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रहस्य-रोमांच >> प्यादा

प्यादा

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7213
आईएसबीएन :9788184910445

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वो किस बिसात का प्यादा था? कौन था वो शातिर खिलाड़ी जो उसे मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहा था?...

Pyada - A Hindi Book - by Surendra Mohan Pathak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रौनक खुराना मेरा दोस्त था।
वैसे तो दिल्ली जैसे शहर में कौन किसी का दोस्त होता है फिर भी था तो उसकी बड़ी वजह ये थी कि वो भी मेरे ही जैसा घूंट लगाने का रसिया था। वैसे इस डिपार्टमेंट में उसका दखल और दावा आपके खादिम–सुधीर कोहली, दि ओनली वन–से ज्यादा प्रबल था क्योंकि वो अपने ही नाम वाले एक खूब चले हुए मिडल क्लास बार का मालिक था। रौनक बार एण्ड रेस्टोरेंट।
उसका बार पहाड़गंज के एक ऐसे इलाके में था जहां विदेशी सैलानियों को रास आने वाला बजट होटल्स की भरमार थी और रौनक बार के खूब चले होने के पीछे ये भी एक वजह थी।

खुराना मेरा दोस्त था और इस वजह से वहां स्टाफ को मेरे लिए बीस पर्सेंट डिस्काउंट की स्टैंडिंग इंस्ट्रक्शन थी जो कि कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी–रेगुलर्स को ऐसा डिस्काउंट कहीं भी हासिल होता था–बड़ी बात तब होती, उसका खास और मेहरबान दोस्त का दर्जा तब बनता जबकि वहां मेरे लिये सब कुछ ‘आन दि हाउस’ होता।
लेकिन क्योंकर होता !
आखिर वो भी तो खास दिल्ली वाली किस्म का ही चतुर सुजान हरामी था।
बहरहाल उसी दोस्ती का सदका था कि अपनी संकट की घड़ी में उसने मुझे याद किया था।
संकट की घड़ी !

उसके इकलौते बेटे लक्की खुराना का कत्ल हो गया था।
वो अपने ईस्ट पटेल नगर के फ्लैट में–जहां कि वो अपने पिता से अलग, अकेला रहता था–मृत पड़ा पाया गया था।
किसी ने उसे शूट कर दिया था।
मैं मकतूल बेटे से कोई खास वाकिफ नहीं था। कुछ अरसा पहले एक बार जब मैं रौनक बार की रौनक बढ़ा रहा था तो मेरी मौजूदगी में वो वहां पहुँच गया था और रौनक खुराना ने बड़े फख्र से अपने फरजन्देआलम से मेरा तआरुफ कराया था। वैसे ही पांच छ: बार वहां या और कहीं ‘हल्लो, हल्लो’ हुई हो तो हुई हो वर्ना मेरा उससे कोई सीधा वास्ता नहीं था। खुद उसने भी कभी कोई खास भाव मुझे नहीं दिया था और इस बात का तो कतई कोई रौब नहीं खाया था कि मैं प्राइवेट डिटेक्टिव था और दिल्ली शहर में इस धंधे की नाक था।

बहरहाल बाज लोगों की बेहतर जानकारी आपको तभी होती है जबकि वो इस फानी दुनिया से रुखसत हो चुके होते हैं, आपको तभी पता चलता है कि बहुत सी खूबियां थीं मरने वाले में। खूबियों के बखान का असल में वक्त ही तभी आता है। खोद खोदकर, ढूंढ ढूंढ़कर खूबियां निकाली जाती हैं, उनको चमका कर, पालिश कर, नोक पलक संवार कर पेश किया जाता है–उन लोगों के द्वारा भी जिनको मरने वाले की जिंदगी में उसकी जात से नफरत होती है, जिनको उसके वजूद को कबूल करते फांसी लगती होती है।
यही जिंदगी है।
खास तौर से दिल्ली शहर की।

जहां जमीन और कमीन के अलावा और किसी चीज की कद्र नहीं। मुझे उम्मीद तो नहीं कि यूअर्स ट्रली को आप भूल गए होंगे लेकिन अगर इत्तफाकन ऐसा हो गया हो तो मैं आपको अपना परिचय फिर से दिए देता हूँ। खाकसार को सुधीर कोहली कहते हैं। खाकसार प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता है जो अब हिन्दोस्तान में भी किसी हद तक जाना पहचाना जाने लगा है। अब तो दिल्ली में ही खाकसार की फर्म यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस जैसी साठ डिटेक्टिव एजेंसियां हैं। लेकिन सुधीर कोहली दि ओनली वन इस धंधे की तब भी मकबूल हस्ती था जबकि ये अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता था। योरोप अमेरिका की तरह लाइसेंस्ड पीडी तो यहां अभी भी नहीं होते लेकिन फिर भी अब ये धंधा चल निकला है और खूब फल फूल रहा है। बावजूद इसके कम से कम दिल्ली शहर में तो खाकसार का दर्जा अंधों में काना राजा वाला अभी भी है।

उस सुबह अभी मैं भगवानदास रोड वाले अपने नये आवास पर ही था और आफिस से निकलने की तैयारी में था जबकि फोन की घंटी बजी थी और मैंने लाइन पर अतिआंदोलित रौनक खुराना को पाया था।
‘‘कोहली !’’
‘‘हां। कौन ?’’
‘‘मैं रौनक खुराना।’’
‘‘गुड मार्निंग, खुराना साहब, सवेरे सवेरे कैसे याद किया ?’’’
‘‘मार्निंग गुड नहीं है, भई, और मतलब से याद किया ।’’

‘‘अरे, हां, मैं तो भूल ही गया था कि आप भी खास दिल्ली वाले हैं जहां हर कोई हर किसी को मतलब से ही याद करता है।’’
‘‘कोहली, प्लीज।’’
‘‘ओह, सारी। फरमाइये कैसे याद किया ?’’
‘‘पटेल नगर थाने में किसी को जानते हो ?’’
‘‘एकाएक तो याद नहीं आ रहा। बात क्या है ?’’
‘‘वो... अपना लक्की...’’

‘‘क्या हुआ उसे ?’’
‘‘खत्म। फिनिश। मार डाला।’’
उसकी आवाज इतनी रुंध गयी कि मुझे सुनने समझने में दिक्कत महसूस होने लगी।
‘‘क्या कह रहे हैं ? जरा ऊंचा बोलिये।’’
‘‘किसी ने गोली मार दी। शूट कर दिया। खत्म कर दिया। मेरा बेटा... मेरा इकलौता बेटा...’’
इस बार आवाज आनी बिल्कुल ही बंद हो गयी।
‘‘हे भगवान !’’–मेरे मुंह से निकला–‘‘इतना जुल्म !’’

‘‘हां। मेरा जवान बेटा...’’
‘‘आप कहां हो ?’’
‘‘घर पर। अभी लौटा हूं। शोभा को–उसकी मां को–भी तो बोलना है।... दाता ! कैसे बोलूंगा !’’
‘‘खबर कैसे लगी ?’’
‘‘पुलिस ने फोन किया। दौड़ा गया। खुद देखा। देखकर वहीं न मर गया... क-कैसे ? कैसे शोभा को बोलूंगा !’’
‘‘अब आप चाहते क्या हैं ?’’

‘‘कोहली पुलिस वाले कुछ बता नहीं रहे हैं... क्या हुआ ! कैसे हुआ ! क्यों हुआ ! जाकर मालूम करो। प्लीज।’’
‘‘आप मुझे बतौर पीडी एंगेज करना चाहते हैं ?’’
‘‘वो भी। वो भी। अभी तो दोस्त बनकर दिखाओ। प्लीज, जाकर कुछ पता करो।’’
‘‘ठीक है, जाता हूँ। देखता हूँ।’’
‘‘फौरन !’’
‘‘हां, फौरन।’’

‘‘थैंक्यू।’’
‘‘आप घरपर होंगे ?’’
‘‘हां।’’
‘‘मैं वहां से फोन करूंगा आपको। नम्बर बोलिये।’’
‘‘फोन ! नहीं, नहीं। तुम फोन न करना। फोन शोभा ने रिसीव किया तो... मैं फोन करूंगा। मोबाइल पर। ओके ?’’
‘‘ओके ।’’

‘‘गॉड ब्लैस यू।’’
लाइन कट गयी।
मैंने कलाई घड़ी पर निगाह डाली और फिर इंस्पेक्टर देवेंद्र यादव के घर के फोन पर काल लगायी। तत्काल उत्तर मिला। मालूम हुआ वो घर से कब का निकल चुका था। मैंने उसका पुलिस हैडक्वार्टर का नम्बर खड़काया। मालूम हुआ वो फील्ड ड्यूटी पर था।
फील्ड ड्यूटी !
जरूर ईस्ट पटेल नगर में कर रहा था।

इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव फ्लाईंग रक्वायड के उस दस्ते से सम्बद्ध था जो केवल कत्ल के केसों की तफ्तीश के लिये भेजा जाता था। यादव किसी हद तक मुझे अपना दोस्त मानता था क्योंकि रिश्वत बटोरने के लिए कई बार वो मुझे अपना मोहरा बना चुका था और मेरे ऐसे रोल को आइंदा भुना पाने की भी उसे हमेशा उम्मीद रहती थी। जमा, वो सब-इंस्पेक्टर से आउट ऑफ टर्न इंस्पेक्टर आपके खादिम की वजह से बना था लेकिन फिर भी उससे मेरी यारी ऐसी नहीं थी कि मुझे देखता तो बगलगीर होकर मिलता।
उस घड़ी उसका पटेल नगर थाने में मौजूद होना मेरा काम आसान कर सकता था।
फौरन उधर का रुख मैंने किया।

मैं घर से निकलता हूं तो मुझे याद होता है कि मैंने कार इस लिहाज से चलानी है कि मेरे ड्राइविंग लाइसेंस की मियाद खत्म होने से पहले मैं खत्म न हो जाऊं लेकिन दो मोड़ काटने पर ही कोई रोड रेज रसिया मिल जाता है और मैं सब भूल जाता हूं। नाहक हार्न बजा बजाकर, ठोक देने की धमकी दे देकर वो मुझे हड़का देता है और मैं भी जिद ठान लेता हूं कि साले को आगे नहीं निकलने देना। वो कमीना दिल्ली वाला था तो मैं भी तो वही था।
इस रोज भी वही हुआ, नतीजतन रिकार्ड टाइम में मैं अपनी मंजिल पर पहुंचा।
इंस्पेक्टर यादव पटेल नगर थाने में नहीं था।

पता नहीं उसकी ड्यूटी का फील्ड कहीं और था या वो वहां पहुंचा नहीं था।
या आके जा चुका था।
मैंने उसके मोबाइल पर काल लगाई।
जवाब न मिला।
मैं ड्यूटी आफिसर के पास पहुंचा जो कि एक लम्बा ऊंचा, गोरा चिट्टा, नौजवान सब-इंस्पेक्टर था और वर्दी पर लगी नेम प्लेट के मुताबिक जिसका नाम अनूप जोशी था।

मैंने उसे अपना जुबानी परिचय दिया और उसकी तसदीक के तौर पर अपना एक विजिटिंग कार्ड पेश किया।
उसने कार्ड को यूं कबूल किया जैसे उसे छूने भर से कोई छूत की बीमारी हो जाने का अंदेशा हो और नये सिरे से मेरे पर यूं निगाह डाली जैसे थाने में चोर घुस गया हो।
‘‘यस ?’’ –वो भावहीन स्वर में बोला।
‘‘इंस्पेक्टर यादव।’’–मैं बोला–‘‘अभी पहुंचे नहीं या आके चले गये ?’’
‘‘कौन इंस्पेक्टर यादव ?’’

‘‘भई, जो स्पैशल स्क्वायड के इंचार्ज हैं ! जो हैडक्वार्टर में नाईंथ फ्लोर पर बैठते हैं ! जो कत्ल के केसों की तफ्तीश के लिये पहुंचते हैं!’’
‘‘यहां नहीं आये।’’
‘‘तो क्या मौकायवारदात पर गये ?’’
‘‘मौकायवारदात !’’

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