद के सागर में भी भिगो सकता है और समाचार जो समूची मथुरा और यादव गणसंघ की धरती को भूकम्प का अनुभव भी करा सकता है !...

पर सुषेण जानता था–क्या है पेटिका के भीतर ?... और जो कुछ है, उसे लेकर मथुराधिपति से वार्ता के दौरान उसे क्या-क्या कहना है ? शब्द इसी तरह मखमल में लिपटे होंगे, स्वर-चाशनी से भीगा होगा किंतु उनका प्रभाव होगा असंख्य बिच्छुओं के एक साथ डस लेने–जैसा !... प्रतिक्रिया–सिर्फ एक सन्नाटा !

यह सन्नाटा, धीमे-धीमे राजभवन के द्वारों, खिड़कियों और रोशन-दानों से बहता हुआ धुएं की तरह सम्पू्र्ण यादव गणसंघ के आकाश पर बिखर जाएगा। खिलखिलाते, हंसते, क्रीड़ा-किल्लोल में रसरंगे चेहरे अनायास ही घुटन से भरकर मृत्यु-यंत्रणा बोलने लगेंगे। मगधराज का आतंक उन पर हौले-हौले यम की कालिख बनकर चेहरों पर फैल जाएगा। कितनी ही लताओं-जैसी सुंदरियां सहमकर मुर्झा जाएंगी, कितने ही बालक सहसा अपने कोमल तलवों के नीचे हरी दूब की जगह तपते बालू की तिलमिलाहट अनुभव करने लगेंगे। बहुत से वृद्घों की जीवन शक्ति पतझर में झरते पीले पत्ते की तरह लड़खड़ा उठेगी और युवा मन बरसों से वर्षा-रिक्त खेतों की तरह बंजर हो जाएंगे !...

मखमल में लिपटे इस संदेश का केवल मथुरा पर ही ऐसा प्रभाव होगा–ऐसा नहीं हैं। सुषेण जानता है कि जब-जब ऐसा संदेश किसी राजा, राज्य, गणसंघ अथवा समुद्र-पार की सत्ता को मिला है, तब-तब ऐसा ही हुआ है!... फिर मथुरा तो बहुत छोटी, साधारण-सी सत्ता ठहरी !... राजा वृद्धा। गणसंघ के सभी राजा बिखरे और तने हुए।
एक पल के लिए जाने क्यों सुषेण को ऐसा लगा जैसे यह सब ठीक नहीं होगा। जब-जब सुषेण इस तरह के मखमली राजसंदेश लेकर मगध से किसी राज्य की ओर बढ़ा है, तब-तब उसे ऐसा ही लगता है–किंतु बाध्य है वह। यह सब करना-निबाहना उसकी नियति। मगधवासी के नाते ही नहीं, मगधराज के कर्त्तव्यनिष्ठ सेवक के नाते भी यह उसका धर्म !...

सहसा रथ की गति हल्की हुई। सुपेण की विचारश्रृंखला टूट गई। क्या हुआ ? प्रश्न मन में ही उठा। उसके पूर्व सारथी ने मुड़कर रथ का रेशमी परदा उठाया, सूचना दी, ‘मथुरा का नगर-द्वार आ पहुंचा है श्रीमान् !...’
‘अच्छा!...’ हौले से सुषेण ने कहा, फिर आदेश दिया, ‘द्वार के प्रहरी अथवा अधिकारी को सूचना दो कि मगध के राजदूत आए हैं।’’
‘जैसी आज्ञा, श्रीमान,!’ सारथी ने कहा। रेशमी परदा झिलमिलाकर पुनः गिर गया। बाहर से कुछ लोगों की धीमी-तेज़ ज्वार-भाटे जैसी आवाज़ आने लगीं। सपेण शांत भाव से बैठा रहा।

थोड़ी ही देर रथों को पुनः गति मिली। रथ मथुरा के नगर-द्वार में प्रवेश कर चुके थे... नगर की चहल-पहल सनसनी, हौले-हौले ही सही, पर सुषेण के कानों में पक्षियों के शोर की तरह सुनाई पड़ने लगी।
महाराज उग्रसेन विश्राम-कक्ष में थे। सुषेण के स्वागतार्थ श्वफलक उपस्थिति हुए। मथुराधिपति के वंशज। वृद्ध थे। राज्य के विशिष्ट व्यक्तियों और सभा के महत्त्वपूर्ण मंत्रियों में से एक। सुषेण की अगवानी सम्पूर्ण राजकीय शिष्टाचार के साथ की गई। स्वाभाविक भी था। मगध-राज जरासन्ध का दूत अपने आप में किसी राजा से कम महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न नहीं हो सकता था।

राजनिवास के विशेष अतिथि कक्ष को तुरंत खुलवाया गया। रथों को यथास्थान ठहराने के साथ-साथ सुषेण के साथ आए मागधी सैनिकों के स्वागत की भी व्यवस्था हुई। सुषेण ने संतोष अनुभव किया।
सामंत श्वफलक राजा उग्रसेन के सम्बन्धी भी थे–वंशज भी। यादव गणसंघ में उनकी अपनी सत्ता स्वीकारी जाती थी। राजकीय शिष्टाचार निबाहकर सुषेण से कहा था–दूंत!... आप लम्बी यात्रा करके आए हैं–विश्राम करें। महाराज उग्रसेन इस समय आराम कर रहे हैं। समय पर उन्हें आपके आगमन का संदेश दिया जाएगा। आपसे मिलकर निश्चय ही वह बहुत प्रसन्न होंगे।’
‘आभार. मंत्री महोदय !... मैं संतुष्ट हूं।’

‘किसी विशेष वस्तु की आवश्यकता हो तो अवश्य कहें–तुरंत व्यवसथा करके हमें आनंद होगा।’
‘बस, सब ठीक है। ‘सुषेण ने उत्तर दिया–अब केवल महाराज के ही दर्शन की प्रतीक्षा है।’
श्वफलक लौट गए। सुषेण एक बार पुनः विचारक्रम से जा जुड़ा, जो मथुराधिपति के सामने राजकीय वार्ता का विषय बनने वाला था।
उग्रसेन ही नहीं, सभी के लिए चौंकने वाली बात थी–भला जरासन्ध के दूत का आगमन किस कारण हुआ ? यों दूतों का राज्यों में आना-जाना संदेश देना पहुंचाना कोई नई बात नहीं थी–किंतु मगधराज के दूत का आगमन एक मथुरा ही नहीं, किसी राज्य या राजा के लिए चौंकाने वाला विषय था। विशेषकर उन राज्यों के लिए जो मगधराज के स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व बनाए हुए थे। जरासन्ध की शक्ति लोलुपता, आतंक और विभिन्न राज्यों को आधीन रखने की प्रवृत्ति न किसी के लिए अजानी थी, न ही नई बात।

मथुरा के घर-घर में उसी क्षण चर्चा का एकमात्र विषय बन गया था राजदूत सुषेण। क्यों आया होगा ? क्या मगधराज की लालची आंखें यादवों की स्वतंत्र सत्ता पर भी जा ठहरी हैं ? या मगधराज जरासन्ध मथुरा क्षेत्र से कहीं इधर-उधर निकलने वाले हैं ? सब रहस्य। हर रहस्य पर परत-दर-परत अंधेरे की अनेक परतें चढ़ी हुई। हर परत सवालों के फंदों से जुड़ी बनी हर पुरत के नीचे आशंकाओं और भावनाओं के अनेक कांटे। हर कांटा मन में लगता हुआ। हर चुभुन चिंता की चिंगारियों से भरी हुई !...
हर मन से व्यग्र, व्यथित उच्छवास उठते हुए–‘शुभ करें भगवान् !... कुछ अनिष्ट न हो !’

राजा उग्रसेन जिस क्षण विश्राम कक्ष में जागे, उसी क्षण श्वफलक, सत्यक और युवराज कंस जा पहुंचे थे। सब चिन्तित, व्यग्र, उत्तेजित, और थके हुए से। वृद्ध राजा ने चकित होकर उन्हें देखा। कुछ पूछ सकें, इसके पूर्व ही श्वफलक ने कहा था, ‘प्रणाम राजन् !... मगधराज जरासन्ध का दूत आया है।
उग्रसेन ने सुना। एक पल के लिए लगा कि एक थर्राहट मन से उठी और चेहरे की झुर्रियों से लेकर तलवे की लकीरों तक बिखर गई। उत्तर में शब्द निकलने से पहले गला कुछ अटक अनुभव करने लगता था। थूक का एक घूंट निगला, फिर अपने को सहजते हुए पूछा, ‘ऐसा क्या कारण हुआ ?’

‘दूत के आगमन का कारण तो दूर से ही ज्ञात हो सकता है, मथुराधिपति!...’ सत्यक ने उत्तर दिया–‘किंतु इतना निश्चित है, कि दुष्ट जरासन्ध के दूत का आगमन किसी के लिए शुभकर नहीं हो सकता !...
वह मदांध निश्चय ही यादव गणसंघ की स्वतंत्र सत्ता को नष्ट करना चाहता होगा।’
उग्रसेन ने सुना। कुछ बोले नहीं। या बोल नहीं सके ?... संभवतः बोल ही नहीं सके थे। पल भर पहले के जागरण ने अलसाए शरीर और मस्तिष्क को अनायास ही सही, किंतु अब तक बेसुध-सा बनाए रखा था।

एक पल के लिए कक्ष में चुप्पी बिखरी रही, फिर राजा ने प्रश्न किया, ‘क्या दूत के विश्राम की उचित व्यवस्था हुई।’
‘वह सब हो चुका है, महाराज !... ‘श्वफलक ने उत्तर दिया–‘पर दूत शीघ्र ही आपके दर्शन करने का व्यग्र है।’
राजा ने कुछ क्षण पुनः सोचा। कहा, ‘ठीक है। प्रातः सभा में उसे उपस्थित किया जाए।’
‘जैसी आपकी इच्छा !’ श्वफलक मुड़े, तभी वृद्ध राजा ने कहा–‘संध्यावंदन के पश्चात् आप सभी मेरे मंत्रणा-कक्ष में उपस्थित हों।’

‘जी।’ उन्होंने सिर झुकाए–चल पड़े। श्वफलक ने सुषेण को संदेश पहुंचाया।
महाराज उग्रसेन चिंताग्रस्त पलंग के सिरहाने सिर टिकाकर लेट रहे। लगता था कि उनके हर ओर प्रश्नवाचक चिह्न लटके हुए हैं... हर चिन्ह मन और माथे को कुरेदता हुआ,... जरासन्ध का राजदूत ?... पर क्यों ?... किस कारण ?...
अन्य कोई कारण सूझ नहीं रहा था–जो कारण सूझ रहा था उसने मन-शरीर को हचमचा डाला था !

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book