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सपनों का शहर

सीमा सेठ

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7209
आईएसबीएन :9788128820090

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"El Dolaro" का हिन्दी रूपान्तरण...

Sapno Ka Shahar - A Hindi Book - by Seema Seth

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पू एक अभिनेत्री बनने का सपना लेकर सोने की नगरी मुम्बई आती है।
वह स्वयं को शोरगुल, महंगी कारों, डिजाइनर कपड़ों, गगनचुम्बी इमारतों, पांच सितारा होटलों की नजाकत और अमीरों की पार्टियों में पाती है।
अन्धकारपूर्ण, गुप्त और मुश्किल स्टारडम की डगर बुराइयों तथा जोखिम से भरी थी। उसे यह अहसास हुआ कि ऐसा करियर जिसके लिए लाखों लड़कियां मरती हैं, उसे मार सकता है।
यदि वह इसमें सफल होती है, तब उसे यह फैसला करना पड़ेगा कि क्या उसका अपनी आत्मा से समझौता करना सही था।

एक


वह दर्पण के सामने खड़ी होकर आपने आप को निहारने लगी। उसने अपने प्रतिबिंब को इतराकर और गर्व से देखा। वह पांच फुट आठ इंच की बेहद खूबसूरत कन्या थी और किसी भी कवि की कल्पना में सरलता से आ सकती थी। वह एक प्राचीन यूनानी देवी की तरह सम्पूर्ण और दैवीय थी। उसका गोरा संगमरमरी रंग सारे वातावरण को चकाचौंध करता था। उसकी बड़ी काली झील-सी गहरी आँखें हमेशा चमकती रहती थीं। काली लंबी लटें किसी पहाड़ से गिरते झरने की तरह दिखाई देती थी। संक्षेप में, यह विशेषताएं उसे सम्पूर्ण सम्मोहनयुक्त व्यक्तित्व बनाती थी।
और जब, उसने राज्य स्तर पर शहर की सबसे सुंदर लड़की का खिताब जीता, तो वह जान गई थी कि अब वह जीवन में एक लंबी व शानदार यात्रा के लिए तैयार हो गई है। वो यात्रा थी, बॉलीवुड की सतरंगी इंद्रधनुषिय गलियों की।
घर पहुंचते ही, उसकी प्रसन्नचित माँ ने, उसे आत्मसंतुष्टि से गले लगा लिया। ‘‘मुझे तुम पर गर्व है,’’ यह कहते हुए उसने, उसके माथे को चूम लिया।

इसके विपरीत उसके पापा, जो कि एक सख्त मिजाज़ फौज़ी थे, उन्होंने इसे इतनी प्रसन्नता से नहीं लिया। क्योंकि वह उन रूढ़िवादी विचारधारा से संबंध रखते थे जिनका यह मानना था कि फिल्मी उद्योग वास्तविकता से परे, केवल एक छलावा भर है। ‘फिल्म उद्योग’ शब्द का ज़िक्र ही उन्हें ना पसंद था।
वो फिल्म उद्योग को तीन विशेषताओं बेहूदा, चंचल और कल्पनाशील से अलंकृत करते थे।
इसके अतिरिक्त वह फिल्म उद्योग की बुराई करने के लिए और अपनी बातों को सही ठहराने के लिए तरह-तरह के उदाहरण देते, ‘‘अपनी कज़न रिया और विन्नी को देखो, वे व्यवसायिक मैनेज़र और डॉक्टर हैं। तुम सभी करियर को छोड़ कर, इस जुए में अपना भाग्य क्यों अजमाना चाहती हो ?’’

‘‘पापा फिल्म उद्योग में करियर बनाना जुआ नहीं है। मैंने हमेशा से ही यह सपना देखा है,’’ उसने अपनी बात रखने की बहुत चेष्टा की लेकिन फिर भी वह अपने पापा द्वारा फिल्म उद्योग की गंदी छवि को बदलने में असफल रही।
यद्यपि वह अपने पापा को मनाने का प्रयत्न करती रही। लेकिन उन्होंने उसके सभी प्रयत्नों को नज़रअंदाज़ करते हुए क्रोध में कहा, ‘‘क्या तुम समुद्र के किनारे रेत के घर नहीं बना रही हो ? क्या तुम्हारी फिल्म उद्योग की पृष्ठभूमि है ? क्या हमारे परिवार में ऐसा कोई है जो तुम्हें इस उद्योग में स्थापित कर सके ? वहाँ तुम्हें सफल होने में बेहद कठिनाइयां आएंगी।’’
उसके मन में भावनाओं का बवंडर मचने लगा और उसका चेहरा उदासी व दयनीयता की तस्वीर लग रहा था। शीघ्र ही इस वेदना ने आँसुओं का रूप ले लिया। उसके आँसू टूटे हुए शीशे के कणों की तरह उसके गोरे गालों पर बहने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

उसे उदासी से घिरे देख पापा ने कड़े स्वर में कहा, ‘‘लड़की, अपनी उत्तेजना और उदासी से बाहर आओ।’’
उसने एक गहरी साँस भरी, लेकिन यह भी उसे दुख और विरोध की भावना से उबार न पाई, क्योंकि उसके पापा ने उसकी सहानुभूति पाने के हर प्रयत्न को अपने एक स्थापित दृष्टिकोण के कारण नज़रअंदाज़ करने की ठान ली थी।
उसने अपने माथे पर आए पसीने को पोंछा और कुछ कहने की चेष्टा की ही थी कि उसके पापा तेज़ स्वर में दरवाजा पटक कर बाहर निकल गए, बिना उसके चेहरे की ओर देखे, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि वह अपने आँसुओं के कारण सहानुभूति बटोरने का प्रयत्न करे।
पिता के इस अनुचित व्यवहार ने उसके मन को इतना बोझिल बना दिया कि वह अपनी भावनाओं पर काबू न पा सकी और उसकी आँखों से झर-झर करते आँसू बह निकले।

स्वयं को संभाल न पाने के कारण, वह कमरे से बाहर आई और अपने बैड रूम में जाकर बिस्तर पर गिर गई।
वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण न रख सकी व फूट-फूट कर रोने लगी।
पैरों की आहट गलियारे में गूंजने लगी और उसके बैडरूम के दरवाज़े पर आ कर रुक गई। उसने दरवाज़े की ओर देखा, यह जानने के लिए कि वहाँ कौन है ?
मम्मा उसके कमरे के अंदर दाखिल हुई और उसके बिस्तर की ओर आने लगी।
अपनी मम्मा को देख कर उसने अपने आँसू पोंछ डाले। माँ उसके पास बैठ गई।
उसको अभी भी अपने पिता के व्यवहार से दुख महसूस हो रहा था, ‘‘वह इतने कठोर कैसे हो सकते हैं ?’ उसके आँसुओं भरे चेहरे पर डरी हुई आँखें और भी गहरी दिख रहीं थीं।

माँ चुप थी। वातावरण में भावहीनता छा गई थी।
दिल चीर देने वाली व्याकुलता उसकी आँखों में साफ झलक रही थी, जिसने उसकी माँ के चेहरे पर सहानुभूति के भाव ला दिए।
यह वह क्षण था जब माँ बेटी दोनों चुप थी। तभी मम्मा ने उसके हाथों को अपने हाथों में ले लिया। यह विचलन आनंद की स्वीकृति लाया।
पू ने मम्मा की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा। उसके मन में अचानक एक विचार कौंधा, इस विचार ने उसकी मुरझाई हुई आँखों में एक आशा की किरण ला दी। यह आशा की किरण एक खुशबू भरे झोंके की तरह थी, जो आ कर उसकी घनी पलकों के बीच ठहर गई।

‘‘विश्वास रखो, हम कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे,’’ मम्मा ने आत्मीयता से कहा।
पू ने इसे तुरंत मानते हुए अपनी मम्मा की तरफ देखा और उसके सीने से जा लगी और फिर अविश्वास से बोली, ‘‘मुझे नहीं लगता वह मानेंगे। वह मुझे समझ क्यों नहीं रहे हैं ? उन्हें समझ क्यों नहीं आ रहा कि उनकी बेटी के पास वह सब कुछ है जो उसे शिखर पर पहुंचा सकता है,’’ वह एक साँस में सब कुछ कह गई। यद्यपि उसकी आवाज़ विवशता और पूर्व धारणा से भारी हो रही थी।
वातावरण में एक अजीब-सी उदासी छाने लगी थी क्योंकि मम्मा भी जानती थी कि पू के पापा को मनाना इतना आसान नहीं है। उसका मायूसी अब अंतिम स्तर पर पहुंच चुकी थी।
अचानक मम्मा बिस्तर से उठी व बोली, ‘‘तुम सामान बांधना शुरू करो। माँ की इस दृढ़ता ने उसकी आँखों में चमक ला दी थी।’’

पू हैरान थी अब मम्मा के मन ऐसा क्या विचार आ गया ? अपने होंठ काटते हुए उसने आश्चर्य मिश्रित खुशी से पूछा, ‘‘क्या आपने यही कहा है ?’’ फिर वह धीरे-धीरे अपनी माँ से लिपट गई। उससे यह आश्वासन लेने के लिए कि कुछ समय पहले सामान बांधने की जो बात उसने कही थी, उससे क्या समस्या का हल मिल गया है।
‘‘मैं तुम्हारे पापा से बात करुंगी, ’’उसने दृढ़ स्वर में कमरे से बाहर जाते हुए कहा। पू हैरान थी कि उसकी माँ के दृढ़ निश्चय का कारण क्या था ? लेकिन बिना कोई देर किए वह भी अपनी माँ के पीछे चल दी।
अभी वह बैठक के दरवाज़े तक पहुंची थी कि पू को तेज़ स्वर में बोलने की आवाजें सुनाई दी। यह उसके माता-पिता की आवाज़ें थीं। धीरे से वह आधे खुले दरवाज़े के पास खड़ी हो गई और अंदर हो रही गतिविधियों को देखने का प्रयत्न करने लगी।

उनकी आवाज़ें और तेज़ हो गई। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे और कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था।
‘‘तुम्हें अपनी बेटी की इच्छाओं और आकांक्षाओं का ध्यान रखना होगा,’’ यह उसकी माँ की आवाज़ थी।
‘‘मैंने अपने विचार बता दिए हैं और उन्हें बदलने का मेरा कोई इरादा नहीं है,’’ यह उसके पापा थे जो अपनी लाडली के लिए गलत भविष्य नहीं चुन सकते थे।
लड़ाई जो बातचीत तक ही सीमित थी अब गाली-गलोच तक बढ़ गई थी। उसके कारण आई घबराहट और डर के कारण उसके माथे पर पसीना आ गया।
अपने माता-पिता को लड़ते देख उसे आत्मग्लानि हुई। तेइस वर्ष के उनके वैवाहित जीवन में यह पहला अवसर था जब पू उन्हें लड़ते हुए देख रही थी, और वह भी उसके कारण।

‘‘अगर वह जाना चाहती है, तो तुम भी उसके साथ जाओ,’’ पापा और मम्मा दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे।
‘‘ठीक है, जैसा तुम चाहो,’’ वह तुंरत मान गई। उसकी आँखें निराशा के कारण छोटी दिखने लगी थीं। ‘‘तुम मेरा करियर एक बार बर्बाद कर चुके हो, अब मैं वही सब कुछ अपनी बेटी के साथ नहीं होने दूंगी क्योंकि मेरी बेटी के पास वह सब कुछ है जो उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचा सकता है,’’ मम्मा ने पापा को घर में उनकी एक निष्क्रिय स्थिति का अहसास करवाया। इतनी पढ़ी-लिखी होने के बाद भी पापा ने अपने पुरुष अंह के कारण मम्मा को नौकरी नहीं करने दी थी और जब अपनी बेटी का साथ देने के कारण उसे भी घर से जाने के लिए कहा जा रहा है, तो उसने अब तक उसके साथ हुए अन्यायों को बताना ही उचित समझा। गुस्से व व्याकुलता ने अब आँसुओं का रूप ले लिया था। उसके आँसुओं के कारण उसकी आवाज़ में कमज़ोरी आ गई थी।

बाहर खड़ी पू डर से कांपने लगी जैसे उसकी टांगों ने उसका साथ छोड़ दिया हो और मम्मा की दशा देखकर उसकी आँखें भीग गई। पू ने सोचा उसकी महत्त्वकांक्षाओं के लिए मम्मी ने अपना वैवाहिक जीवन खतरे में डाल लिया है इसलिए उसे इस परिस्थिति में उसके साथ खड़ा होना चाहिए।
इसलिए वह धीरे से अपनी मम्मा की ओर बढ़ी और प्यार से उनका हाथ दबा कर, उन्हे सांत्वना व विश्वास दिलाने लगी।
फिर उसने अपने पापा की ओर देखा, जो अपनी कमीज़ के ऊपर के दो बटन खोल रहे थे जैसे कि उनकी साँस कहीं बीच में अटक गई हो।

दो तरफा विपत्तियों से घिरी पू को समझ नहीं आया कि वह स्थितियों का सामना कैसे करे ?
कुछ देर अपनी साँसों को सहज करने के बाद उसने सिगरेट निकाल कर सुलगा ली।
छत से आती हुई पंखे की आवाज़ अथवा कभी-कभार उसके द्वारा कश निकलने की आवाज़ के अलावा, वहाँ सन्नाटा था। वातावरण बोझिल हो चुका था।

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