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ताओ उपनिषद भाग-4

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7263
आईएसबीएन :978-81-288-2070

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ओशो द्वारा लाओत्से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए 127 प्रवचनों में से 21 (पैंसठ से एक सौ पचासी) अद्भुत प्रवचनों का अपूर्व संकलन...

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Tao Upnishad bhag-4 - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शायद मनुष्य के होने की यह अनिवार्यता है, यह नियति है, कि मनुष्य टूटे प्रकृति से और फिर से जुड़े।
चीन की रहस्यमयी ताओ परंपरा के उद्गाता लाओत्से के वचनों पर ओशो के इन प्रस्तुत प्रवचनों के मुख्य विषय-बिंदु
*शक्ति पर कोमलता की विजय के रहस्य।
*क्या है चरित्र ? क्या है श्रेष्ठ चरित्र ?
*विश्व-शांति के सूत्र क्या हैं ?

जगत में सर्वाधिक मूल्यवान क्या है ? कैसे वह उपलब्ध हो ?
विचार फासला पैदा करने की विधि है। मनुष्य टूट गया है। स्वभाव से, क्योंकि सोचता है; हर चीज पर सोचता है।
जहां-जहां सोचना प्रविष्ट हो जाता है वहां-वहां से टूटता चला जाता है।
मनुष्य बोधपूर्ण है। पूरी प्रकृति में मनुष्य अकेला बोधपूर्ण है, जो सोचता है, विचारता है, विमर्श करता है, जो राजी नहीं होता। चीजें जैसी हैं, उनके प्रति सोचता है, उनमें बदलाहट चाहता है, या अपने में बदलाहट चाहता है।

यदि ओशो की ऋतंभरा प्रज्ञा लाओत्से के रहस्यमय सूत्रों को प्रकाशित नहीं करती तो वर्तमान युग ताओ की अकूल संपदा से वंचित रह जाता। हमने लाओत्से का नाम ही तब सुना जब ओशो उसका हाथ पकड़कर अपने दरबार में ले आये और उसे उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित किया। यहां तक कि अपने आवास का नाम भी उन्होंने ‘लाओत्से हाउस’ ही रखा।
ओशो को लाओत्से के प्रति इतनी आत्मीयता क्यों कर होगी ? अब वैसे तो रहस्यदर्शी के रहस्यों में कौन उतर सकता है ? रहस्यदर्शी को सीधे समझ पाना तब तक संभव नहीं है जब तक हम उसमें पूरी तरह घुल मिल न जाएं–जैसे बताशा पानी में घुलता है।

रहस्यदर्शी को अंशतः समझने का झरोखा है उसके शब्द। शब्दों की अंगुली पकड़कर हम थोड़ा-बहुत उसके अंतराकाश में झांक सकते हैं। उस विराट का कुछ न कुछ स्वाद शब्दों में उतना ही है।
लाओत्से के सूत्र ‘ताओ तेह किंग’ पढ़कर कुछ-कुछ ऐसी ही अनुभूति होती है। लगता है, उत्तुंग शिखर पर खड़े होकर अनंत आकाश और अतल घाटियों का नजारा देख रहे हैं। सिर घूमने लगता है।
ताओ क्या है ?

स्वयं लाओत्से कहता है : ताओ परम है और अनाम है।
हमें नामों की जरूरत क्यों पड़ती है ? अपनी सुरक्षा के लिए। हम वस्तुओं पर नामों के लेबल चिपका देते हैं और सोचते हैं कि हम उन्हें जान गए। अज्ञात के साथ जीना कितना भयभीत करता है। भय मानवीय सभ्यता की देन है। और ताओ वह विशुद्घ स्थिति है जहां सभ्यता का उदय नहीं हुआ।

हो सकता है इस विशुद्ध स्थिति में मनुष्य-जाति का पतन होना शुरू हुआ इसलिए ताओ की परंपरा लुप्तप्राय हो गई। लाओत्से के रूप में जो विराट उतर आया था धरती पर, उसकी स्मृति धूमिल हो गई।
ताओ उपनिषद के इस भाग के प्रारंभ में ओशो खुद यह प्रश्न उठाते हैं कि मैं लाओत्से पर क्यों बोल रहा हूं ?
फिर खुद ही बातते हैं कि चीन में कम्युनिज्म का जो उदय हुआ वह सारे रहस्यवादों के अस्त का कारण बना।

तिब्बत से बौद्ध परंपरा और चीन से लाओत्से परंपरा का विध्वंस शुरू हुआ। लेकिन अस्तित्व में सिर्फ विध्वंसक शक्तियां नहीं हैं, उसका संतुलन बनाने के लिए सृजनात्मक शक्तियां भी कार्यरत होती हैं। लाओत्से की विचारधारा इतनी श्रेष्ठतम है कि उसे बचाना, उसे पुनरुज्जीवित करना पृथ्वी के हित में है। अन्यथा भौतिकवाद उसे पूरा ही निगल जाता। ओशो के श्रीमुख से ताओ की सरिता फिर बह निकली। उसे सरिता क्या कहें, वह साक्षात सागर ही है। लाओत्से ने सत्य के सागर को गागर में सूत्रित किया था। ओशो ने गागर पुनश्च सागर में उंडेल दी। और ‘ताओ तेह किंग’ का पुनर्जन्म हुआ, ताओ उपनिषद’ की सूरत में।

इस पुनर्जन्म के गर्भ में गहरे कारण छिपे हैं। ओशो कहते हैं, लाओत्से की पूरी परंपरा नष्ट होने के करीब है। इसलिए दुनिया में बहुत तरह की कोशिश की जाएगी कि परंपरा नष्ट न हो पाए, उसके बीज कहीं और अंकुरित हो जाएं। मैं जो बोल रहा हूं वह भी उस बड़े प्रयास का हिस्सा है।
‘लाओत्से को अगर कहीं भी स्थापित करना हो तो भारत के अतिरिक्त और कहीं स्थापित करना मुश्किल है। भारत समझ सकता है। अकर्म की धारणा को भारत समझ सकता है। निसर्ग की, स्वभाव की धारणा को भारत समझ सकता है।’

हो सकता है लाओत्से को भारत से जोड़ने के हेतु ओशो ने अपने को ‘ताओ उपनिषद’ कहा है। लाओत्से कहीं भारत की आत्मा में बसा हुआ है। लाओत्से का परिचय हमारे वेद-उपनिषदों को पहचानने का माध्यम बन सकता है।
लाओत्से और ओशो का मेल हमें वहां दिखाई देता है जहां लाओत्से विरोधाभासों के बीच सहजता से डोलता है और दो विपरीत स्वरों के बीच संगीत पैदा करता है। ओशो भी तो विरोधाभास को कितनी खूबसूरती से सम्हालते हैं–जैसे कोई पक्षी अपने दो पैरों को तौलते हुए दूर गगन में उड़ान भरे।

उदाहरण के लिए सूत्र क्रमांक 36, ‘जीवन की लय’ देखें–
‘सत्ता से जिसे गिराना है, पहले उसे फैलाव देना पड़ता है।’
‘जिसे दुर्बल करना है, पहले उसे बलवान बनाना पड़ता है।’
जिसे नीचे गिराना है, पहले उसे शिखरस्थ करना होता है।’

इस द्वंद्व को इतनी सुस्पष्टता से वही देख सकता है जो निर्द्वंद्व स्थिति में पहुंच गया है, जिसकी वीणा के सारे स्वर शांत हो गए। स्वभावतः लाओत्से के बेबूझ सूत्रों को मनु्ष्य की समझ में उतारने के लिए ओशो के अतिरिक्त किसी की सामर्थ्य नहीं है।

सूत्र का अर्थ है : संक्षेप में कही गई बात। सूत्र का मूल अर्थ है धागा। तो सूत्र वह धागा है जिसे पकड़कर आप ज्ञान की गहराई में उतर सकते हैं। अब अगर बहुत बड़ा रहस्य थोड़े से शब्दों में कहना हो तो कोड लैंग्वेज, सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना होता है। उन संकेतों को डि-कोड किए बगैर इन सूत्रों को समझना असंभव है। साधारण आदमी की समझ वहां तक नहीं पहुंच सकती। इसी वजह से लाओत्से के कीमती सूत्र उपेक्षित पड़े रहे। जो बहुमूल्य रत्न थे उन पर धूल जमती रही। ओशो ने उस धूल को झाड़कर हीरों को फिर चमका दिया और उन्हें मनुष्य के उपयोग के योग्य बना दिया। अस्तित्व इसके लिए ओशो का सदा श्रणी रहेगा।

अब जैसे लाओत्से कहता है : ‘श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत होता है।’
हमारा तर्कयुक्त मस्तिष्क इस कथन को एकदम अस्वीकार कर देगा। यह क्या उल्टी बात कर रहा है ? अब ओशो की निगाह से देखिए :
‘लाओत्से के ये सूत्र सामान्य, तृतीय श्रेणी के मनुष्य को जैसा दिखायी देता है उसकी खबर देते हैं। यह जो सामान्य बुद्धि है उस बुद्धि के अनुसार हमें श्रेष्ठ चरित्र खाली मालूम होगा। क्योंकि हम जिसे चरित्र कहते हैं वह तो चरित्र है ही नहीं। हम जिसे चरित्र कहते हैं उसे हम एक शिखर की भांति देखने के आदी हो गए हैं। ताओ का जो चरित्र है, वस्तुतः जो निर्मल धर्म का चरित्र है, वह तो हमें घाटी की तरह दिखाई देगा क्योंकि हम उल्टे खड़े हैं।’

इस पुस्तक के कुल इक्कीस प्रवचन संकलित हैं। और जैसा कि ओशो का रिवाज है, लाओत्से के सूत्रों के अलावा कुछ प्रश्नोत्तर भी शामिल हैं। अब यह सवाल हर एक के दिल में अवश्य उठा होगा कि आध्यात्मिक सूत्रों के साथ सामान्य मनुष्य के साधारण प्रश्नों की क्या संगति है ? क्या इससे इन सूत्रों की ऊंचाई कम नहीं होती ?
लेकिन ओशो जैसे सदगुरुओं के हर कृत्य के पीछे गहरे कारण होते हैं। यह भी उनकी एक विधि है जिसके द्वारा वे मनुष्य के मन पर काम पर रहे हैं। आइये उन्हीं के द्वारा सुने :

‘प्रश्नों के उत्तर मैं नहीं देता हूं। मैं केवल विधि देता हूं जिससे प्रश्न हल किए जा सकते हैं। मैं जो आपके प्रश्नों के उत्तर देता हूं, उन उत्तरों से मुझे कोई मोह नहीं है। उनको आप पंडित की तरह याद मत रखना। आप तो सिर्फ प्रक्रिया समझें कि एक प्रश्न में कैसे उतरा जा सकता है, और एक प्रश्न से कैसे जीवंत लौटा जा सकता है बाहर, समाधान लेकर। और जिस दिन आपके प्रश्न आपके भीतर ही गिरने लगें और आपकी चेतना से उत्तर उठने लगें उस दिन समझना कि आप मेरे उत्तरों को समझ पाए।

तो लाओत्से और ओशो के इस मधुर समस्वरता में आपका स्वागत है। अगर लाओत्से से पूछें तो वह इस घटना का वर्णन करेंगे–जहां स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन होता है। वहां मीठी-मीठी वर्षा होती है।’

मा अमृत साधना

अनुक्रम


६५ स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन
६६ स्वयं का ज्ञान ही ज्ञान है २१
६७. सारा जगत ताओ का प्रवाह है ४१
६८. ताओ का स्वाद सादा है ६१
६९. शक्ति पर भद्रता की विजय होती है ८१
७॰. विश्व-शांति का सूत्र : सहजता व सरलता १॰१
७१. सहजता और सभ्यता में तालमेल १२३
७२. श्रेष्ठ चरित्र और घटिया चरित्र १४५
७३. पैगंबर ताओ के खिले फूल हैं १६७
७४. एकै साधे सब सधे १८५
७५. अस्तित्व में सब परिपूरक है २॰५
७६. अस्तित्व अनस्तित्व से घिरा है २२५
७७. सच्चे संत को पहचानना कठिन है २४७
७८. मैं अंधेपन का इलाज करता हूं २६७
७९. ताओ सबसे परे है २८७
८॰. कठिनतम पर कोमलतम सदा जीतता है ३॰७
८१. सर्वाधिक मूल्यवान–स्वयं की निजता ३२५
८२. वह पूर्ण है और विकासमान भी ३४५
८३. प्रार्थना मांग नहीं, धन्यवाद है ३६५
८४. मार्ग स्वयं के भीतर से है ३८५
८५. जीवन परमात्म-ऊर्जा का खेल है ४॰५


स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन


मुझसे अक्सर ही लोग पूछते हैं कि लाओत्से पर बोलना मैने क्यों चुना ? कुछ जरूरी कारण से। एक तो लाओत्से की पूरी परंपरा करीब-करीब नष्ट होने की स्थिति में है, चीन लाओत्से की सारी व्यवस्था को, चिंतना को, उसके आश्रमों को, उसके संन्यासियों को आमूल नष्ट करने में लगा है। एक बहुत पुराना संघर्ष। कोई तीन हजार वर्ष चीन में दो जीवनधाराएं थीं, एक कनफ्यूशियस की और एक लाओत्से की। बहुत गहरे में देखें तो दुनिया में जितनी विचारधाराएं हैं, उनको इन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। कनफ्यूशियस मानता है नियम को, व्यवस्था को, शासन को, संस्कृति को। लाओत्से मानता है प्रकृति को; संस्कृति को नहीं, नियम को नहीं स्वभाव की अराजकता को; व्यवस्था को नहीं, सहज स्फूरणा को; अनुशासन को नहीं–क्योंकि सभी अनुशासन, वह जो जीवन का स्वभाव है, उसे नष्ट करता है–वरन सहज प्रवाह को। दुनिया की सारी चिंतनधाराएं दो हिस्सों में बांटी जा सकती हैं : एक वे जो मनुष्य को अच्छा बनाना चाहती हैं और एक वे जो मनुष्य को सहज बनाना चाहती हैं। एक वे जो मनुष्य को पूर्ण बनाना चाहती हैं; कोई प्रतिमा, कोई आदर्श, जिसके अनुकूल मनुष्य को ढालना है। और एक वे जो मनुष्य को पूर्ण बनाना चाहती है; कोई प्रतिमा, कोई आदर्श जिसके अनुकूल मनुष्य को ढालना है। और एक वे जो मनुष्य को स्वाभाविक बनाना चाहती हैं; कोई कोई आदर्श नहीं, कोई प्रतिमा नहीं, जिसके अनुकूल मनुष्य को ढालना है।

लाओत्से दूसरी परंपरा में अग्रणी है। लाओत्से के समय में भी उसके विचार को नष्ट करने का बहुत उपाय किया गया। कनफ्यूशियस को मानने वालों ने सब तरह से, उस विचार का अंकुर ही न पनप पाए, इसकी चेष्टा की। क्योंकि कनफ्यूशियस के लिए इससे बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता।

लाओत्से कहता है कोई नियम नहीं, क्योंकि सभी नियम विकृत हैं। लाओत्से कहता है स्वभाव, सहजता, ऐसा बहे मनुष्य जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। रास्ते बनाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी रास्ते मनुष्य के साथ जबरदस्ती करते हैं। और नियम देना खतरनाक है, क्योंकि सभी नियम हिंसा करते हैं। लाओत्से कहता है कि अगर मनुष्य को उसके आंतरिकतम केंद्र के अनुसार छोड़ दिया जाए तो जगत में कुछ भी बुरा न होगा। मनुष्य को अच्छा बनाने की जरूरत नहीं है, मनुष्य को उसके आंतरिक स्वभाव के साथ छोड़ देने की जरूरत है। चेष्टा की जरूरत नहीं है, क्योंकि चेष्टा विकृति में ले जाएगी।

स्वभावतः, कनफ्यूशियस को अति कठिन थी यह बात। और कनफ्यूशियस के चिंतन में तो लगेगा कि यह आदमी सारे जगत को अराजकता में ले जाएगा, अनार्की में, और यह आदमी तो सब नष्ट कर देगा। समाज, संस्कृति, इस सबका क्या होगा ? नीति, सदाचार, नियम ? तीन हजार साल से कनफ्यूशियस के मानने वाले लाओत्से के संन्यासियों को, उसके शास्त्रों को, उसकी धारा में बहने वाले लोगों को, सब तरह से उनकी जड़ें न जम पाएं चीन में, इसकी चेष्टा में लगे रहे थे।

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