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पत्राचार

बिन्दु अग्रवाल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :260
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 721
आईएसबीएन :81-263-0622-x

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एक लेखक को दूसरे लेखकों द्वारा लिखे गये दिलचस्प और मानवीय पत्र...

Patrachar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


एक लेखक को दूसरे लेखकों द्वारा लिखे गये और स्वयं लेखक द्वारा दूसरों को लिखे गये पत्र हमेशा ही एक दिलचस्प और मानवीय दस्तावेज़ होते हैं। जब वह लेखक ‘तार सप्तक’ से लेकर लगभग तीन दशक साहित्य और लेखकों की दुनिया में रसा-बसा संवादप्रिय लेखक भारतभूषण अग्रवाल हो, तो ऐसा संकलन उस दौरान के साहित्य के इतिहास का, उसके आन्तरिक तनावों और छोटी-छोटी सचाइयों का, संवेदना और दृष्टि के अनेक टकरावों और संवादों का एक बिलकुल निराला दस्तावेज़ बन जाता है जो कि यह पुस्तक सौभाग्य से है।

 मैथलीशरण गुप्त, जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, अश्क, अमृत राय, बलराज साहनी, दिनकर, शमशेर बहादुर सिंह, वासुदेव शरण अग्रवाल, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण शाही, नगेन्द्र, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, नामवर सिंह, नेमिचन्द्र जैन आदि से लेकर अपेक्षाकृत तब के युवा लेखकों जैसे, मंगलेश डबराल तक अनौपचारिक संवाद का एक लम्बा विचारोत्तेजक और मर्मस्पर्शी वितान है, जो इस पत्राचार से विन्यस्त होता है। ऐसे कई तथ्य, कई निजी प्रसंग, कई आत्मीय विवेचन और व्याख्याएँ इन पत्रों में बड़े आत्मीय ढंग से प्रकट हुए हैं। हिन्दी में नये साहित्य के आरम्भ, संघर्ष और प्रतिष्ठा का अगर कोई अनौपचारिक इतिहास लिखा जाए तो उसके लिए यह संकलन बहुत प्रासंगिक होगा। संकलन का दूसरा खण्ड स्वयं भारतजी द्वारा अपनी यूरोपीय यात्रा के दौरान जर्मनी, बेल्जियम, चैकोस्लोवाकिया, इंग्लैण्ड, फ्रांस और माल्टा से लिखे गये पत्रों का है। उनमें भारतजी की संवेदनशीलता सूक्ष्म अवलोकन की शक्ति, सहज मानवीयता और गहरी पारिवारिकता का भरा-पूरा साक्ष्य है।

मुझे यह कहने में कोई सन्देह नहीं है कि यह साहित्य और जीवन दोनों के स्पन्दनों में बँधी एक ऐसी पुस्तक है, जिसे पढ़ने से हमारी समझ और संवेदना दोनों का इज़ाफ़ा होता है।

अशोक बाजपेयी

सम्पादकीय

जब सन् 1975 में भारत जी का देहावसान हुआ तो भारत जी के साहित्यकार मित्रों ने सर्वप्रथम भारत जी के पत्रों के बारे में ही मुझसे पूछ-ताछ की थी और उनको तुरन्त प्रकाशित कर देने के लिए कहा था। श्री अशोक बाजपेई ने सन 78-79 के ‘पूर्वग्रह’ में भारत जी के कुछ पत्रों को विशेष सामग्री के रूप में प्रकाशित भी किया था। इनकी उपयोगिता को ध्यान में रखकर सन् 94-95 में हिन्दी पत्रिका ‘इण्डिया टुडे’ के साहित्यिक विशेषांक में ‘धरोहर’ शीर्षक से तथा सन् 2000 में ‘वागर्थ’ एवं ‘मधुमती’ पत्रिकाओं में भी बड़े सम्मान के साथ भारत जी के कुछ पत्र-व्यवहार को प्रकाशित किया गया था।
पर भारत जी के देहावसान के बाद से अब तक इतना समय व्यतीत हो गया है। चाहकर भी पुस्तक रूप में पत्रों का प्रकाशन टलता रहा। उस समय इस बात की अधिक चिन्ता थी कि किसी प्रकार भारत जी का अप्रकाशित और अप्राप्य समस्त मौलिक साहित्य और यदि सम्भव हो तो अनूदित साहित्य भी प्रकाशित हो जाये। मुझे सन्तोष है कि इस कार्य में मैं सफल हुई हूँ और 1994 में ‘भारतभूषण अग्रवाल रचनावली’ (चार खण्ड) भी प्रकाशित हो चुकी है। इसमें प्रकाशकों का भी पूरा सहयोग रहा है-इसको मैं कृतज्ञ भाव से स्वीकार करती हूँ।

भारत जी को पत्र लिखने की आदत थी या नहीं, इसके बारे में कुछ भी कहना कठिन है। यों परिवार के सदस्यों को नियमित पत्र लिखते थे और उनसे भी ऐसी ही आशा करते थे। इस विषय में थो़ड़ी भी देर उसकी चिन्ता का कारण बन जाती थी। पर मित्रों के साथ पत्र-व्यवहार उनके मूड पर निर्भर करता था। कभी परेशान होते या किसी मित्र की कोई बात खटक जाती तो सम्बन्धित मित्र के अनेक पत्र आने पर भी मौन साध जाते थे। पर जब कभी कोई साहित्य या राजनीति से सम्बन्धित प्रश्न बेचैन करता तो लम्बे पत्र लिखने में भी आलस नहीं करते थे। इस संग्रह में कुछ लम्बे पत्र हैं, वे इसी प्रवृत्ति के सूचक हैं।

इस संग्रह में तीन पीढ़ी के पत्रों को देखकर मेरे मन में सुखद अनुभूति हो रही है कि भारत जी का सम्पर्क कितने वृहत साहित्य जगत से था। समवयस्क लेखक तो उनके मित्र थे ही, अग्रज और अनुज साहित्यकारों से भी वे आत्मीय भाव अनुभव करते थे। यह आत्मीय भाव दोनों ओर से निहित रहता था। जहाँ भारत जी अग्रजों का आदर करते थे, वहाँ अनुज साहित्यकारों को स्नेह और प्रोत्साहन भी देते थे। बहुत बार यही विशेषताएँ भी पत्र-व्यवहार का कारण बन जाती थीं।
जो हो, इन पत्रों से लेखकों की सौहार्द की भावना तो प्रकट होती ही है-यह भी प्रकट हो जाता है कि उस समय एक लेखक दूसरे लेखक के सरोकारों से और उसके सोच से किस प्रकार जुड़ा अनुभव करता था। जहाँ वह एक और लेखक की उपलब्धियों के प्रति अपनी प्रसन्नता प्रकट करके उसको प्रोत्साहन देता था, वहीं दूसरी ओर उसकी कमियों की ओर इंगित करके उसको सजग भी करता था। इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि यह सभी कार्य सौहार्दपूर्ण होने के कारण इन पत्रों का प्रभाव भारत जी पर उनकी पुस्तक-समीक्षा के प्रभाव से भी अधिक पड़ा होगा और उनके ये पत्र उन समीक्षा साहित्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बन गये होंगे। यही कारण है कि इस संग्रह में उन पत्रों को भी अधिक-से-अधिक देने का प्रयास किया गया, जिनसे भारत जी के साहित्य पर प्रकाश पड़ता है-चाहे वे अधिक प्रतिष्ठित साहित्यकार द्वारा लिखे गये हों या कम प्रतिष्ठित साहित्यकार द्वारा।

भारत जी बड़े क़रीने से रहने के आदी थे। अन्य फ़ाइलों के समान साहित्यकार मित्रों के साथ पत्र-व्यवहार की भी एक फ़ाइल बना रखी थी। जो भी पत्र उन्हें अच्छा लगता था, उसको उसमें नत्थी कर देते थे। कभी-कभी अपना ही पत्र महत्त्वपूर्ण लगने पर उसकी नक़ल रख लेते थे। स्वाभाविक है कि दूसरों को लिखे अपने पत्रों की संख्या अधिक नहीं हो सकती। यह कहते हुए मुझे दुःख भी है कि प्रत्येक सम्बन्धित लेखक से भारत जी के पत्रों की अनेक बार मांग करने पर भी कुछ ही लेखकों ने मेरी सहायता की है। मैं नेमिचन्द्र जैन, नामवर सिंह, मुक्तिबोध के पुत्र चि. रमेश और रघुवीर सहाय की सुपुत्री सुश्री मंजरी की कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने भारत जी के अनेक पत्रों को देकर इस संग्रह को महत्त्वपूर्ण बनाया है। और अब यह कहते हुए मुझे प्रसन्नता है कि लोगों के सहयोग के ही कारण भारत जी के साहित्यिक पत्रों की भी संख्या अन्य साहित्यकारों के पत्रों की संख्या के ही लगभग बराबर हो गई है। यही नहीं, भारत जी के फ़ाइल में मिले भारत जी के अपने पत्रों तथा इन पत्रों के कारण भी अनेक पत्रों में उत्तर प्रति उत्तर का भी समावेश हो सका है।

श्री नेमिचन्द्र जैन कॉलेज के दिनों से ही भारत जी के अन्तरंग मित्र थे और बाद में तो साढू भी बनें। पर दोनों के मन में ही मित्र-भाव प्रमुख रहा। नेमि जी सन् ’61 से कुछ पहले और भारत जी सन् ’61 में दिल्ली आकर बस गये थे, अतः इन दोनों का पत्र-व्यवहार मुख्यतः सन् ’38 से ’61 तक ही रहा। मुझे दुःख है कि सन् ’49 में ही एक राजनीतिक हादसे के कारण हड़बड़ी में भारत जी को अपने समस्त पत्र नष्ट करने पड़ गये। उन पत्रों में नेमि जी, रामानन्द तिवारी और मुझे लिखे हुए पत्र मुख्यतः थे। सन् ’ 46-48 तक मैं बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के विमेन होस्टल में रहकर पढ़ रही थी। उसी समय मुझे वे पत्र लिखे गये थे। यदि वे सभी पत्र सुरक्षित होते तो बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते थे।
इस पुस्तक में दो खण्ड हैं। खण्ड एक में साहित्यकारों के साथ पत्राचार है। खण्ड दो, जिसका शीर्षक ‘सागर पार से’ से दिया गया है, में यूरोप यात्रा के समय लिखे गये भारत जी के पत्र हैं।

देहावसान के एक वर्ष पूर्व ही भारत जी ने यूरोप-यात्रा की थी। उस समय भारत जी साहित्य अकादेमी के उप सचिव के पद पर कार्यरत थे और साहित्य अकादेमी की ही ओर से वे ब्रसेल्स में 16 जून से 22 जून तक होने वाले यूनियन अकादेमी इण्टरनेशनल के 48 वें अधिवेशन में भाग लेने गये थे। इसी यात्रा के समय वे विशिष्ट व्यक्ति, संस्था और सरकार के निमंत्रण पर पश्चिम जर्मनी, बेल्ज़ियम, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, लन्दन, फ़्रान्स, और माल्टा भी गये थे। यह यूरोप-यात्रा 10 जून 1974 से 9 अगस्त 1974 तक अर्थात दो महीने की थी। उसी दौरान मुझे अपने बेटे अनुपम भारत (भैया) को लिखे पत्र यहाँ ‘सागर पार से’ शीर्षक से दिये जा रहे हैं। इन पत्रों के माध्यम से योरोप में विशिष्ट देशों के विशिष्ट स्थलों एवं साहित्यिक गतिविधियों की ही जानकारी नहीं होती, भारत जी की मनःस्थिति एवं उनके चतुर्मुख व्यक्तित्व का भी अच्छा परिचय मिलता है।

पत्रों की स्वाभाविकता की सुरक्षा एवं लेखकों की मानसिक बुनावट की अभिव्यक्ति को ध्यान में रखते हुए हिन्दी पत्रों के बीच-बीच में प्रयोग किये गये अँग्रेज़ी शब्दों एवं अँग्रेज़ी में लिखे गये पत्रों को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है। यह पत्र एक प्रयोग की दृष्टि से भी रुचिकर है।

यों भारत जी के पत्र ‘भारतभूषण अग्रवाल रचनावली’ में भी प्रकाशित हैं। पर उस रचनावली में कुछ ही साहित्यकारों को लिखे केवल भारत जी के ही पत्र हैं, साहित्यकारों के नहीं। इसी कारण उन पत्रों से न तो यह स्पष्ट होता है कि भारत जी का पत्र-व्यवहार किन-किन साहित्कारों के साथ था तथा उसकी आपस की बातचीत के मुख्य विषय क्या रहते थे, और न यह कि वे साहित्यकार भारत जी के व्यक्तित्व और उनके साहित्य से किस प्रकार का जुड़ाव, एक प्रकार का सरोकार एवं आत्मीयता का अनुभव करते थे। यही नहीं, योरोप-यात्रा अर्थात ‘सागर पार से’ लिखे भारत जी के पत्र भी उस रचनावली में संकलित नहीं हैं। मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है कि यह पुस्तक ‘पत्राचार’ अपने नाम को सार्थक करती हुई, पूर्णता में प्रकाशित हो रही है।

आशा है पाठक इस संग्रह का स्वागत करेंगे। ये पत्र जैसे एक युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन पत्रों से भारत जी का ही नहीं, एक साथ इतने विशिष्ट साहित्यकारों का व्यक्तित्व तथा युग की साहित्यिक गतिविधियाँ प्रकाश में आ रही हैं। इसके माध्यम से समकालीन सोच को समझने में भी सहायता मिल सकती है। इस पत्राचार को प्रकाशित करने का यह उद्देश्य भी है।

बिन्दु अग्रवाल

खण्ड-एक

साहित्यकारों के साथ पत्राचार

अंगिरा



डॉ. ए. डी. शर्मा
5.6.66

श्री अग्रवाल जी,

 नमस्ते

     अत्र कुशलम् तत्रास्तु ! अभी हाल के ही ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में आपका सवक्तव्य लेख ‘धुत विलम्बिता’ पढ़ा, अनोखी सूझ है, हार्दिक बधाइयाँ।
    पिछले दिनों में ‘तुक्तक’ नाम की नयी विधा-कविता को आपने दी थी साथ ही एक नया शब्द ‘तुक्तक’ (‘मुक्तक’ के जोड़ का) आपने साहित्य शब्द-सागर में समविष्ट किया था। आज पुनः धुत विलम्बिता शब्द भी पढ़ा यद्यपि उससे मिलता जुलता द्रुत विलम्बित शब्द संस्कृत (या हिन्दी) में भी उपलब्ध है, तथापि उसका विलम्बित शीर्षक और द्रुत कविता लाइन के रूप में प्रयोग नितान्त अभिनव है। हाँ, क्या आपने धुत विलम्बित शब्द, व्यंग्य रूप में सकारण-या intentionally  रखा है अथवा प्रेस के भूतों की दया के कारण ‘द्रुत विलम्बित’ ही धुत विलम्बित हो गया है
यदि आप अनुचित न समझें तो उपरोक्त पते पर पत्रोचार लिखने का कष्ट करें।
कुछ भी हो धुत विलम्बित का प्रयोग अनूठा है तदर्थ बधाई स्वीकार करें।


साहित्य अकादेमी
रवीन्द्र भवन
नयी दिल्ली

भवदीय,
अंगिरा


अजित कुमार


साहित्य निकेतन
युग मन्दिर
उन्नाव
15.10.54

प्रिय भारत जी,
ओंकार कदाचित् इस समय तक इलाहाबाद पहुंच गये होंगे। उन्होंने बताया होगा कि यह योजना ‘1954 की कविताएँ’ प्रकाशित करने की है-पुस्तकाकार रूप में। यह पुस्तक पहली जनवरी को बाज़ार में पहुँच जाए, ऐसा प्रकाशक महोदय चाहते हैं। उन्होंने मेरे एक सहयोगी अध्यापक को और मुझे यह काम सौंपा है।

इस संकलन में, जिसमें 1954 में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कविताएँ संगृहीत की जाएँगी, हम लोग आपकी ‘सूखे की पुकार’ लेना चाहते हैं। आशा है, आपको कोई आपत्ति न होगी। हमारा चुनाव आपको पसन्द न हो तो स्वयं लिखिए कि कौन-सी दो कविताएँ (इस वर्ष में प्रकाशित) आप इस प्रकार के संकलन में देना पसन्द करेंगे।

कविताओं के लिए ‘रॉयल्टी’ का प्रबन्ध है। प्रकाशक बीस प्रतिशत रॉयल्टी देंगे, जो सम्पादकों-कवियों में बाँटी जाएगी।
पत्र का उत्तर मिलने की, चूँकि कोई आशा नहीं है इसलिए मैं यह मानकर आपको पत्र लिख रहा हूँ कि मेरे प्रस्ताव से आपको कोई आपत्ति न होगी। यदि आपको कोई संशोधन अथवा सुधार देना हो तो कृपा कर पत्र लिखें।
बिन्दु जी और नेमि जी से मेरा सादर प्रणाम कहें। बच्चों को प्यार !
आपके समाचार पूछूँ ? किन्तु उससे लाभ ही क्या है। समाचार मिलने को तो है नहीं।
मैं स्वस्थ हूँ। अन्य सब कुशल है।

आपका ही,
अजीत


हिन्दी विभाग
विदेश मन्त्रालय
23.6.59

प्रिय भारत जी,
‘कृति’ में मेरी लिखी समीक्षा पढ़कर शायद आप मुझे कुछ लिखना चाह रहे हों, पर नियमित पत्राचार न होते रहने के कारण संकोच कर रहे हों-यही सोचकर रिव्यू के बारे में आपकी स्पष्ट राय जानने के लिए यह कार्ड भेज रहा हूँ। बहुत से लोग तो सम्पादक महानुभावों द्वारा दिये गये शीर्षक को पढ़कर ही समीक्षा का मर्म समझ लेंगे। पर आपने उसे पढ़ा भी हो शायद। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि जो मैंने लिखा है, उसके सम्बन्ध में आप मुझे बहुत कुछ निर्देश दे सकते हैं। सम्भवतः कि मात्र आप ही उसे समझकर मुझे समझा भी सकते हैं कि कहाँ पर मैं सही पहुँचा या कहाँ भटका।
शीर्षक के सम्बन्ध में मैं ‘कृति’ को पत्र लिखना चाह रहा हूँ, शायद अगले अंक में छपे।
लखनऊ जाते समय ट्रेन में यह पत्र लिखा है, आपके लखनऊ वाले घर में एक बार भोजन करने की याद अचानक हो आयी है, और उसके साथ ही बिन्दु जी और अन्नू की भी। वे लोग अच्छे हैं न ! कुछ लिखेंगे !

आपका सादर,
अजित


45/13, टी.टी.नगर
भोपाल
24.6.59,

प्रिय अजित,
‘कृति’ में ‘ओ अप्रस्तुत मन !’ की समीक्षा पढ़ी। पढ़कर पहले तो चौंक गया। फिर सोचकर देखा तो मन तुम्हारी सूझ-बूझ का क़ायल हो गया। यह और बात है कि मेरी कविताओं को जिस नज़र से तुमने देखा-समझा है, उसकी ओर इससे पहले न मेरा ही ध्यान गया था, न और किसी मित्र का ही, पर सत्यान्वेषण में देर होने से उसका महत्त्व नहीं घटता। तुम्हारा विश्लेषण मुझे स्वयं बहुत अपील करता है और सोचता हूँ कि आगे मुझे विकास करने में इस चेतना से मदद मिलेगी कि मेरे मन की वास्तविक गुत्थी क्या है।

फिर भी इतना तो तुम्हें भी मानना होगा कि प्रेम-निराशा मेरी कविताओं की मूल-प्रेरणाओं में से एक ही है, अकेली नहीं है। और प्रेरणाओं का कोई ज़िक्र न करने से समीक्षा कुछ एकांगी लगती है। और फिर मूल-प्रेरणा जो भी हो, कविताओं का अध्ययन फिर भी वांछनीय और आवश्यक होता है, और तुमने ‘नाग, बीन और मदारी’ से लेकर ‘मूर्ति तो हटी परन्तु...’ तक वे सारी रचनाएँ छोड़ दीं जिनका सम्बन्ध प्रेम-भावनाओं से नहीं था।

इस सिलसिले में एक बात और कहूँ केवल सूचनार्थ। सन् ’36-37 के आसपास जब मैंने लिखना शुरू किया तब बच्चन और नरेन्द्र, अंचल और अज्ञेय सबकी रचनाओं में प्रेम और प्रेमजनित निराशा प्रमुख थी। मध्यवर्गीय मन की सामाजिक अभिव्यक्ति, उसकी विद्रोह-भावना, उसकी स्वप्न-कामना सब इसी माध्यम से प्रकट हुई थीं। स्वतन्त्रता, समानता और पूर्णता का प्रमाण यही था कि निर्बाध प्रेम की उपलब्धि हो। इसलिए प्रेम-भावना सिर्फ़ मेरी कविताओं में मिलती हो, या मैंने उस पर विशेष बल दिया हो, या मेरी ही कविता उस भावना से विशेषत: प्रभावित रही हो, ऐसा नहीं है। वह मेरे काल के मध्यवर्गीय जीवन का सहज-सामान्य प्रसंग था। जीवन के अन्य प्रश्नों के आगे प्रेम का प्रश्न व्यक्तिगत और निजी तो अब बना है जब तुमने लिखना शुरू किया। मेरे काव्य पर बच्चन और नरेन्द्र की सर्वाधिक छाप है। इसलिए प्रेम-निराशा के कारण मैं मध्यवर्गीय जीवन की ओर पहुँचा। यह विश्लेषण मेरे मत में ग़लत हैं। मध्यवर्गीय सीमाओं और समस्याओं में जन्म लेने के कारण मुझे प्रेम-निराशा ने इतना गहराई से प्रभावित किया, यह विश्लेषण मुझे ज़्यादा सही लगता है। बहरहाल, इससे तुम्हारे ‘angle की brillance  कम नहीं होती।

मन पर तो हर निजी घटना का प्रभाव पड़ता है, और यदि मुझे प्रेम-निराशा का अनुभव न होता तो मेरी कविता का स्वर कुछ भिन्न होता, यह कहना इतना सही है कि कहना ही बेकार है। पर कविताओं के बारे में इतना कह देने से ही क्या छुट्टी हो जाती है ? मेरी जो रचनाएँ प्रेम से संबंधित नहीं हैं, उन पर इस मूल अवचेतन प्रभाव के अतिरिक्त सामाजिक राजनीतिक जीवन के और भी कई गहरे अनुभव हैं, मतवाद, पक्षधरता, जीवन-दर्शन और साहित्य के प्रयोजन के। अपनी भूमिका में उनकी ओर मैंने संकेत किया था। उन सब अनुभवों को प्रेम-निराशा से सम्बद्ध कर देना ग़लत हुआ। फलत: मेरी कविता का जो सामान्य स्वर था, वह तुमने किसी गिनती में लिया ही नहीं। इस दृष्टि से मुझे अज्ञेय की समीक्षा अधिक युक्ति-संगत लगी, जिसमें प्रेम-पक्ष का पूर्णत: बहिष्कार करने के कारण एक भिन्न प्रकार की एकांगिता आ गयी है। मध्यवर्गीय जीवन में सारी निराशा के अंग-स्वरूप प्रेम-निराशा का भी चित्रण मैंने किया है, किसी एक पर एकान्त बल देना सही नहीं लगता।
पर वह जो हो, मैं कृतज्ञ हूँ कि तुमने मेरी कविताओं को इतना समय और ध्यान दिया, और मुझे उनको देखने का एक ऐसा पहलू बताया जिस पर पहले मेरी नज़र न गयी थी।

तुम्हारा,
भारतभूषण अग्रवाल





 

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